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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ६५

ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति एवं इच्छाशक्ति

संवत् १८७६ में फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी (१३ मार्च, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में अपने शयन कक्ष के बरामदे में गद्दी-तकिया रखवाकर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे। उस समय उनके समक्ष सभा में परमहंस तथा देश-देशान्तर के हरिभक्त बैठे थे।

श्रीजीमहाराज कथा करवा रहे थे। उस समय उन्होंने बड़े-बड़े परमहंसों को अपने समीप बुलवाया। फिर कथा का अध्याय पूर्ण होने पर श्रीजीमहाराज बोले कि, “अब सभी बड़े-बड़े साधु परस्पर प्रश्नोत्तरी का प्रारम्भ करें। क्योंकि प्रश्नोत्तरी से जिसकी जैसी बुद्धि होती है, उसका पता चल जाता है।”

इसके बाद स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी ने परमानन्द स्वामी से प्रश्न पूछा, “आकाश की उत्पत्ति तथा लय किस प्रकार होते हैं?”

परमानन्द स्वामी इस प्रश्न का उत्तर देने लगे, परन्तु यथार्थ उत्तर न दे सके।

तब श्रीजीमहाराज बोले, “जिस तरह बालक माता के उदर में स्थित हो तब, तथा उसके जन्म के समय उसके हृदयादिक इन्द्रियों के छिद्र सूक्ष्म होते हैं। और फिर जैसे-जैसे वह बालक बड़ा होता जाता है, वैसे-वैसे वे छिद्र भी बड़े होते जाते हैं, और उनमें आकाश भी उत्पन्न होता दिखाई पड़ता है। तथा जब वह वृद्धावस्था को प्राप्त होता है, तब उसकी इन्द्रियों के छिद्र संकुचित होते जाते हैं और आकाश भी लय होता दिखाई पड़ता है। वैसे ही जब विराट देह उत्पन्न होती है, तब उसके अवान्तर हृदयादिक छिद्रों में आकाश की उत्पत्ति होती दिखाई पड़ती है और जब इस विराट देह का लय हो जाता है, तब आकाश भी विलीन होता दिखाई पड़ता है। इस प्रकार आकाश की उत्पत्ति और लय का क्रम चलता रहता है। परन्तु जो आकाश सबका आधार है, वह प्रकृतिपुरुष के समान ‘नित्य’९५ ही रहता है, इसलिए उसकी उत्पत्ति तथा लय नहीं हो सकता। समाधि द्वारा आकाश की उत्पत्ति तथा लय होता है, उसकी रीति को समाधिवाले ही जानते हैं।”

तत्पश्चात् परमानन्द स्वामी ने स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी से प्रश्न पूछा, “सुषुम्णा नाड़ी देह के भीतर और बाहर कैसे रहती है?”

स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी इस प्रश्न का उत्तर देने लगे, किन्तु यथार्थ उत्तर न हो सका।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “इस ब्रह्मांड में जितने तत्त्व हैं, उतने ही इस पिंड में भी हैं। वे पिंड में सूक्ष्म रूप में हैं, और ब्रह्मांड में विशाल रूप में हैं। जैसा आकार इस पिंड का है, वैसा ही आकार ब्रह्मांड का भी है। जिस प्रकार ब्रह्मांड में नदियाँ हैं, वैसे ही पिंड में नाड़ियाँ हैं। इसी प्रकार जैसे ब्रह्मांड में समुद्र है वैसे ही पिंड में स्थित कुक्षि में जल रहता है। और ब्रह्मांड में जिस तरह चन्द्र तथा सूर्य रहते हैं, उसी प्रकार पिंड की इडा-पिंगला नाड़ी में चन्द्र-सूर्य हैं। इस प्रकार जो तत्त्व ब्रह्मांड में हैं, वे पिंड में भी हैं। तथा इस पिंड में इन्द्रियों की जो नाड़ियाँ हैं, उनकी ब्रह्मांड के साथ एकात्मता रहती है। और भक्त जब जिह्वा पर नियंत्रण कर लेता है, तब वह वरुणदेव पर नियंत्रण पा लेता है। उसी प्रकार वाक्-इन्द्रिय को नियन्त्रित कर लेने पर अग्निदेव पर नियन्त्रण हो जाता है, वैसे ही त्वचा इन्द्रिय पर नियंत्रण होने से वायुदेव पर नियंत्रण होता है। इसी तरह जब वह शिश्न (जननेन्द्रिय) पर नियंत्रण पा लेता है तब प्रजापति पर नियंत्रण हो जाता है और हाथ पर नियन्त्रण होने पर इन्द्र पर नियंत्रण हो जाता है। उसी प्रकार हृदय में रहनेवाली सुषुम्णा नाड़ी के अंतिम भागरूप ब्रह्मरन्ध्र को प्राप्त करते हैं, तब शिशुमार चक्र में रहनेवाली वैश्वानर नामक अग्नि के अभिमानी देवता पर नियन्त्रण हो जाता है। तब ब्रह्मरन्ध्र से लेकर प्रकृति-पुरुष तक तेज का एक सीधा मार्ग दिखता है, उसी तेज के मार्ग को सुषुम्णा कहते हैं। इस प्रकार सुषुम्णा नाड़ी पिंड और ब्रह्मांड में रहती है।”

फिर परमानन्द स्वामी ने स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी से प्रश्न किया कि, “सर्वप्रथम जाग्रत अवस्था का लय होता है? या स्वप्न अथवा सुषुप्ति का लय होता है?” तब स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी इस प्रश्न का उत्तर न दे सके।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जाग्रत अवस्था में जब भगवान की मूर्ति में अत्यन्त प्रेमपूर्वक समाधि लग जाती है, तब सबसे पहले जाग्रत अवस्था का लय होता है, उसके पश्चात् स्वप्न एवं सुषुप्ति का लय हुआ करता है। और जब मानसिक रूप से चिन्तन करते-करते स्वप्न में भगवान की मूर्ति में लक्ष्य हो जाता है, तब सर्वप्रथम स्वप्नावस्था का लय होता है, और उसके पश्चात् जाग्रत और सुषुप्ति अवस्थाएँ विलीन हो जाती हैं। और, जब भगवान की मूर्ति का चिन्तन करते-करते उपशम-भाव से लक्ष्य (समाधि) होता है, तब सबसे पहले सुषुप्ति का लय होता है, और उसके बाद जाग्रत तथा स्वप्नावस्था का लय होता है।” इस प्रकार श्रीजीमहाराज ने इस प्रश्न का उत्तर दिया।

तत्पश्चात् स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी ने परमानन्द स्वामी से प्रश्न किया, “भगवान के सम्बंध में ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति तथा इच्छाशक्ति को किस प्रकार समझना चाहिए?”

तब श्रीजीमहाराज हँसकर बोले कि, “इसका उत्तर तो आपको भी नहीं आता होगा।” ऐसा कहकर वे स्वयमेव उत्तर देने लगे कि, “जब इस जीव में सत्त्वगुण का प्राधान्य हो, और उस समय वह जो भी कर्म करता है, उसका फल जाग्रत अवस्था (में मिलता) है। जब इस जीव की प्रवृत्ति रजोगुण प्रधान हो और उस समय वह जो भी कर्म करता हो, उसका फल स्वप्नावस्था (में मिलता) है। जब जीव की प्रवृत्ति में तमोगुण का प्राधान्य हो, और उस समय वह जो भी कर्म करता हो, उसका फल सुषुप्ति अवस्था (में प्राप्त होता) है। और, जब इस जीव की सुषुप्ति अवस्था होती है, तब बड़े चट्टान की तरह शिला के समान जड़ हो जाता है, और उस स्थिति में उसे किसी भी प्रकार का ज्ञान नहीं रहता कि, ‘मैं पंडित अथवा मूर्ख हूँ, या मैंने यह कार्य किया है, या इस काम को मुझे पूर्ण करना है अथवा यह मेरी जाति है, या ऐसा मेरा वर्ण है, या ऐसा मेरा आश्रम है अथवा यह मेरा नाम है या यह रूप मेरा है अथवा मैं देव हूँ या मनुष्य या बालक हूँ या वृद्ध, धर्मिष्ठ हूँ या पापात्मा हूँ।’ इत्यादिक किसी प्रकार का कोई ज्ञान उसे नहीं रहता।

“और, जब वह जीव इस प्रकार का हो जाता है, तब भगवान उसे ज्ञानशक्ति द्वारा सुषुप्ति अवस्था से जगाकर उसके करने योग्य समस्त क्रियाओं का ज्ञान प्रदान करते हैं; उसे ज्ञानशक्ति कहते हैं। और, वह जीव जिस-जिस क्रिया में प्रवृत्त होता है, वह भगवान की क्रियाशक्ति के अवलंबन से ही प्रवृत्त होता है, उसे क्रियाशक्ति कहते हैं। और, यह जीव जिस किसी पदार्थ को पाने की इच्छा करता है, वह परमेश्वर की इच्छाशक्ति का अवलंबन करने से प्राप्त हो जाता है। उसे भगवान की इच्छाशक्ति कहते हैं। और, इस जीव को जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं में जो भोग भोगने पड़ते हैं, उन्हें वह केवल कर्म द्वारा ही नहीं भोगता, बल्कि कर्मफलप्रदाता परमात्मा उस जीव को उसके कर्मफल को भोगने के लिए प्रेरित करते हैं, तब वह जीव उसे भोग सकता है। क्योंकि यह जीव जाग्रत अवस्था के फल का उपभोग करता हो, तब वह यदि स्वप्नावस्था में जाने की इच्छा करता है, तो वह स्वेच्छामात्र से स्वप्न में नहीं जा सकता, क्योंकि कर्मफल देने वाले परमात्मा उसकी वृत्तियों को अवरुद्ध रखते हैं। इसी प्रकार जीव केवल अपनी इच्छा द्वारा स्वप्नावस्था से जाग्रत अवस्था या सुषुप्ति अवस्था में अथवा सुषुप्ति अवस्था से स्वप्नावस्था तथा जाग्रत अवस्था में नहीं जा पाता। वस्तुतः कर्मफल प्रदाता परमात्मा जब जिस अवस्था के कर्मफल का भोग भोगने का अवसर देते हैं, तब जीव उसी प्रकार के फल को भोग सकता है। परन्तु, वह जीव स्वयं अपनी इच्छा से अथवा क्रिया द्वारा कर्मफल का भोग नहीं कर सकता। इस प्रकार भगवान में ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति एवं इच्छाशक्ति रहती९६ है।”

इस प्रकार श्रीजीमहाराज ने कृपा करके उत्तर दिया।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ६५ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


९५. नित्य तत्त्व में तीन भेद हैं: (१) कूटस्थ नित्य: तीनों काल में परिणामगामी नहीं होता है उसे कूटस्थ नित्य कहा जाता है। (२) प्रवाह नित्य: गाँव या शहर में सैकड़ों सालों में प्रजा परिवर्तित होती रहती है। परंतु गाँव या शहर की उम्र सैकड़ों सालों की ही कही जाएगी। इस प्रकार ब्रह्मांडों की महाउत्पत्ति के समय पुरुष बदल जाने पर भी उसी के नाम से विद्यमान स्थान तथा उत्पत्ति में कारणभूत स्थान को नित्य कहा जाता है। (३) परिणामी नित्य: परिणाम बदलते रहने पर भी तत्त्व नहीं बदलता है। जैसे स्वर्ण वही रहने पर भी उसके विविध गहने बनते हैं। उसी प्रकार माया की परिणाम गामी नित्यता समझना चाहिए। उपरोक्त संदर्भ में प्रकृति पुरुष की तरह आकाश की नित्यता कही है। परंतु पुरुष, प्रकृति एवं चिदाकाश तीनों तत्त्वों की नित्यता में अंतर है। इस प्रकार चिदाकाश कूटस्थ नित्य है, एवं प्रकृति परिणामगामी नित्य है तथा पुरुष प्रवाह नित्य है।

९६. भगवान सभी जीवों के गुणकर्मानुसार जीव में ज्ञान आदि शक्तियों को प्रेरित करते हैं। अतः भगवान में कोई विषमता नहीं है।

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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