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Play Nirupan Audio॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
गढ़डा प्रथम ५७
मोक्ष के असाधारण कारण
संवत् १८७६ में फाल्गुन शुक्ला द्वितीया (१५ फरवरी, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में साधुओं के स्थान पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में साधुवृंद तथा स्थान-स्थान से आए हरिभक्त बैठे थे।
उस समय श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “जो प्रश्नोत्तर करना जानते हैं, वे एक-एक प्रश्न पूछे।”
तब मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “हे महाराज! मोक्ष का असाधारण कारण क्या है?”
श्रीजीमहाराज बोले कि, “भगवान के स्वरूप का ज्ञान तथा भगवान के माहात्म्य को जानना, ये दो मोक्ष के असाधारण कारण हैं।”
मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “भगवान में जो स्नेह है, उसका रूप (परिभाषा) क्या है?”
श्रीजीमहाराज बोले कि, “स्नेह का रूप यह है कि स्नेह में किसी भी प्रकार का विचार नहीं चाहिए। यदि गुणों का विचार करके स्नेह किया जाएगा, तो उसका वह स्नेह अवगुण दीखने पर टूट जाएगा। अतः स्नेह जैसा हुआ हो, उसे वैसा ही रहने देना। बार-बार विचार करके स्नेह का स्थापन-उत्थापन मत करना तथा मूढ़ता के साथ भगवान में स्नेह करना। यदि गुणों पर विचार करके स्नेह करें, तो उसका विश्वास ही नहीं रहता। इसलिए, देह के सम्बन्धियों के साथ जैसा स्नेह होता है, उसीके समान स्नेह भगवान से करना। इसी स्नेह को मूढ़तापूर्ण स्नेह कहते हैं। भगवान के माहात्म्य को जानकर जो स्नेह होता है, वह तो दूसरी ही तरह का है,८२ ऐसा समझना चाहिए।”
फिर शिवानन्द स्वामी ने पूछा, “सत्संग में रहने की गरज़ तो है, फिर भी थोड़े-बहुत अनुचित स्वभाव रह जाते हैं, वे क्यों नहीं टलते?”
तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “जो स्वभाव सत्संग में विघ्न डालता हो, उस पर जब तक अरुचि पैदा न हो जाए, तब तक उसे सत्संग की पूरी गरज़ ही कहाँ है? उस स्वभाव को भी पूरा शत्रु कहाँ समझा है? जैसे कोई पुरुष अपना मित्र हो और उसी ने अपने भाई को मार डाला हो, तो फिर उसके साथ मित्रता नहीं रहती और उसी का सिर काटने के लिए वह तैयार हो जाता है। क्योंकि मित्र की अपेक्षा भाई का सम्बंध अधिक है। वैसे ही अपना जो स्वभाव स्वधर्मनिष्ठारूपी नियमों में बाधा डालकर अपने को सत्संग से विमुख करनेवाला हो, उस स्वभाव पर यदि वैरभाव नहीं हो जाता, तथा उस स्वभाव पर क्रोध नहीं आता, तब समझना कि उसे सत्संग में पूर्ण स्नेह नहीं है। और, अपने भाई पर जैसा स्नेह मनुष्य को रहता है वैसा ही स्नेह यदि सत्संग पर रहे, तो वह अनुचित स्वभावों को तत्काल मिटा सकता है। क्योंकि जीव अतिसमर्थ है। जैसे कि मन और इन्द्रियाँ आदि क्षेत्र हैं तथा जीव इनका क्षेत्रज्ञ है, अतः जीव जो चाहे, वह कर सकता है।”
॥ इति वचनामृतम् ॥ ५७ ॥
This Vachanamrut took place ago.
८२. अर्थात् भगवान के मनुष्य-चरित्रों को देखते हुए भी क्षीण न होनेवाला, सुदृढ़ एवं प्रतिदिन बढ़नेवाला स्नेह, जो मूढ़तापूर्ण स्नेह से अपेक्षाकृत अधिक श्रेष्ठ है।