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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ५६

निर्मानी भक्त की महत्ता; इष्टदेव की निष्ठा

संवत् १८७६ में माघ कृष्णा द्वादशी (११ फरवरी, १८२०) को सायंकाल श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत धोती धारण की थी। जरीदार नीले रंग का ‘रेटा’ ओढ़ा था और सिर पर घुमावदार पल्ले का फेंटा बाँधा था। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में मुनिगण तथा स्थान-स्थान से आए हरिभक्त बैठे हुए थे। नारायण-धुन करते हुए मुनिगण झाँझ-मृदंग लेकर कीर्तन कर रहे थे।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “अब कीर्तन स्थगित कीजिए और थोड़ी देर के लिए प्रश्नोत्तरी प्रारम्भ करें।” ऐसा कहकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “अच्छा, मैं प्रश्न पूछता हूँ कि श्रीकृष्ण भगवान ने गीता में चार प्रकार के भक्त बताए हैं, उनमें ज्ञानी को अधिक (श्रेष्ठ) बताया है।८१ फिर भी, जब इन चारों प्रकार के भक्तों में, भगवान के स्वरूप का निश्चय एक समान ही रहता है, तब ज्ञानी को ही श्रेष्ठ क्यों बताया गया है?”

मुनि इस प्रश्न का यथेष्ट उत्तर न दे सके।

तत्पश्चात् श्रीजीमहाराज बोले कि, “ज्ञानी तो ब्रह्मभाव की स्थिति में रहता है तथा भगवान की महिमा को यथार्थरूप में जानता है। इसलिए, उसे भगवान के स्वरूप के सिवा मन में अन्य किसी प्रकार की कोई कामना नहीं रहती। किन्तु तीन प्रकार के अन्य भक्तों को यद्यपि भगवान का निश्चय तो रहता है, फिर भी वे भगवान की महिमा यथार्थरूप से नहीं जानते, अतः इनमें भगवान के अतिरिक्त अन्य कामनाएँ बनी रहती हैं। इसलिए, वे ज्ञानी के समान श्रेष्ठ नहीं हो सकते। भगवान के भक्त के मन में भगवान के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु की कामना रहती है, तो यह एक बड़ी कमी है।

“जिसमें किसी तरह की वासना नहीं रहती, किन्तु तीव्र वैराग्यवान होने पर भी वह वैराग्य के योग से अहंकारपूर्ण आचरण करता है, तो वह उसमें एक बड़ी कमी है। यदि कोई अत्यन्त आत्मज्ञान अथवा भगवान में दृढ़ भक्ति रहने के घमंड के कारण गरीब हरिभक्त के प्रति नम्र व्यवहार नहीं करता अथवा उसके समक्ष विनयपूर्ण वचन नहीं बोलता, तो यह भी उसमें बड़ा दोष है। इस दोष के कारण उस हरिभक्त की निष्ठा वृद्धि नहीं पा सकती।

“जिस प्रकार संगतराश (भूगर्भ जलविशेषज्ञ) कुआँ खोदता हो और नीचे के भाग में पत्थर की ध्वनि यदि कम होगी तो वह कहेगा कि, ‘पानी बहुत होगा,’ किन्तु ऊपरी तौर पर खनकनेवाले कठिन पत्थर हों, तो उसे काटकर निकालते हुए (हथौड़े की चोट के कारण) अग्नि की चिंगारियाँ उड़ेगी तो संगतराश यह कहेगा कि, ‘इस कुएँ में पानी तो होगा, लेकिन कम होगा।’ उसी प्रकार जो पुरुष ज्ञान, वैराग्य तथा भक्ति के घमंड से उन्मत्त रहता है, वह यद्यपि बड़ा तो कहलाता है, फिर भी उस में निरभिमान भक्त के सदृश महान गुण नहीं रहते। इसलिए, जो भगवान को प्रसन्न करने की इच्छा रखता हो, उसे ज्ञान, वैराग्य, भक्ति तथा किसी अन्य श्रेष्ठ गुण के रहने के अहंकार से उन्मत्त नहीं होना चाहिए। तभी उस पुरुष के हृदय में प्रकट प्रमाण श्रीकृष्ण नारायण प्रसन्न होकर निवास करते हैं।”

यह सुनकर मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “हे महाराज! ज्ञान, वैराग्य, भक्ति तथा अन्य शुभ गुणों के योग से यदि अभिमान उत्पन्न हो जाए, तो उसे किस उपाय द्वारा टालना चाहिए?”

तब श्रीजीमहाराज ने कहा, “भगवान के भक्तों के माहात्म्य को जानकर स्वयं उन्हें नमस्कार करें, और उनकी सेवा-चाकरी करें। यदि हृदय में मान का कोई संकल्प उत्पन्न हो, तो ऐसे विपरीत विचारों को पहचाने तथा (आत्म) विचार का बल रखें, तभी उसका मान मिट जाता है।

“और, अतिशय प्रेमलक्षणा भक्ति के फलस्वरूप भगवान यदि उस भक्त के वश में हो गए तब उस भक्त के हृदय में अगर भक्ति का घमंड पैदा हो गया, तो भी उसमें यह एक बड़ी कमी रहेगी। यदि आत्मज्ञान अथवा वैराग्य का मान रहता है, तो भी वह मान देहात्मबुद्धि को ही दृढ़ करता रहेगा। इसलिए, भगवान के भक्तों को किसी भी प्रकार का मान नहीं रखना चाहिए, यही भगवान को प्रसन्न करने का उपाय है।

“जो अन्तर्दृष्टिवाले भगवान के भक्त हों, वे यदि आत्मनिरीक्षण द्वारा अपने हृदय को टटोलकर देखेंगे, तो उन्हें थोड़ा-सा भी मान रहता होगा, तब उसके अन्तःकरण में विराजमान भगवान की मूर्ति की दृष्टि कठोर दिखाई पड़ेगी। और जब उसे निर्मान-भाव रहेगा, तब अपने हृदयस्थित भगवान की मूर्ति की दृष्टि अतिशय प्रसन्न प्रतीत होगी। इसीलिए, भगवान के भक्तों को (आत्म) विचार का बल रखकर किसी भी प्रकार के मान को उत्पन्न होने का अवसर नहीं देना चाहिए।

“मानयुक्त ज्ञान, वैराग्य और भक्ति ‘मिलावट वाला स्वर्ण’ ही समझा जाएगा। जिस प्रकार, सोने में मिलावट होने पर उसे पन्द्रह अंश (कैरेट) का स्वर्ण कहते हैं, उससे अधिक मिलावट होने पर वह बारह अंश का और उससे बहुत अधिक मिलावट होने पर आठ अंशवाला सोना कहा जाता है, उसी तरह उन भक्तों के ज्ञान, वैराग्य तथा भक्ति में जैसे-जैसे अहंकार का मिश्रण अधिक होता जाएगा, वैसे-वैसे ये तीनों सद्‌गुण कम होते जाएँगे। अतः मानरहित ज्ञान, वैराग्य और भक्ति सोलह अंशवाले स्वर्ण के समान हैं।

“तथा मानयुक्त लोगों में ये सद्‌गुण ऊपर से तो बहुत अच्छे दिखते हैं, किन्तु ऐसे लोगों के अंतःकरण में अधिक बल नहीं होता है। जैसे एक दृष्टान्त है कि - जिस प्रकार पचास कोटि योजन पृथ्वी पूरे समुद्र, पर्वत तथा समस्त भूतप्राणिमात्र की आधार है, अतः बहुत बलिष्ट दिखाई देती है! उससे भी अधिक जल है, जो बहुत शक्तिशाली मालूम पड़ता है, क्योंकि उस जल में पृथ्वी कंडे की भाँति तैरती रहती है। और जल की अपेक्षा तेज में अधिक बल होने की प्रतीति होती है, तेज की अपेक्षा वायु में अधिक बल जान पड़ता है, किन्तु आकाश में तो कुछ भी बल मालूम नहीं होता, फिर भी वह सबसे अधिक शक्तिशाली प्रतीत होता है, क्योंकि आकाश इन चारों का आधाररूप है। उसी प्रकार, निर्मानी भक्त के ज्ञान, वैराग्य एवं भक्ति आकाश के समान बलवान हैं, जो ऊपर-ऊपर से तो कुछ भी प्रतीत नहीं होता है, किन्तु निर्मानी भक्त सबसे श्रेष्ठ है।

“जिस प्रकार बालक को किसी भी प्रकार के मान का संकल्प नहीं होता, उसी प्रकार साधु भी अपनी चाहे जितनी पूजा-प्रतिष्ठा हो, परन्तु उसे हमेशा बालक के समान मानरहित ही बरतना चाहिए!”

फिर मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा, “इन्द्रियों, अन्तःकरण, प्राण तथा जाग्रत, स्वप्न एवं सुषुप्ति; इन तीन अवस्थाओं और स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण, इन तीन शरीरों से जीव का स्वरूप भिन्न रहता है, ऐसा सत्संग में सुनकर दृढ़ निश्चय किया है, फिर भी इन्द्रियों तथा अन्तःकरण के साथ मिलकर सुखरूप जीवात्मा, परमात्मा का भजन-स्मरण करती हुई भी संकल्पों के योग से दुःखी क्यों हो जाती है?”

श्रीजीमहाराज ने कहा, “कितने ही सिद्ध होते हैं, और कितने सर्वज्ञ होते हैं, तथा कुछ देवता होते हैं, इत्यादि अनन्त प्रकार की महत्ता को पाते हैं, तथा परमपद को प्राप्त करते हैं, वह सभी भगवान की उपासना के बल से प्राप्त करते हैं, परन्तु उपासना के बिना कोई भी साधना सिद्ध नहीं होती। इसीलिए, शास्त्रों में आत्मा एवं अनात्मा का विवरण समझकर अथवा किसी बड़े सन्त के मुख से बात सुनकर यह समझना कि, ‘मैं आत्मा एवं अनात्मा का विवेक प्राप्त कर लूँगा,’ किन्तु इस तरह यह बात उसे सिद्ध नहीं होती। वह तो उस जीव को अपने इष्टदेव परमेश्वर में जितनी निष्ठा रहती है, उतना ही आत्मा-अनात्मा का विवेक प्राप्त होता है, परन्तु इष्टदेव के बल के बिना कोई भी साधना सिद्ध नहीं होती।

“फिर भी, जिसमें गोपियों जैसी प्रेमलक्षणा भक्ति है, उसकी समस्त साधनाएँ पूर्ण हो चुकी हैं। और, जिसके हृदय में ऐसा प्रेम न हो, उसे तो भगवान की महिमा को समझना कि, ‘भगवान गोलोक, वैकुंठ, श्वेतद्वीप तथा ब्रह्मधाम के स्वामी हैं और वे भक्तों के सुख के लिए ही मनुष्य-जैसे दिखाई पड़ते हैं, परन्तु गोलोक आदि अपने धामों में अपनी मूर्ति के एक-एक अंश में कोटि-कोटि सूर्यों का प्रकाश दिखाई पड़ते हैं। और, मर्त्यलोक में मनुष्य ऐसे भगवान की सेवा करते है, तब भले ही भक्त दीपक जलाए तभी भगवान के आगे प्रकाश होता हो, परन्तु, वे सूर्य-चन्द्रादि सबका प्रकाश के दाता है। और, गोलोकादि धामों में राधिका, लक्ष्मी आदि अपने भक्तों द्वारा की गई सेवा को वह भगवान निरन्तर ग्रहण करते हैं। और, जब ब्रह्मांडों का प्रलय होता है, तब ये प्रकट भगवान एकमात्र ही रहते हैं और उसके पश्चात् सृष्टि-रचना के समय में भी प्रकृति-पुरुष द्वारा अनन्तकोटि ब्रह्मांडों को ये ही भगवान उत्पन्न करते हैं।’

“इस प्रकार भगवान की महिमा का विचार करना, यही आत्मा एवं अनात्मा के विवेक का कारण है। और, जितनी उस भक्त को भगवान की माहात्म्यसहित निष्ठा है, उतना ही उस भक्त के हृदय में वैराग्य उत्पन्न होता है। अतः अन्य साधनों के बल का परित्याग करके एकमात्र भगवान की उपासना का बल ही रखना चाहिए।

“और, जो ऐसा भक्त होता है, वह यही समझता है कि, ‘चाहे कैसा ही पापी क्यों न हो, किन्तु यदि वह अन्त समय में ‘स्वामिनारायण’ नाम का उच्चारण करता है, तो समस्त पापों से मुक्त होकर ब्रह्मधाम में निवास करता है। तब, जो भगवान का आश्रित हो, वह भगवान के धाम को प्राप्त हो, इसमें संशय ही क्या है!’ ऐसा माहात्म्य समझना चाहिए। इसलिए भगवान के भक्त को भगवान की उपासना के बल को सत्संग के द्वारा दिन-प्रतिदिन बढ़ाते रहना चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ५६ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


८१. गीता: ७/१६-१७; ज्ञानी स्वयं को ब्रह्मरूप मानकर एकमात्र परमात्म-भक्ति की ही अभिलाषा रखता है, इसी कारण आर्त, जिज्ञासु तथा अर्थार्थी से अधिक कहा गया है।

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