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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ६

विवेकी-अविवेकी

संवत् १८७६ में मार्गशीर्ष शुक्ला नवमी (२५ नवम्बर, १८१९) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्वेत वस्त्र धारण करके विराजमान थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में स्थान-स्थान के मुनि एवं हरिभक्त उपस्थित थे।

तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “इस सत्संग में जो मुमुक्षु विवेकी होता है, वह तो दिन-प्रतिदिन अपने में अवगुण देखता है तथा भगवान और उनके भक्तों में उसे गुण ही गुण दिखायी पड़ते हैं। भगवान एवं साधु हित के लिए जो कठोर वचन कहते हैं, उन्हें वह अपने लिए हितकर समझता है और दुःखी नहीं होता, ऐसा भक्त दिन-प्रतिदिन सत्संग में महत्ता को प्राप्त करता है; और जो अविवेकी होता है वह ज्यों-ज्यों सत्संग करता है, त्यों-त्यों अपने में गुण देखता है; और जब भगवान एवं सन्त उसके दोष दिखाकर बात करते हैं, तब वह अभिमानवश होकर सन्त की बातों को उलटी समझकर सन्त में ही अवगुण देखने लगता है।

“ऐसे अविवेकी की भक्ति दिन-प्रतिदिन कम होती जाती है और सत्संग में वह प्रतिष्ठाहीन हो जाता है। अतः अपने गुणों के अभिमान का त्याग करके शूरवीरता से भगवान एवं भगवान के सन्त में दृढ़ विश्वास रखे, तो उसका अविवेक दूर हो जाता है और सत्संग में वह महानता प्राप्त करता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ६ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


६. सत्-असत् के ज्ञान से संपन्न।

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