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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ६४

शरीर और शरीरी

संवत् १८७६ में फाल्गुन कृष्णा नवमी (९ मार्च, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत धोती धारण की थी। काले पल्ले का दुपट्टा ओढ़ा था, मस्तक पर रेशमी किनारीवाली पाग बाँधी थी तथा तुलसी की नयी कंठी गले में पहन रखी थी। उनके समक्ष सभा में संतवृंद तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

फिर श्रीजीमहाराज ने संतों से पूछा कि, “पुरुषोत्तम भगवान का शरीर आत्मा तथा अक्षर हैं, ऐसा श्रुतियों ने बताया है।८८ वस्तुतः ये आत्मा और अक्षर तो विकाररहित हैं तथा उन दोनों में किसी प्रकार की मायिक उपाधि नहीं है। जिस प्रकार भगवान माया से परे हैं, वैसे ही आत्मा और अक्षर भी माया से परे हैं, ऐसी आत्मा तथा अक्षर उनको भगवान का शरीर किस प्रकार कहा जाता है?८९ और, जीव का शरीर जीव से अत्यन्त विलक्षण तथा विकारी है। देही अर्थात् जीव निर्विकार है, अतः देह और देही दोनों में अत्यन्त विलक्षणता है, वैसे ही पुरुषोत्तम और उनका शरीर आत्मा और अक्षर हैं, उनमें भी अत्यन्त विलक्षणता होनी चाहिए, तो बताइए कि वह विलक्षणता किस प्रकार से है?”

इसका उत्तर समस्त मुनियों ने अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार दिया, किन्तु किसी से यथार्थ उत्तर न हो सका। फिर श्रीजीमहाराज बोले, “अच्छा, हम उत्तर देते हैं। आत्मा९० तथा अक्षर इन दोनों को पुरुषोत्तम भगवान का शरीर बताया गया है। वह, उन दोनों का व्याप्य भाव, दोनों की अधीनता तथा असमर्थता के आधार पर कहा गया है। अब इस तथ्य को समझाता हूँ: भगवान अपनी अन्तर्यामी शक्ति द्वारा आत्मा और अक्षर में व्यापक हैं तथा वे दोनों व्याप्य हैं। भगवान स्वतन्त्र हैं, तथा आत्मा एवं अक्षर भगवान के अधीन और परतन्त्र हैं। भगवान अति समर्थ हैं तथा आत्मा एवं अक्षर भगवान के समक्ष अत्यन्त असमर्थ हैं। इस प्रकार भगवान इन दोनों के शरीरी हैं और ये दोनों भगवान के शरीर हैं। ऐसे शरीरी पुरुषोत्तम भगवान सदैव दिव्य मूर्तिमान हैं। ऐसे जो भगवान हैं, वे व्यापक तथा द्रष्टा ऐसी जो सभी आत्माएँ हैं तथा उन आत्माओं के लिए व्याप्य और दृश्य ऐसी जो देह हैं, उन सभी में अपनी अन्तर्यामी शक्ति द्वारा आत्मारूप से रहते हैं। इस प्रकार पुरुषोत्तम भगवान जो सभी की आत्मा हैं, उनको जब शास्त्रों में रूपवान दृश्य की आत्मा के रूप में ही बताया गया हो, तब यह मानना चाहिए कि पुरुषोत्तम को दृश्यरूप ही प्रतिपादित किया गया है। और जब उस भगवान को द्रष्टा ऐसी जो जीवात्मा उनके भी आत्मा के रूप में प्रतिपादन किया गया हो, तब मानना कि पुरुषोत्तम को अरूपभाव से शास्त्रों में बताया गया है। फिर भी, पुरुषोत्तम भगवान रूपवान दृश्य और अरूपी९१ आत्मा इन दोनों से भिन्न हैं तथा सदैव मूर्तिमान रहते हैं। वे प्राकृत आकार से रहित हैं तथा मूर्तिमान होने पर भी द्रष्टा (जीवात्मा) एवं दृश्य (जगत) दोनों के द्रष्टा हैं और आत्मा एवं अक्षर, सबके प्रेरक, स्वतन्त्र तथा नियन्ता होने के साथ-साथ समस्त ऐश्वर्यों से सम्पन्न हैं और सर्व से परे जो अक्षर है, उससे भी परे हैं। ऐसे पुरुषोत्तम भगवान जीवों के कल्याण के लिए, कृपा करके पृथ्वी पर मनुष्य-जैसे दिखाई देते हैं। जो मनुष्य उन्हें इस प्रकार सर्वदा दिव्य मूर्तिमान समझकर उनकी उपासना और भक्ति करते हैं, वे तो इन भगवान के साधर्म्यभाव और अनन्त ऐश्वर्य९२ को प्राप्त कर लेते तथा ब्रह्मभाव को प्राप्त अपनी आत्मा द्वारा प्रेम सहित निरन्तर परम आदरभाव के साथ पुरुषोत्तम भगवान की सेवा में रहते हैं। किन्तु, जो जीव इन भगवान को निराकार समझकर ध्यान-उपासना करते हैं, वे तो (मृत्यु के बाद) ब्रह्म-सुषुप्ति९३ में विलीन हो जाते हैं और फिर वे वहाँ से कभी भी नहीं निकल पाते तथा भगवान का कोई एश्वर्य भी प्राप्त नहीं कर पाते।९४ यह वार्ता हमने प्रत्यक्ष देखकर ही कही है। इसलिए, इसमें किसी भी प्रकार का संशय नहीं करना। इस वार्ता के मर्म को केवल वही पुरुष समझ सकता है, जो इन भगवान के स्वरूप को सदैव दिव्य साकार रूप मानकर उपासना करने की अपनी दृढ़ निष्ठा पर अटल बना हुआ है, परन्तु अन्य कोई भी मनुष्य इसे समझने में समर्थ नहीं हो पाता। इसलिए, इस वार्ता को अत्यन्त सुदृढ़ बनाकर सिद्ध करना।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ६४ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


८८. ‘यस्यात्मा शरीरम्’ (बृहदारण्यकोपनिषद्: ३/७/३०) आदि।

८९. ‘शीर्यते तच्छरीरम्’, जो विशीर्ण होता है, उसे शरीर कहा जाता है। इस प्रकार की व्युत्पत्ति से शरीर का जो शब्दार्थ है, वह निर्विकारी आत्मा तथा अक्षर के सम्बंध में किस तरह सम्भव होता है, यही प्रश्नार्थ है।

९०. ‘शीर्यते तच्छरीरम्’, यहाँ उपरोक्त अर्थ नहीं बताया गया। परंतु उपनिषद् में उल्लिखित शरीर शब्द का पारिभाषिक अर्थ व्याप्यता, अधीनता तथा असमर्थता किया गया है।

९१. कर-चरणादिक अवयवरहित होने के कारण अरूप।

९२. ऐश्वर्य अर्थात् माया के गुणों से पराभूत न होने का सामर्थ्य।

९३. सुषुप्ति तुल्य अक्षरब्रह्मतेज में।

९४. यदि वह कोई ऐश्वर्य को प्राप्त नहीं करता, तो भगवत् सेवा का आनंद तो मिलेगा ही कैसे?

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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