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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ६०

वासना को मिटाने की साधना

संवत् १८७६ में फाल्गुन कृष्णा प्रतिपदा (१ मार्च, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में परमहंसों के स्थान पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे, श्वेत चादर ओढी थी, मस्तक पर सफ़ेद पाग बाँधी थी, उसमें सफ़ेद तुर्रे लगे हुए थे तथा उनके कंठ में श्वेत पुष्पों के हार सुशोभित हो रहे थे। सभा में उस समय उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनिगण तथा स्थान-स्थान से आए हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय श्रीजीमहाराज ने कहा, “समस्त साधनाओं की अपेक्षा वासना को मिटाना, यह सबसे बड़ी साधना है। उस वासना को मिटाने का उपाय यह है कि शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध नामक पाँच विषयों में जितनी अपनी तृष्णा है, उस पर विचार करना चाहिए कि मुझे भगवान में जितनी वासना है, उतनी ही क्या जगत में भी है अथवा उससे न्यून या अधिक है? उसकी परीक्षा करनी चाहिए। जैसे कि भगवान की बातें सुनने में श्रोत्रेन्द्रिय जितनी लुब्ध होती है, उतनी ही यदि जगत की बातें सुनने में आकृष्ट होती हो, तो यह समझना चाहिए कि भगवान तथा जगत में समान वासना है। इसी प्रकार स्पर्श, रूप, रस और गंध इत्यादि विषयों से होनेवाली अपनी स्थिति का पता लगाना चाहिए। इस प्रकार जब पता लगाते-लगाते जगत की वासना को कम करता रहता है, तथा भगवान सम्बंधी वासना को बढ़ाता जाता है, तब परिणामस्वरूप पंचविषयों में उसकी समबुद्धि हो जाती है। और, समबुद्धि होने के पश्चात् उसे निन्दा एवं स्तुति समान लगती है तथा अच्छा स्पर्श और बुरा स्पर्श एक समान प्रतीत होता है। उसी तरह अच्छा रूप और बुरा रूप, तथा बालिका, युवती एवं वृद्धा स्त्रियाँ तथा कचरा और कांचन - यह सब समान प्रतीत होता है। ठीक उसी तरह अच्छा और बुरा स्वाद और गन्ध भी समान प्रतीत होने लगते हैं। इस तरह जब स्वाभाविक रूप से वर्तन हो, तब समझना चाहिए कि वासना को जीत चुके हैं। और, वासना-रहित वर्तन हो, वही एकान्तिक का धर्म है। यदि अल्प वासना भी रह गई, तो समाधि की स्थिति होने पर भी वासना उसे समाधि में से वापस जगत की ओर खींच लाती है। इसलिए, वासना मिटानेवाले को ही एकान्तिक भक्त कहा जाता है।”

यह सुनकर मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा, “वासना को टालने का क्या उपाय है?”

तब श्रीजीमहाराज ने उत्तर देते हुए कहा कि, “एक तो आत्मनिष्ठा की दृढ़ता चाहिए। दूसरा, पंचविषयों की तुच्छता समझनी चाहिए और तीसरा भगवान का अतिशय माहात्म्य समझना चाहिए कि, ‘भगवान वैकुंठ, गोलोक एवं ब्रह्ममहोल, इन समस्त धामों के स्वामी हैं, इसलिए, मैं ऐसे भगवान को प्राप्त करके तुच्छ विषयों के सुख में मैं अनुरक्ति क्यों रखूँ?’ इस प्रकार भगवान की महिमा का विचार करें और यह सोचें कि, ‘भगवान का भजन करने पर भी यदि कोई कमी रह जाएगी और कदाचित् भगवान के धाम की प्राप्ति न हो पाई तथा भगवान यदि हमें इन्द्रलोक एवं ब्रह्मलोक में रखें, फिर भी इस पृथ्वी लोक की अपेक्षा तो वहाँ करोड़ गुना अधिक सुख है।’ ऐसा विचार करके इस संसार के तुच्छ सुख की वासना से रहित हो जाना चाहिए। इस प्रकार भगवान की महिमा जानकर जब कोई वासना-रहित हो जाता है, तब उसे प्रतीत होता है कि, ‘मुझ में कभी वासना थी ही नहीं! बीच में मुझे कुछ भ्रम-सा हो गया था, परन्तु मैं तो सदा वासना-रहित हूँ।’ इस प्रकार का जो एकान्तिक धर्म है, वह ऐसा निर्वासनिक पुरुष हो, तथा जिसने भगवान में अपनी स्थिति बना रखी हो, उसके वचनों से ही सुलभ हो जाता है। केवल ग्रन्थों में लिखे रहने से वह एकान्तिक धर्म प्राप्त नहीं होता। यदि कोई ऐसी बातें सुनकर ठीक इसी प्रकार से वैसी की वैसी बात करने का प्रयत्न करे, तो उसे ऐसी बात करना भी कठिन हो जाता है! अतः जिसकी एकान्तिक धर्म में सुदृढ़ स्थिति हो गयी हो, उसी के द्वारा ही एकांतिक धर्म की सिद्धि हो सकती है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ६० ॥

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