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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ६३

भगवान का तत्त्वतः निश्चय

संवत् १८७६ में फाल्गुन कृष्णा सप्तमी (७ मार्च, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे, सफ़ेद चादर ओढ़ी थी और श्वेत रेशमी किनारीवाली पाग सिर पर बाँधी थी और कंठ में श्वेत पुष्पों के हार सुशोभित हो रहे थे। पाग में गुलाब के पुष्पों के तुर्रे लगे हुए थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में मुनिगण तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय नृसिंहानन्द स्वामी ने पूछा कि, “भगवान सम्बंधी निश्चय होने में जिसे किसी प्रकार की त्रुटि हो, उसके मन में कैसे संकल्प होते हैं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिसे भगवान के निश्चय में कोई त्रुटि हो, उसे जब कभी भगवान में कुछ सामर्थ्य दिखाई देता है, तब उसे बहुत ही आनन्द होता है, परन्तु जब सामर्थ्य नहीं दिखाई देता, तब उसका अन्तःकरण निस्तेज हो जाता है। उसके हृदय में कुछ अनुचित संकल्प होते हों, और वे टालने पर भी नहीं टलते हों, तब वह भगवान को ही दोषी ठहराने लगता है कि, ‘मैं इतने दिनों से सत्संग कर-करके मर गया फिर भी भगवान मेरे बुरे संकल्पों को टालते नहीं हैं।’ इस प्रकार वह भगवान पर दोष मढ़ता है। और जिन पदार्थों में उसकी आसक्ति रहती हो तथा उसका मन हटाने पर भी उस पदार्थ से न हटता हो, तब वैसा का वैसा दोष वह भगवान में भी देखता है कि, ‘मुझ में जिस प्रकार कामादिक दोष हैं, वैसे ही वही दोष भगवान में भी हैं। परन्तु वे भगवान हैं, अतः महान कहलाते हैं।’ इस प्रकार के संकल्प जिसके मन में रहते हों, उसके निश्चय में त्रुटि है, इसलिए उसका निश्चय परिपक्व नहीं है।”

फिर परमचैतन्यानन्द स्वामी ने पूछा, “हे महाराज! जिसे भगवान का परिपक्व निश्चय होता है, उसे किस प्रकार के संकल्प होते हैं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिसे परिपक्व निश्चय होता है, उसके मन में ऐसी भावना रहती है कि, ‘मुझे सब कुछ प्राप्त हो चुका है। और जहाँ प्रत्यक्ष भगवान हैं, वहीं परमधाम है, तथा ये सभी सन्त नारद-सनकादिक के समान हैं और ये सभी सत्संगी उद्धव, अक्रूर, विदुर, सुदामा और वृन्दावन के ग्वालों के समान हैं। जो स्त्री-हरिभक्त हैं, वे गोपियाँ, द्रौपदी, कुन्ती, सीता, रुक्मिणी, लक्ष्मी और पार्वती के समान हैं। और मैं अब पूर्णकाम हो गया हूँ, मुझे अब कुछ करना शेष नहीं रहा। मैं गोलोक, वैकुंठ, ब्रह्मपुर को प्राप्त हो चुका हूँ।’ जिसके ऐसे संकल्प होते हों और हृदय में अति आनन्द समाया रहता हो, इस प्रकार जिसके अन्तर में प्रतीत हो रहा हो, उसके निश्चय को परिपक्व समझना चाहिए।”

ऐसा कहकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “भगवान के स्वरूप को तत्त्वतः जान लेने के पश्चात् उसे जानने के लिए कुछ शेष नहीं रहता। सो अब तत्त्वतः भगवान के स्वरूप को समझने की रीति बताते हैं, उसे सुनिये, जिसे सुनकर परमेश्वर के स्वरूप का अडिग निश्चय हो जाता है। भगवान को तत्त्वतः समझने में सर्वप्रथम तो भगवान की महत्ता जाननी चाहिए। जैसे कोई बड़ा राजा हो और उसके दास-दासियों के लिए भी सात मंज़िला हवेलियाँ हों, तथा बाग-बगीचे, रथ और घोड़े तथा स्वर्ण-आभूषण इत्यादि सामग्रियों से युक्त उन दास-दासियों के घर भी देवलोक के समान दिखाई देते हों, उस राजा का राजभवन व उसमें विद्यमान सामग्रियाँ अत्यन्त शोभायमान होंगी ही!

“तब वैसे ही, श्रीपुरुषोत्तम भगवान की आज्ञा का पालन करनेवाले ब्रह्मांड के अधिपति ब्रह्मादिक देवताओं के लोक तथा उनके वैभव का भी पार नहीं पाया जा सकता। तब उन विराटपुरुष, जिनके नाभिकमल में से ब्रह्मा उत्पन्न हुए हैं, उनके वैभव का पार कैसे पाया जा सकता है? ऐसे अनन्तकोटि विराटपुरुषों के स्वामी पुरुषोत्तम भगवान का धामरूप अक्षर, जिसके एक-एक रोम में अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड अणुवत् उड़ते फिरते हैं, ऐसा भगवान का धाम है, उस धाम में स्वयं पुरुषोत्तम भगवान दिव्यरूप से सदा विराजमान रहते हैं। उस धाम में अपार दिव्य सामग्रियाँ हैं, ऐसे भगवान की महत्ता का पार कैसे पाया जा सकता है? इस प्रकार भगवान की महत्ता को समझना चाहिए।

“और, जो जिससे बड़ा होता है, वह उससे सूक्ष्म भी होता है और वह उसका कारण भी होता है। जैसे पृथ्वी से जल महान है, और वह पृथ्वी का कारण भी है और पृथ्वी से सूक्ष्म भी है। जल से बड़ा तेज है और तेज से बड़ा वायु है तथा वायु से बड़ा आकाश है। वैसे ही अहंकार, महत्तत्त्व, प्रधानपुरुष, प्रकृतिपुरुष तथा अक्षर, ये सभी एक-दूसरे से बड़े हैं, तथा एक-दूसरे से सूक्ष्म और एक दूसरों के कारण भी हैं। और, ये सभी मूर्तिमान हैं, परन्तु भगवान का अक्षरधाम अत्यंत बड़ा है। उस अक्षर के एक-एक रोम में अनन्तकोटि ब्रह्मांड अणुवत् उड़ते ही फिरते हैं। जैसे किसी बड़े हाथी के शरीर पर चींटी चल रही हो, किन्तु हाथी के सामने उसकी कोई गणना ही नहीं, वैसे ही उस अक्षर की महत्ता के आगे अन्य किसी की कोई गणना ही नहीं होती।

“जैसे मच्छरों के बीच चींटियाँ बड़ी दिखाई देती हैं, चींटियों के बीच बिच्छू बड़ा दिखाई देता है, बिच्छुओं के मध्य सर्प बड़ा दिखाई पड़ता है, सों के बीच चील बड़ी दिखाई देती है, चीलों के बीच भैंसा बड़ा दिखाई पड़ता है, भैंसे के बीच हाथी बड़ा लगता है, और हाथियों के बीच गिरनार जैसा पर्वत बड़ा दिखता है, और गिरनार के मध्य मेरु पर्वत बड़ा दिखाई देता है। ऐसे मेरु पर्वतों के बीच लोकालोक पर्वत बड़ा लगता है, और लोकालोक पर्वत से पृथ्वी अतिशय बड़ी दिखाई देती है।

“और, पृथ्वी का कारण जो जल है, वह पृथ्वी से बड़ा और सूक्ष्म भी है। इसी प्रकार जल का कारण तेज है, तेज का कारण वायु है, वायु का कारण आकाश है, आकाश का कारण अहंकार है, अहंकार का कारण महत्तत्त्व है, महत्तत्त्व का कारण प्रधान एवं पुरुष हैं, और उन प्रधान और पुरुष का कारण मूल प्रकृति तथा ब्रह्म (अक्षरपुरुष) है।

“और, इन सबका कारण अक्षरब्रह्म है, और वह अक्षर तो पुरुषोत्तम भगवान का धाम है। और, उस अक्षर की संकुचन एवं विकास की अवस्था नहीं होती है, उसका सदैव एक ही रूप बना रहता है। और, वह अक्षर मूर्तिमान हैं, परन्तु बहुत बड़े हैं, अतः उन अक्षर का रूप किसी की भी दृष्टि में नहीं आता। जैसा चौबीस तत्त्वों का कार्य ब्रह्मांड पुरुषावतार कहलाता है, और वह विराटपुरुष कर-चरणादि से युक्त है, परन्तु उसकी मूर्ति अतिशय विशाल है, अतः उसे देखने में नजर नहीं पहुँचती। और उस विराटपुरुष की नाभि से उत्पन्न कमल के नाल में ब्रह्मा एक सौ वर्ष तक चलते रहे, परन्तु जब कमल की नाल का ही अन्त नहीं आया, तब विराटपुरुष का पार ही कैसे पाया जा सकता है? इस प्रकार विराट का रूप नहीं दिखाई देता।

“ठीक उसी तरह अक्षरधाम भी मूर्तिमान हैं, परन्तु वह किसी को नहीं दिखाई देते; क्योंकि वह इतने बड़े हैं कि ऐसे-ऐसे असंख्य ब्रह्मांड उनके एक-एक रोम में उड़ते ही रहते हैं। उन अक्षरधाम में पुरुषोत्तम भगवान स्वयं सदैव विराजमान रहते हैं तथा अपनी अन्तर्यामी शक्ति द्वारा अक्षरधाम, अनन्तकोटि ब्रह्मांडों तथा उन ब्रह्मांडों के सभी ईश्वरों में वह अन्वयभाव से रहते हैं। और, उस अक्षरधाम में अपने साधर्म्य को प्राप्त हुए ऐसे अनन्तकोटि मुक्त भगवान की सेवा में रहते हैं। और, उन भगवान के सेवकों के एक-एक रोम में कोटि-कोटि सूर्यों के समान प्रकाश दिखता है। अतः जिनके सेवक ऐसे हैं, तो उनके स्वामी पुरुषोत्तम भगवान की महिमा का वर्णन किस प्रकार किया जा सकता है? ऐसे अति समर्थ भगवान स्वयं अक्षर में प्रवेश करके अक्षररूप होते हैं तथा इसके पश्चात् मूल प्रकृति-पुरुषरूप हो जाते हैं। और, फिर प्रधान-पुरुषरूप होते हैं। उसके पश्चात् वे प्रधान में से उत्पन्न चौबीस तत्त्वों में प्रवेश करके उनका स्वरूप ग्रहण करते हैं। इसके बाद वे उन तत्त्वों द्वारा उत्पन्न विराटपुरुष में प्रवेश करके उनका स्वरूप धारण करते हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव में प्रवेश करके उनका रूप ग्रहण करते हैं।

“इस प्रकार अति समर्थ, अति प्रकाशयुक्त तथा अत्यन्त महान ये भगवान अपने ऐसे ऐश्वर्य और तेज को स्वयं में संगोपन करके जीव के कल्याण के लिए मनुष्याकार हो जाते हैं और तब ऐसा रूप धारण करते हैं, ताकि मनुष्य उनके दर्शन तथा सेवा एवं अर्चना आदि करने में समर्थ हो सके। जैसे चींटी के पैर में बारी काँटा लग गया हो और उसे यदि बरछी और नहनी द्वारा निकाला जाए, तो निकलता नहीं है, अपितु बहुत बारीक लोहे के उपकरण से वह निकलता है। वैसे ही भगवान भी अपनी महत्ता को स्वयं में छिपाकर अतिशय अल्प रूप धारण करते हैं। जिस प्रकार अग्निदेव भी अपने प्रकाश तथा ज्वाला को छिपाकर मनुष्य सदृश हो जाते हैं, उसी तरह भगवान भी अपने सामर्थ्य को छिपाकर जीव के कल्याण के लिए मनुष्योचित व्यवहार करते हैं। तब जो मूर्ख होता है, वह ऐसा समझता है कि, ‘भगवान कोई भी सामर्थ्य क्यों प्रकट नहीं करते हैं?’ परन्तु, भगवान केवल जीव के कल्याण के लिए अपने सामर्थ्य को छिपाकर व्यवहार करते हैं। यदि भगवान अपनी महत्ता को प्रकट करें तो ब्रह्मांड की कोई महत्ता नहीं दिखाई देती, तब जीव की तो गणना ही क्या? इस तरह जिसके हृदय में ऐसी महिमा सहित भगवान का निश्चय सुदृढ़ हो गया हो, उसे काल, कर्म, माया किसी भी प्रकार का बन्धन करने में समर्थ नहीं हो सकते। इसलिए, जिसने उक्त रीति के अनुसार भगवान को तत्त्वतः समझ लिया है, उसे कुछ भी करने के लिए शेष नहीं रह जाता।”

यह सुनकर नित्यानन्द स्वामी ने पूछा कि, “क्या भगवान ऐसे अनुक्रम द्वारा अवतार धारण करते हैं, या अनुक्रम के बिना भी मनुष्याकृति धारण करते हैं?”

तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “अनुक्रम का कोई मेल नहीं है। जैसे कोई पुरुष तालाब में डुबकी लगाकर चाहे तो वहीं निकल सकता है, या किनारे पर अथवा आसपास कहीं भी निकल सकता है, वैसे ही पुरुषोत्तम भगवान अक्षररूप धाम में डुबकी लगाकर चाहे तो वहीं से सीधे मनुष्याकृति ग्रहण कर लेते हैं अथवा स्वेच्छानुसार उक्त अनुक्रम द्वारा मनुष्याकार हो जाते हैं।”

इस प्रकार वार्ता करके श्रीजीमहाराज पुनः बोले, “जिसे अत्यन्त दृढ़ निश्चय है, उसके लक्षण संक्षेप में कहता हूँ, उसे सुनिये। जिसे परिपक्व निश्चय हो गया हो और जो स्वयं अत्यन्त त्यागी होने पर भी उससे चाहे जितनी प्रवृत्तिमार्ग की क्रिया कराई जाए तो वह करता है, किन्तु करने से पीछे नहीं हटता और बे-मन होकर नहीं, बल्कि प्रसन्नतापूर्वक करता है।

“दूसरा लक्षण यह है कि उसका चाहे जैसा स्वभाव हो, और कोटि उपाय करने पर भी वह स्वभाव न टलता हो, परन्तु उस स्वभाव को छोड़ देने के लिए परमेश्वर का आग्रह देखें, तो वह उस बुरे स्वभाव का तत्काल परित्याग कर डालता है। तीसरा लक्षण यह है कि अपने में कुछ अवगुण होते हुए भी परमेश्वर के कथा-कीर्तन तथा भगवान के सन्त के बिना घड़ी भर भी वह नहीं रह सकता। और अपना अवगुण देखता है, तथा सन्त का अधिक से अधिक गुण ग्रहण करता है। और, भगवान की कथा, कीर्तन और उनके सन्त की अति अधिक महिमा समझता है, ऐसा जिसका दृढ़ आचरण होता है उसका निश्चय परिपक्व समझना चाहिए। ऐसा निश्चयवान भक्त यदि प्रारब्धवश कभी अपने आचरण से च्युत भले ही हो जाए, परन्तु उसका अकल्याण नहीं होता। यदि ऐसा निश्चय न रहे, तो चाहे कैसा भी त्यागी हो तो भी उसका कल्याण नहीं होता।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ६३ ॥

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