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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ६२

कल्याणकारी गुण

संवत् १८७६ में फाल्गुन कृष्णा चतुर्थी (४ मार्च, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में चौक के बीच पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत धोती धारण की थी, सफ़ेद चादर ओढ़ी थी और सिर पर श्वेत पाग बाँधी थी, जिस पर सफ़ेद पुष्पों के हार तथा तुर्रे लगे हुए थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में साधुवृंद तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

उस समय स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी ने कहा, “श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि –

“‘सत्यं शौचं दया क्षान्तिस्त्यागः सन्तोष आर्जवम्।
शमो दमस्तपः साम्यं तितिक्षोपरतिः श्रुतम् ॥
ज्ञानं विरक्तिरैश्वर्यं शौर्यं तेजो बलं स्मृतिः।
स्वातन्त्र्यं कौशलं कान्तिधैर्यं मार्दवमेव च ॥
प्रागल्भ्यं प्रश्रयः शीलं सह ओजो बलं भगः।
गाम्भीर्यं स्थैर्यमास्तिक्यं कीर्तिर्मानोऽनहंकृतिः॥’८६

“ये जो उनतालीस कल्याणकारी गुण भगवान के स्वरूप में निरन्तर रहते हैं, वे गुण सन्त में किस प्रकार आते हैं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “सन्त में इन गुणों का उदय होने का कारण यह है कि भगवान के स्वरूप का यथार्थ निश्चय हो गया, तो भगवान के कल्याणकारी गुण सन्त में उदित हो जाते हैं। वह निश्चय कैसा होना चाहिए? तो जो पुरुष भगवान को काल जैसा न समझे, कर्म जैसा न समझे, स्वभाव जैसा न समझे, माया जैसा न समझे, तथा पुरुष जैसा न समझे; परन्तु इन सभी से भगवान को भिन्न समझे, तथा उन सबका नियन्ता और कर्ता समझे तथा सबका कर्ता होने पर भी वे निर्लेप हैं, ऐसा भगवान को समझे; इस तरह प्रत्यक्ष भगवान के स्वरूप का किया गया निश्चय कभी भी विचलित नहीं होता, सो चाहे जितने युक्तिपूर्ण या उलझानेवाले शास्त्रों८७ का श्रवण करे, अथवा अन्य मतवादियों (शुष्कवेदान्ती आदि) की बातें सुने तथा स्वयं अपना अन्तःकरण चाहे उतने कुतर्क करे फिर भी भगवान के निश्चय में अडिगता न टूटे, ऐसी भगवान के निश्चय की दृढ़ता हो, तब उसे ‘भगवान का सम्बंध हुआ’ कहा जाता है। अतः जिसे जिसके साथ सम्बंध हो, उसमें उसके जैसे ही गुण सहज रूप से उदित हो आते हैं। जैसे दीपक के साथ नेत्रों का सम्बंध हो जाता है, तब दीपक का प्रकाश नेत्रों में छा जाता है, और आँखों के आगे से अन्धकार दूर हट जाता है, वैसे ही भगवान के स्वरूप का दृढ़ निश्चय होने से उस निश्चयवाले के हृदय में भगवान के कल्याणकारी गुणों का उदय हो जाता है। फिर तो भगवान जिस प्रकार माया से पूर्णरूप से निर्बन्ध हैं, तथा जो चाहे वह करने में समर्थ हैं, उसी तरह वह भक्त भी अतिशय समर्थ और माया से निर्बन्ध बन जाता है।”

तब निर्विकारानन्द स्वामी ने पूछा कि, “निश्चय होने पर भी अच्छे गुण नहीं आते, और मान एवं ईर्ष्या की भावना दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती है, उसका क्या कारण होगा?”

फिर श्रीजीमहाराज बोले कि, “यदि भगवान के समक्ष अमृत तथा विषैली औषधियाँ लाएँ, तथा खीर और शक्कर तथा अफ़ीम लाकर भगवान के थाल में अर्पण करें, तो उन पदार्थों के जैसे जिनके गुण होंगे, वे क्या बदल जाएँगे? नहीं, वह तो वैसा का वैसा ही रहेगा, उनके गुणों में कोई परिवर्तन संभव नहीं है। उसी प्रकार जो जीव आसुरी और अति कुपात्र होते हैं, वे भगवान के समीप आने पर भी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते। फिर ऐसा आसुरी जीव किसी गरीब हरिभक्त से द्वेष करे, तो उसका बुरा ही होता है। यह उसी कारण होता है कि भगवान समस्त जीवों में अन्तर्यामीरूप से रहते हैं, वे जहाँ अपनी इच्छा हो, वहाँ अपना उतना ही सामर्थ्य दिखलाते हैं। अतः किसी भक्त के अपमान से भगवान का भी अपमान हो जाता है, तब उस अपमानकर्ता का अत्यन्त अहित हो जाता है।

“जैसे हिरण्यकशिपु ने त्रिलोक को अपने वश में कर रखा था, इतना बलवान होते हुए भी जब उसने प्रह्‌लादजी का द्रोह किया, तो भगवान ने स्तंभ में से नृसिंहरूप में प्रकट होकर उसका विनाश कर दिया। ऐसा विचार करके भगवान के भक्त को अत्यन्त नम्र होकर किसी का भी अपमान नहीं करना। क्योंकि भगवान ऐसे गरीब प्रकृति के नम्र भक्त के अन्तःकरण में भी विराजमान रहते हैं। वे ऐसे भक्त का अपमान करने वाले व्यक्ति का अनिष्ट कर डालते हैं। ऐसा समझकर किसी साधारण जीव को भी दुःख नहीं देना। और, यदि कोई व्यक्ति अहंकारवश हर किसी को पीड़ा पहुँचाता रहे, तो गर्वभंजक भगवान, जो अन्तर्यामी रूप से सर्वव्यापी हैं, वे इसे सहन नहीं करेंगे और आखिर में वे चाहे जिसके द्वारा प्रकट होकर उस अभिमानी व्यक्ति के अभिमान को पूरी तरह चूर-चूर कर देते हैं। अतः ऐसे समर्थ भगवान से डरकर किसी भी साधुपुरुष को लेशमात्र भी अभिमान नहीं रखना चाहिए और चींटी के समान जीव को भी पीडा नहीं पहुँचाना, यही निर्मानी साधु का धर्म है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ६२ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


८६. १. सत्यम् - सर्वभूतप्राणिमात्र का हित करना अथवा सत्य वचन बोलना। २. शौचम् - समस्त हेय का विरोधी भाव अर्थात् निर्दोष भावना। ३. दया - दूसरे के दुःख को सहन न करना। ४. क्षान्तिः - अपराधी पुरुष के अपराध को सहन करना। ५. त्यागः - याचकों के प्रति उदारता अथवा आत्मसमर्पण। ६. सन्तोषः - सदा क्लेशरहित रहने का भाव। ७. आर्जवम् - मन, वाणी तथा कर्म की एकरूपता। ८. शमः - मन का निग्रह करना। ९. दमः - बाह्य इन्द्रियों का निग्रह करना। १०. तपः - शरीर एवं मन को क्लेश हो, ऐसे व्रतादि को करना। ११. साम्यम् - शत्रु-मित्रादि के प्रति समान भावना से रहना। १२. तितिक्षा - सुखदुःखादि के द्वन्द्वों से परास्त नहीं होना। १३. उपरतिः - अधिक लाभ एवं प्राप्ति के प्रति उदास रहना। १४. श्रुतम् - समस्त शास्त्रों के अर्थों का यथार्थ ज्ञान होने का भाव। १५. ज्ञानम् - आश्रितों के अनिष्ट की निवृत्ति तथा इष्ट की प्राप्ति कराने में उपयोगी ज्ञान। जीव, ईश्वर, माया, ब्रह्म तथा परब्रह्म की अनुभवपूर्ण जानकारी। १६. विरक्तिः - विषयों में निःस्पृहभाव अथवा विषयों से चित्त का अनाकर्षण। १७. ऐश्वर्यम् - सबका नियन्ता होने का भाव। १८. शौर्यम् - शूरवीरता। १९. तेजः - किसी से भी पराजित न होने का भाव। २०. बलम् - सबकी प्राणवृत्तियों का नियमन करने का सामर्थ्य। २१. स्मृतिः - भक्तों के अपराधों को भूलकर, उनके गुणों का स्मरण करना। २२. स्वातन्त्र्यम् - दूसरे की अपेक्षा से रहित रहने की भावना। २३. कौशलम् - निपुणता। २४. कान्तिः - आध्यात्मिक तेज़। २५. धैर्यम् - सर्वदा अव्याकुलता। २६. मार्दवम् - चित्त की कोमलता। क्रूरता से रहित रहने का भाव। २७. प्रागल्भ्यम् - ज्ञान की गंभीरता, प्रगल्भता। २८. प्रश्रयः - विनयभाव तथा ज्ञानपूर्वक आत्मसात् हुआ दीनभाव। २९. शीलम् - सत्याचरण। ३०. सहः - प्राणों को नियमन करने का सामर्थ्य। ३१. ओजः - ब्रह्मचर्य से प्राप्त की गई दिव्य कांति। ३२. बलम् - कल्याणकारी गुणों को धारण करने का सामर्थ्य। ३३. भगः - ज्ञानादि गुणों का उत्कर्ष। ३४. गाम्भीर्यम् - ज्ञान की गहनता, छिछोरापन से रहित होने का भाव। अथवा अभिप्राय ज्ञात न हो सके, ऐसा आंतरिक गुण। ३५. स्थैर्यम् - क्रोध का निमित्त होने पर भी विकार न होना। अचंचलता। ३६. आस्तिक्यम् - शास्त्रों के अर्थों में विश्वास। भगवान सदा कर्ता, साकार, सर्वोपरि एवं प्रगट हैं, ऐसी दृढ़ श्रद्धा। ३७. कीर्तिः - यश। ३८. मानः - पूजा-सम्मान की योग्यता। ३९. अनहंकृतिः - अहंकार का अभाव। निर्मानीता।

८७. कुटिल युक्तिजाल से मन को संशयग्रस्त करनेवाले असच्छास्त्र।

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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