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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ५३

उन्नति और अवनति

संवत् १८७६ में माघ कृष्णा नवमी (८ फरवरी, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पश्चिम की ओर मुखारविन्द करके पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत चूड़ीदार पाजामा और सफ़ेद अंगरखा पहना था तथा जरीदार पल्लेवाला कुसुम्बी रंग का भारी शेला कमर पर बाँधा था, सिर पर पल्लेवाला भारी नीले रंग का रेटा धारण किया था। पाग में पुष्पों के तुर्रे झूल रहे थे। उन्होंने कंठ में पुष्पों के हार पहने थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “कोई प्रश्न पूछिये।”

उस समय मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “कोई तो सत्संग में रहकर दिन-प्रतिदिन उन्नति करता रहता है और किसी की सत्संग में रहने पर भी दिन-प्रतिदिन अवनति होती रहती है। इसका क्या कारण है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “महान साधु में अवगुण देखनेवाला हमेशा अवनति पाता रहता है, और उन वरिष्ठ साधु के गुणों को ग्रहण करनेवाले की उन्नति होती रहती है और भगवान में उसकी भक्ति भी बढ़ती जाती है। अतः वरिष्ठ साधु में अवगुण नहीं देखना चाहिए। बल्कि उनके गुणों को ही ग्रहण करना चाहिए। यदि साधु, परमेश्वर द्वारा निर्धारित पंचव्रतों की मर्यादाओं में से किसी मर्यादा का उल्लंघन करे, तभी उसमें अवगुण समझना ठीक है, परन्तु पंचव्रतों का उन्होंने तनिक भी उल्लंघन न किया हो, और केवल उनकी स्वाभाविक प्रकृति ठीक न लगे, इतने भर अवगुण को देखकर यदि कोई उन साधु के अन्य अनेक गुणों की उपेक्षा करता है, उनका केवल अवगुण ही ग्रहण करता है, तो उस दोष को देखनेवाले के ज्ञान-वैराग्य आदि शुभ गुण कम हो जाते हैं। इसलिए, पंचव्रतों के पालन में कोई अन्तर दिखाई पड़ने पर ही साधु का अवगुण समझना, किन्तु भगवान के भक्त का यों ही अवगुण नहीं देखना चाहिए। यदि कोई पुरुष साधु का अवगुण नहीं देखता, तो उसके शुभ गुणों की दिन-प्रतिदिन वृद्धि होती रहती है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ५३ ॥

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