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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ५२

चार शास्त्रों से भगवान को समझना

संवत् १८७६ में माघ कृष्णा तृतीया (२ फरवरी, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन के ऊपर की मंजिल के बरामदे में कथावाचन७९ करवा रहे थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में संतवृंद तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे।

कथा में प्रसंग आया कि सांख्य, योग, वेदान्त तथा पंचरात्र, इन चार शास्त्रों द्वारा जो पुरुष भगवान के स्वरूप को समझ लेता है, वही पूर्ण ज्ञानी कहलाता है।

तब मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा, “हे महाराज! इन चार शास्त्रों द्वारा किस प्रकार भगवान को जाना जा सकता है? यदि इन चार शास्त्रों द्वारा भगवान को न जाना जा सके तो उसमें कौन-सी न्यूनता रहती है, वह बताइए।”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “सांख्यशास्त्र भगवान को चौबीस तत्त्वों से परे पच्चीसवाँ बताता है। चौबीस तत्त्व जिस प्रकार भगवान के बिना कुछ भी करने में समर्थ नहीं होते, उसी प्रकार जीव-ईश्वर भी भगवान के बिना कुछ भी करने में समर्थ नहीं हो पाते। इसीलिए, जीव-ईश्वर की भी चौबीस तत्त्वों के भीतर ही गणना की जाती है; तथा जीव-ईश्वर सहित ऐसे जो चौबीस तत्त्व हैं, उन्हें क्षेत्र कहा जाता है और पच्चीसवें जो भगवान हैं, उन्हें क्षेत्रज्ञ कहते हैं।

“योगशास्त्र भगवान को छब्बीसवाँ तत्त्व तथा मूर्तिमान बताता है और जीव-ईश्वर को पच्चीसवाँ कहता है तथा चौबीस तत्त्वों को पृथक् बताता है। उसका यह निर्देश भी है कि इन तत्त्वों से अपनी आत्मा को पृथक् समझकर भगवान का ध्यान करते रहना चाहिए।

“वेदान्तशास्त्र भगवान को सबका कारण, सर्वव्यापक, सर्वाधार, निर्गुण, अद्वैत, निरंजन तथा कर्ता होने पर भी अकर्ता, प्राकृत विशेषणरहित तथा दिव्य विशेषणसहित बताता है।

“पंचरात्र शास्त्र ने भगवान के सम्बंध में यह बताया है कि: ‘श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम नारायण ही वासुदेव, संकर्षण, अनिरुद्ध तथा प्रद्युम्न नामक चतुर्व्यूहरूप होते हैं और पृथ्वी पर अवतार धारण करते हैं। जो पुरुष उनकी नव प्रकार की भक्ति करता है, उसका कल्याण होता है।’

“इस प्रकार, ये चार शास्त्र भगवान के सम्बंध में जैसा वर्णन करते हैं, उसे यथार्थरूप में समझनेवाला पुरुष ही पूर्ण ज्ञानी कहलाता है।

“यदि अन्य तीन शास्त्रों को छोड़कर जो पुरुष केवल सांख्यशास्त्र के द्वारा ही भगवान के स्वरूप को समझता है, उसमें बाधा उत्पन्न हो जाती है। क्योंकि सांख्यशास्त्र में जीव-ईश्वर को तत्त्वों से अलग नहीं बताया गया है, इसलिए जब तत्त्वों का निषेध करके तत्त्वों से अपनी जीवात्मा को पृथक् समझा जाए, तभी पच्चीसवाँ अपनी जीवात्मा को समझा जा सकेगा, किन्तु भगवान को नहीं समझा जा सकता।

“यदि अकेले योगशास्त्र द्वारा ही भगवान के स्वरूप को समझा जाए, तो यह दोष आता है कि: योगशास्त्र ने भगवान को मूर्तिमान बताया है। वह उन्हें परिच्छिन्न मानता है, किन्तु अन्तर्यामी और परिपूर्ण नहीं मानता।

“जो एकमात्र वेदान्तशास्त्र द्वारा ही भगवान के स्वरूप को समझता है, तो यह दोष आता है कि भगवान को जिस प्रकार सर्वकारण, सर्वव्यापक तथा निर्गुण कहा गया है, उन्हें वह निराकार समझता है, परन्तु वह भगवान के प्राकृत करचरणादि रहित और दिव्य अवयव वाले सनातन आकार को नहीं मानता।

“यदि अकेले पंचरात्र शास्त्र द्वारा ही भगवान के स्वरूप को समझा जाए, तो यह दोष उपस्थित हो जाएगा कि भगवान के अवतारों की भक्ति में मनुष्यभाव आता है तथा उनमें एकदेशस्थ भाव (केवल एक स्थान में रहने का भाव) होता है, परन्तु इससे भगवान के सर्वान्तर्यामी होने तथा उनके परिपूर्ण होने के भाव की समझ नहीं हो पाती है!

“अतः इन चारों शास्त्रों द्वारा भगवान को न समझा जाए तो उपरोक्त दोष उपस्थित होते हैं। यदि इन चारों शास्त्रों के माध्यम से भगवान के स्वरूप को समझा जाए, तो एक शास्त्र के ज्ञान से उपस्थित होनेवाले दोष का निराकरण अन्य शास्त्र के बोध से सहज हो जाता है। इसीलिए, इन चारों शास्त्रों के माध्यम से जो भगवान के स्वरूप को समझते हैं, ऐसे पुरुष को ही परिपूर्ण ज्ञानी कहते हैं। जो इन चारों शास्त्रों में से एक शास्त्र को छोड़ दे, उसे पौन-ज्ञानी कहते हैं। दो शास्त्रों को छोड़नेवाला पुरुष अर्ध ज्ञानी कहलाता है और तीन शास्त्रों को छोड़नेवाले पुरुष को पाव ज्ञानी कहा जाता है। जो इन चारों शास्त्रों को छोड़कर अपने मन की कल्पना से चाहे किसी भी तरह शास्त्रों को समझकर उनका पालन करता हो, वह भले ही वेदान्ती हो या उपासनावाला हो, दोनों को ही पथभ्रष्ट माना जाएगा और उनमें से किसी को भी कल्याण का मार्ग अब तक हाथ में नहीं आया है। अतः ऐसे वेदान्ती भी दम्भी ज्ञानी हैं तथा ऐसी अपूर्ण उपासनावाला भी दम्भी भक्त ही है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ५२ ॥

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७९. मोक्षधर्म की।

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