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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ५९

असाधारण स्नेह

संवत् १८७६ में फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी (२७ फरवरी, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत धोती धारण की थी। सफ़ेद चादर ओढ़ी थी, मस्तक पर रेशमी किनारीदार श्वेत धोती बाँधी थी और उनका ललाट चन्दन को अर्चना से सुशोभित था। उस समय उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में मुनिगण तथा स्थान-स्थान से आए हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “प्रश्नोत्तरी प्रारम्भ कीजिए!”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न किया, “हे महाराज! भगवान में असाधारण प्रेम होने का क्या उपाय है?”

तब श्रीजीमहाराज ने उत्तर देते हुए कहा कि, “सबसे पहले तो भगवान के प्रति ऐसा विश्वास हो कि, ‘यह जो मुझे मिले हैं, वे निश्चित रूप से भगवान हैं।’ इसके साथ ही उसे आस्तिकता हो; एवं वह भगवान के ऐश्वर्य को जानता हो कि, ‘ये भगवान ब्रह्मधाम, गोलोक तथा श्वेतद्वीप आदि समस्त धामों के स्वामी और अनन्तकोटि ब्रह्मांडों के अधिष्ठाता और सबके कर्ता हैं। और, पुरुष, काल, कर्म, माया, तीन गुणों, चौबीस तत्त्वों तथा ब्रह्मादिक देवों में से किसी को भी इस ब्रह्मांड का कर्ता नहीं मानता हो, परन्तु एकमात्र भगवान पुरुषोत्तम को ही इन सभी के कर्ता और सबका अन्तर्यामी समझता हो।’ इस प्रकार की समझ के साथ जिसका प्रत्यक्ष भगवान के स्वरूप में दृढ़ निश्चय हो, वही परमेश्वर में असाधारण स्नेह होने का उपाय है।”

फिर मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा, “भगवान की ऐसी महिमा जानने पर भी यदि असाधारण स्नेह नहीं होता, तो उसका क्या कारण है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “यदि वह भगवान की ऐसी महिमा जानता है, तो भगवान से उसका असाधारण स्नेह है ही! किन्तु उसे अपने स्नेह के विषय में जानकारी नहीं है। जैसे हनुमानजी में अपार बल था, परन्तु किसी के बताए बिना उसकी प्रतीति नहीं हुई।८३ जैसे प्रलम्बासुर, बलदेवजी को उठाकर ले जाने लगा तब बलदेवजी में अपार बल था, किन्तु वे स्वयं नहीं जानते नहीं थे। फिर जब आकाशवाणी से सूचित किया गया, तब उन्हें अपने बल के विषय में मालूम हो गया।८४ उसी प्रकार उस भक्त को भगवान से असाधारण प्रीति तो है, परन्तु (किसी भक्त के द्वारा अवगत कराये बिना) उसे मालूम नहीं होता।”

फिर मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “ऐसी अनन्य प्रीति है, ऐसा कब जान सकते हैं?”

श्रीजीमहाराज बोले कि, “सत्संग तथा सत्शास्त्रों का श्रवण करते हुए उसे अपनी भगवान में असाधारण प्रीति अनुभव होती है।”

फिर मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा, “देश, काल तथा क्रिया के शुभ अथवा अशुभ होने का कारण संग है या अन्य कोई वस्तु?”

श्रीजीमहाराज ने उत्तर में कहा कि, “पृथ्वी को देश कहते हैं और वह देश सभी स्थानों पर एक समान रहता है, और काल भी एक समान है, परन्तु अतिशय महान समर्थ पुरुष जिस देश में रहते हों, उनके प्रताप से अशुभ देश, अशुभ काल, अशुभ क्रिया आदि शुभ हो जाते हैं तथा घोर पापी पुरुष जिस देश में रहते हों, उनके योग से अच्छा देश, अच्छी क्रिया और अच्छा काल होते हुए भी सभी अशुभ हो जाते हैं। इसीलिए, शुभ एवं अशुभ देश, काल और क्रिया के हेतु तो पुरुष हैं। यदि वह पुरुष अतिशय समर्थ हो, तो समस्त पृथ्वी में देश, काल और क्रिया को अपने स्वभाव के अनुसार प्रवृत्त करता है। और, यदि उससे निम्न पुरुष हो, तो वह एक देश में उसे प्रवृत्त करता है। और, उससे भी निम्न व्यक्ति एक गाँव में उसे प्रवृत्त करता है। तथा उससे भी निम्नतर पुरुष एक मुहल्ले में तथा अपने घर में ही उसे प्रवर्तित करता है। इस तरह शुभ-अशुभ देश, काल तथा क्रिया की प्रवृत्ति के कारण तो शुभ और अशुभ, दो प्रकार के पुरुष हैं।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ५९ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


८३. जाम्बवान ने हनुमानजी को उनके बल का बोध कराया था, उसे वाल्मीकि रामायण में ‘जाम्बवान् समुदीक्ष्यैवं’ इत्यादि वचनों से कहा गया है। (किष्किन्धाकांड, सर्ग: ६५)

८४. श्रीकृष्ण भगवान ने बलदेवजी को उनके बल से अवगत कराया था, उसे विष्णुपुराण में ‘इति संस्मारितो विप्र’ इत्यादि वचनों से कहा गया है। (विष्णुपुराण: ५/९/३४)

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