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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ६९

अहिंसामय धर्म

संवत् १८७६ में चैत्र शुक्ला द्वादशी (२६ मार्च, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। वे श्वेत वस्त्र धारण किए हुए थे। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

श्रीवासुदेव नारायण की संध्या-आरती के पश्चात् नारायण धुन करके श्रीजीमहाराज बोले कि, “धर्म किसका नाम है, इसका शास्त्रोक्त रीति से उत्तर दीजिए। और, जो हिंसक राजा थे, वे भी शरणागत जीव की न तो स्वयं हत्या करते थे, और न ही किसी अन्य पुरुष को उसकी हत्या करने देते थे। अतः शरणागत जीव को मारने से जैसे पाप होता है, वैसे क्या अन्य किसी की हत्या करने से पाप होता है या नहीं?”

तत्पश्चात् जिसे जैसा लगा उसने वैसा उत्तर दिया। परन्तु, श्रीजीमहाराज ने शंका प्रकट की, तब किसी से उत्तर नहीं हो पाया। फिर समस्त मुनि बोले, “हे महाराज! हम भी आपसे यही प्रश्न पूछते हैं कि एक ओर तो यज्ञादि में पशुहिंसा के सहित धर्म निरूपण हुआ है, और दूसरी ओर अहिंसारूप भी धर्म को बताया गया है। इसीलिए कृपया बताइए कि इसमें सत्य बात क्या है?”

श्रीजीमहाराज बोले कि, “हिंसायुक्त जो धर्म है, वह तो धर्म, अर्थ और कामपरक है, और वह भी हिंसा के संकोच के लिए प्रतिपादित किया गया है। और, जो अहिंसामय धर्म है, वह मोक्षपरायण बताया गया है, और यही साधु का धर्म है। और, हिंसामय जो धर्म है, वह तो आसक्ति से प्रेरित है, किन्तु कल्याण के लिए नहीं है। और, जो अहिंसामय धर्म है, वह तो केवल कल्याण के लिए है। अतः गृहस्थों और त्यागीजनों के लिए केवल अहिंसामय धर्म को ही कल्याण के लिए बताया गया है। जैसे उपरिचरवसु नामक राजा अपने राज्य में केवल अहिंसाधर्म का ही आचरण करते थे, अतः साधु को तो मन, कर्म तथा वचन द्वारा किसी के भी अहित की कामना नहीं करनी चाहिए। और, किसी बात का अहंकार भी नहीं रखना चाहिए और सबके दासानुदास होकर रहना चाहिए। एवं, क्रोधयुक्त प्रकृति दुष्ट पुरुष का धर्म है, और शान्त स्वभाव से आचरण करना वही साधु का धर्म है। तब कोई यह कहेगा कि जब हज़ारों मनुष्यों से नियमों का पालन कराना हो, तो साधुता ग्रहण करने से कैसे काम चलेगा? इसका उत्तर यह है कि राजा युधिष्ठिर का हज़ारों कोसों में राज्य था, तो भी उन्होंने साधुता रखी थी। और, भीमसेन के समान डराने-धमकानेवाले तो सहस्रों पुरुष हो सकते हैं, जिन्हें रोका जाए तो भी वे अपने स्वभाव के अनुसार आचरण करने से नहीं रुक सकते। अतः कठोर स्वभाववालों की कोई कमी नहीं है, ऐसे तो बहुत मिले, लेकिन ‘साधु’ होना ही अत्यन्त दुर्लभ है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ६९ ॥

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