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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ५५

भजन-स्मरण तथा व्रत-नियम की दृढ़ता

संवत् १८७६ में माघ कृष्णा एकादशी (१० फरवरी, १८२०) को श्रीजीमहाराज दादाखाचर के राजभवन में अपने निवास स्थान में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में सन्तवृंद तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “प्रश्नोत्तर का कार्यक्रम प्रारम्भ कीजिए।”

उस समय मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “जीव में भजन, स्मरण तथा व्रत-नियमों के पालन की एक समान दृढ़ता क्यों नहीं रहती?”

फिर श्रीजीमहाराज बोले कि, “अशुभ देश, काल, क्रिया और संग का योग होने के कारण ऐसी दृढ़ता नहीं रहती। यह दृढ़ता भी तीन प्रकार की होती है: उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ। किन्तु देश, काल, क्रिया और संग बहुत खराब होने पर वे उसकी उत्तम दृढ़ता को भी समाप्त कर डालते हैं। फिर मध्यम और कनिष्ठ दृढ़ता की तो बात ही क्या कहनी है? देश, काल, क्रिया और संग के अत्यन्त खराब होने पर भी यदि दृढ़ता ज्यों की त्यों बनी रहती है, तो उसका कारण पूर्वजन्म के बीजरूप भारी संस्कार और भारी पुण्य हैं। यदि देश, काल, क्रिया और संग, सभी अतिपवित्र हैं, फिर भी यदि पुरुष को बुद्धि मलिन हो जाती है, तो यही कारण है कि उसके पूर्वजन्म तथा इस जन्म का कोई बड़ा पाप आज बाधक बन रहा है अथवा भगवान के किसी बड़े भक्त के साथ किया गया द्रोह ही उसके मार्ग में रुकावट डाल रहा है, क्योंकि देश, काल, क्रिया और संग अच्छा होने पर भी उसका अन्तःकरण खराब हो जाता है। इसीलिए यदि वह सत्पुरुष की सेवा में सावधान होकर रहता है, तो उसके पाप जलकर भस्म हो जाते हैं। यदि अतिपापी का संग हो जाए, तो पाप बढ़ता ही जाता है तथा कुछ पुण्य बचा हो, वह भी नष्ट हो जाता है। और मदिरापान करनेवाली वेश्याओं के गले में हाथ डालकर बैठ जाता है, फिर परमेश्वर का ही दोष निकालता है कि, ‘भगवान ने मेरा मन ठिकाने पर क्यों नहीं रखा?’ ऐसे पुरुष को तो महामूर्ख समझना चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ५५ ॥

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