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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ६८

आठ प्रकार की मूर्ति तथा सन्त में प्राकट्य

संवत् १८७६ में चैत्र शुक्ला नवमी (२३ मार्च, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे नीमवृक्ष के नीचे पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत धोती धारण की थी, सफ़ेद चादर ओढ़ी थी और सिर पर श्वेत रेशमी किनारीवाली पाग बाँधी थी। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “हम एक प्रश्न पूछते हैं।”

तब मुनियों ने कहा कि, “पूछिए।”

श्रीजीमहाराज बोले, “उनहत्तर के साल के (सं. १८६९) दुर्भिक्ष के समय हमें एक महीने तक समाधि लगती थी, तब ऐसा आभास होता था कि हम पुरुषोत्तमपुरी में जाकर श्रीजगन्नाथजी की मूर्ति में प्रवेश करके रह रहे हैं। यद्यपि वह काष्ठ की मूर्ति थी, फिर भी हम उनके नेत्रों से सबको देखते थे, तथा पुजारी के भक्तिभाव और छलकपट को भी देखते थे। और, अपने सत्संग में भी जो समाधिनिष्ठ होते हैं, वे भी इस प्रकार समाधि द्वारा दूसरों के शरीर में प्रवेश करके सबको देखते हैं तथा समस्त शब्दों को सुनते हैं। और, शास्त्रों में भी ऐसे वचन हैं कि शुकदेवजी वृक्ष में प्रवेश करके बोले थे। इसलिए, महान सत्पुरुष अथवा परमेश्वर अपनी इच्छा के अनुसार कहीं भी प्रवेश करने का सामर्थ्य रखते हैं।

“अतः परमेश्वर ने आज्ञा करके जो मूर्ति पूजन करने के लिए दी हो, वे मूर्तियाँ आठ प्रकार की होती हैं।९९ उनमें स्वयं भगवान साक्षात् प्रवेश करके विराजमान रहते हैं। जब भगवान का भक्त उस मूर्ति की पूजा करता हो, तब उसे मूर्ति की उसी प्रकार मर्यादा रखनी चाहिए, जिस तरह प्रत्यक्षरूप से विराजमान भगवान की मर्यादा का पालन करता हो! उसी प्रकार सन्त के हृदय में भी भगवान की मूर्ति है, अतः उन सन्त की भी मर्यादा रखनी चाहिए। किन्तु, ऐसी मर्यादा का वह भक्त लेशमात्र पालन नहीं करता है, उल्टे उस मूर्ति को वह चित्र अथवा पाषाणादिक की समझता है, तथा सन्त को अन्य व्यक्तियों के समान मानता है। और, भगवान ने तो अपने श्रीमुख से ऐसा कहा है कि, ‘मैं अपनी आठ प्रकार की प्रतिमा तथा सन्त में निरन्तर प्रवेश करके रहता हूँ।’ फिर भी वह भक्त तो भगवान की प्रतिमा के समक्ष तथा सन्त के समक्ष चाहे जितना स्वच्छंद और अविवेकपूर्ण आचरण करता है, परन्तु भगवान का भय लेशमात्र भी नहीं रखता है, उसे भगवान का निश्चय है या नहीं? यह प्रश्न है।”

तब परमहंस बोले कि, “जब वह भगवान को अन्तर्यामी जानकर भी मर्यादा नहीं रखता, तो यही प्रतीत होता है कि उसमें भगवान का निश्चय ही नहीं है।”

फिर श्रीजीमहाराज बोले कि, “उसे निश्चय तो है ही नहीं, तथा बाह्य रूप से वह पाखंडमय भक्ति करता है, तो उसका कल्याण होगा या नहीं?”

तब सन्त बोले कि, “उसका कल्याण नहीं होगा।”

फिर श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिसे भगवान की मूर्ति एवं सन्त में नास्तिकता बनी रहती है, वह उसी मुकाम पर रुकेगा नहीं; वह तो जिसका भजन-स्मरण करता है, ऐसे प्रत्यक्ष भगवान के विषय में भी नास्तिक बन जाएगा। उसे भगवान के गोलोक एवं ब्रह्मपुर आदि धामों के विषय में भी नास्तिकता बनी रहेगी। वह जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय परमेश्वर द्वारा नहीं, लेकिन काल, माया और कर्म द्वारा ही मानेगा! ऐसा पक्का नास्तिक होगा।”

फिर मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा, “इस नास्तिकता का कारण पूर्वजन्म का कोई कर्म है अथवा कुसंग?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “नास्तिक ग्रन्थों का श्रवण करना ही नास्तिकता का कारण है। और, ऐसे ग्रन्थों में जिनकी प्रतीति हो, उनका संग भी नास्तिकता का निमित्त बन जाता है। तथा, काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, मान तथा ईर्ष्या आदि दोष भी नास्तिकता के कारण बन जाते हैं। क्योंकि इनमें से यदि किसी एक स्वभाव का भी प्रभाव हो, तो नारद-सनकादिक जैसे साधु भी यदि उस व्यक्ति को समझाएँ, तो भी वह उनकी बात नहीं मानेगा। और, ऐसी नास्तिकता कब मिट सकती है? तो जब वह श्रीमद्भागवत जैसे आस्तिक ग्रन्थों में प्रतिपादित जगत की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलयरूपी भगवान की लीला का श्रवण करे, तथा भगवान और सन्त का माहात्म्य समझे, तब जाकर उसकी नास्तिकता मिट सकती है और आस्तिकता उत्पन्न हो सकती है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ६८ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


९९. ‘शैली दारुमयी लौही लेप्या लेख्या च सैकती। मणिमयी मनोमयी प्रतिमाष्टविधाः स्मृताः॥’ (श्रीमद्भागवत: ११/२७/१२) पत्थर, काष्ट, धातु, चित्रप्रतिमा, रेखाकृति, रेत, मणिमयी और मानसिकी - इस प्रकार मूर्तियों के आठ भेद हैं।

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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