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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ६१

राजा बलि की अनन्य भक्ति

संवत् १८७६ में फाल्गुन कृष्णा तृतीया (३ मार्च, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे नीमवृक्ष के नीचे चबूतरे पर बिछे हुए पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने मस्तक पर रेशमी किनारवाली श्वेत धोती बाँधी थी, सफ़ेद पिछौरी ओढ़ी थी, श्वेत धोती धारण की थी और कंठ में सफ़ेद फूलों के हार पहने थे। उनकी पाग में बायें भाग की ओर श्वेत पुष्पों के तुर्रे लटक रहे थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में साधुवृंद तथा स्थान-स्थान से आए हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न किया कि, “काम, क्रोध, लोभ तथा भय के योग से भी धैर्य से विचलित न होने का क्या उपाय है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “‘मैं देह नहीं, बल्कि शरीर से भिन्न और सबको जाननेवाली आत्मा हूँ।’ ऐसी आत्मनिष्ठा८५ जिसे सुदृढ़ हो जाती है तब वह किसी भी तरह धैर्य से विचलित नहीं हो सकता। किन्तु आत्मनिष्ठा के बिना यदि अन्य अनेक उपाय क्यों न करें, पर धैर्य कभी नहीं टिकेगा।”

यह सुनकर ब्रह्मानन्द स्वामी ने पूछा, “यदि (उपासनाहीन) आत्मनिष्ठा रहे तो वह अन्त समय में कितनी सहायता करती है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “यदि नदी को तैरकर पार करना है, तो ऐसा काम वही कर सकता है जिसे तैरना आता हो, किन्तु जिसे तैरना न आता हो, वह मजबूर होकर खड़ा ही रहेगा। किन्तु जब समुद्र को तैरकर पार करना हो, तो दोनों को जहाज की ही आवश्यकता होगी। उसी प्रकार ठंड, धूप, भूख, प्यास, मान, अपमान, सुख एवं दुःखरूपी नदी को आत्मनिष्ठावाला पुरुष तैरकर पार कर लेता है, परन्तु मृत्यु का समय समुद्र के समान है। अतः आत्मनिष्ठावाले या आत्मनिष्ठाहीन, दोनों को ही भगवान के उपासनारूपी जहाज की आवश्यकता होती है। अतएव, अन्तकाल में भगवान का दृढ़ आश्रय ही काम में आता है, आत्मनिष्ठा किसी काम नहीं आती। इसीलिए भगवान की उपासना को सुदृढ़ करके रखना।”

मुक्तानन्द स्वामी ने पुनः पूछा कि, “भगवान के भक्त के मार्ग में सिद्धियाँ बाधक बनती हैं, तो क्या वे भगवान के प्रति निष्ठा में कचाईवालों के सामने ही उपस्थित होकर बाधा डालती हैं या अविचल निष्ठा रखनेवालों के रास्ते में भी रुकावट डालती हैं?”

तब श्रीजीमहाराज ने उत्तर दिया, “ये सिद्धियाँ तो भगवान के परिपक्व निश्चयवालों के समक्ष ही उपस्थित होती हैं। अन्य के लिए ये सिद्धियाँ बहुत ही दुर्लभ हैं। और, भगवान भी भक्त की परीक्षा लेने के लिए इन सिद्धियों को प्रेरित करते हैं कि, ‘उस भक्त को मुझसे अधिक स्नेह है, या सिद्धियों से अधिक लगाव है?’ इस प्रकार भगवान अपने भक्त की परीक्षा लेते हैं। यदि वह दृढ़ भक्त है तथा भगवान के सिवा किसी भी अन्य वस्तु की इच्छा नहीं करता, तो भगवान ऐसे निर्वासनिक एकान्तिक भक्त के वश में हो जाते हैं। जैसे वामनजी ने राजा बलि का त्रिलोक का राज्य ले लिया, तथा चौदह लोकों को अपने दो चरणों से नाप लिया और तीसरे कदम के लिए राजा बलि ने अपना पूरा शरीर समर्पित कर दिया। इस प्रकार यद्यपि उसने भगवान को श्रद्धासहित अपना सर्वस्व दे दिया, फिर भी भगवान ने बिना अपराध के उसे बाँधा लेकिन वह भक्ति से विचलित नहीं हुआ। अपने प्रति उसकी ऐसी अनन्य भक्ति देखकर स्वयं भगवान भी उसके वश में हो गए। भगवान ने तो राजा बलि को क्षणमात्र के लिए बाँधा था, किन्तु वे (भगवान) उसकी भक्तिरूपी डोर से बँध चुके हैं। आज तक भगवान बलि के दरवाजे पर निरन्तर खड़े हैं, और वे राजा बलि की दृष्टि से पलमात्र के लिए भी दूर नहीं होते।

“इस प्रकार, हमें भी समस्त वासनाओं को मिटाकर सर्वस्व भगवान को अर्पित करके भगवान का दास होकर रहना चाहिए। ऐसा करने पर भी भगवान हमें अधिक दुःख देंगे, तो भी वे स्वयं हमारे वश में हो जाएँगे! क्योंकि वे भक्तवत्सल तथा कृपासिन्धु हैं। वे जिसकी अपनी ओर दृढ़ भक्ति देखते हैं, उसके अधीन स्वयमेव हो जाते हैं। फिर ऐसे प्रेमी भक्त की मनरूपी डोरी के बंधनों में बंध जाते हैं, फिर उस प्रेमबंधन से छूटने में समर्थ नहीं हो पाते। अतः भगवान ज्यों-ज्यों हमारी कसौटी करें, हमें त्यों-त्यों अधिक प्रसन्न होना चाहिए कि, ‘भगवान जैसे-जैसे मुझे अधिक दुःख देंगे, वैसे-वैसे वे अधिकाधिक मेरे वश में होते जाएँगे और पलमात्र भी मुझसे अलग नहीं रहेंगे।’ ऐसा समझकर भगवान ज्यों-ज्यों अधिक कसौटी करते जाएँ, त्यों-त्यों हमें भी अधिक से अधिक प्रसन्न रहना चाहिए। परन्तु किसी भी तरह के दुःख को देखकर, अथवा शारीरिक सुख सुविधा के लिए कायर की भांति पीछे नहीं हटना चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ६१ ॥

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८५. आत्मनिष्ठा से युक्त उपासना।

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