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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ६६

चतुर्व्यूह की वार्ता

संवत् १८७६ में फाल्गुन कृष्णा अमावस्या (१४ मार्च, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने काले पल्ले की धोती धारण की थी, सफ़ेद मोटी चादर ओढ़ी थी और मस्तक पर श्वेत फेंटा बाँधा था। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “श्रीमद्भागवत में चतुर्व्यूह अर्थात् वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध की ही वार्ता है। उसे किसी स्थान पर सगुण और किसी स्थान पर निर्गुण रूप में बताया गया है। जहाँ भगवान के निर्गुण स्वरूप को कहा गया है, वह भगवान वासुदेव को कहते हैं और जहाँ सगुणात्मक वर्णन है, वहाँ संकर्षण, अनिरुद्ध और प्रद्युम्न को कहते हैं। अतः शास्त्रों में भगवान के निर्गुण स्वरूप का जो वर्णन है, उसे पठन करनेवालों तथा ऐसी कथा को सुननेवालों की मति भ्रमित हो जाती है, क्योंकि वे समझने लगते हैं कि, ‘भगवान का आकार होता ही नहीं है।’ अर्थात् वे निराकार हैं। परन्तु यह उनकी विपरीत मति है। शास्त्रों में जो शब्द९७ हैं वे एकान्तिक भक्त के सिवा किसी की समझ में नहीं आते। वे कैसे शब्द हैं, जो समझ में नहीं आते? तो, जैसे कि, ‘भगवान अरूप है तथा ज्योतिःस्वरूप हैं तथा निर्गुण हैं और सर्वत्र व्यापक हैं,’ ऐसे वचन को सुनकर जो मूर्ख है, वह यह समझता है कि, ‘शास्त्रों में भगवान को निराकार ही बताया गया है।’ परन्तु जो एकान्तिक भक्त हैं, वह ऐसा समझता है कि, ‘शास्त्रों में भगवान को अरूप एवं निर्गुण प्रतिपादित किया गया है, वह उनके मायिक रूप-गुण के निषेध के लिए ही बताया गया है, और भगवान नित्य दिव्यमूर्ति तथा अनन्त कल्याणकारी गुणों से युक्त हैं।’ और, उन्हें जहाँ तेज के पुंज स्वरूप कहा गया है, वहाँ यह समझना है कि बिना मूर्ति के तेज होता ही कहाँ से? इस दृष्टि से वह तेज तो मूर्ति का ही तेज है। जैसे अग्नि की मूर्ति में से अग्नि की ज्वाला प्रकट होती है, उससे अग्नि की वह मूर्ति दिखाई नहीं देती, और ज्वाला दिखती है। यह देखकर विवेकी पुरुष यह समझता है कि, ‘अग्नि की मूर्ति से ही ज्वाला निकलती है।’ वैसे ही वरुण की मूर्ति से जल प्रकट होता है, परन्तु हमें जल ही दिखाई पड़ता है, किन्तु वरुण की मूर्ति नहीं दिखाई पड़ती। फिर भी, बुद्धिमान व्यक्ति ऐसा समझता है कि, ‘वरुण की मूर्ति में से समस्त जल निकलता है।’ ठीक उसी प्रकार ब्रह्मसत्तारूप कोटि सूर्यों का जो प्रकाश है, वह पुरुषोत्तम भगवान की मूर्ति का ही प्रकाश है।

“और, शास्त्रों में ऐसे वचन भी हैं कि, ‘जिस प्रकार काँटे से काँटा निकालकर फिर दोनों का ही परित्याग कर दिया जाता है, उसी प्रकार भगवान पृथ्वी का भार उतारने के लिए देह धारण करते हैं, और भार उतारने के पश्चात् देह का परित्याग कर देते हैं।’ ऐसे शब्दों को सुनकर मूर्ख भ्रमित हो जाता है तथा भगवान को निराकार समझता है, परन्तु वह भगवान की मूर्ति को दिव्य नहीं मानता। और, एकान्तिक भक्त यह समझता है कि जब श्रीकृष्ण भगवान अर्जुन की प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के निमित्त ब्राह्मण के पुत्र को लेने के लिए चले, तब उन्होंने अर्जुन के साथ द्वारिका से रथ पर बैठकर प्रस्थान किया और लोकालोक पर्वत को लांघकर मार्ग में पड़नेवाले माया के अन्धकार के सुदर्शन चक्र द्वारा दूर कर दिया। वहाँ से रथ को आगे बढ़ाकर तेजपुंज में प्रवेश किया तथा वे भूमापुरुष से ब्राह्मण के पुत्र को ले आए। अतः श्रीकृष्ण भगवान दिव्य मूर्ति थे, तो उनके प्रताप से काष्ठ का रथ और पंचभौतिक देहवाले घोड़े भी दिव्य एवं मायातीत चैतन्य रूप के हो गए। यदि वे दिव्य स्वरूप को प्राप्त न करते, तो हमें स्पष्ट हो गया होता कि जितना माया क कार्य होता है, वह माया में ही लीन हो जाता है, परन्तु माया से परे ब्रह्म९८ तक नहीं पहुँच सकता! अतः भगवान की मूर्ति के प्रताप से जो मायिक पदार्थ थे, वह भी अमायिक बन गए! ऐसा जो भगवान का स्वरूप है, उसे मूर्खजन मायिक समझता है, जबकि एकान्तिक सन्त भगवान की मूर्ति को अक्षरातीत समझता है, तथा मूर्तिमान पुरुषोत्तम भगवान को ब्रह्मरूप ऐसे जो अनन्तकोटि मुक्तों तथा अक्षरधाम उन सभी की आत्मा समझता है। इसलिए, चाहे किसी भी प्रकार के शास्त्रों का पठन-पाठन करते हों, पर उस समय यदि भगवान के निर्गुण रूप का प्रतिपादन देखा गया, तो वहाँ यह समझना चाहिए कि यहाँ भगवान की मूर्ति की महिमा ही कही गई है, अन्यथा भगवान तो सदा मूर्तिमान ही है। जो इस प्रकार समझता है, उसे एकान्तिक भक्त कहते हैं।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ६६ ॥

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९७. शाब्दिक व्याख्याएँ; निरूपण

९८. यहाँ ब्रह्म शब्द से भूमापुरुष का लोक समझना चाहिए। - भागवत: १०/८९/५३-५८

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