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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ७०

सत्संग-महिमा तथा भगवन्निश्चय की अडिगता

संवत् १८७६ में चैत्र शुक्ला पूर्णिमा (२९ मार्च, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने सिर पर रेशमी किनारीवाली श्वेत धोती बाँधी थी, सफ़ेद धोती धारण की थी तथा श्वेत चादर ओढ़ी थी। वे अपने हस्तकमल में तुलसी की माला फेर रहे थे। उनके समक्ष सभा में परमहंस तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “बड़े-बड़े परमहंस अब परस्पर प्रश्नोत्तरी प्रारम्भ करें। यदि किसी गृहस्थ हरिभक्त को भी कुछ पूछना हो, तो वह अपना प्रश्न परमहंसों से पूछे।”

तब रोजका गाँव के हरिभक्त काकाभाई ने नित्यानन्द स्वामी से प्रश्न किया, “कभी कभी अन्तःकरण से ऐसी आवाज़ आती है कि पंचविषयों का उपभोग करो! जबकि दूसरी ओर ऐसी आवाज़ भी आती है कि पंचविषयों को नहीं भोगना चाहिए! तो भीतर से जो पंचविषय भोगने की ‘हाँ’ कहता है वह कौन है? तथा जो ‘ना’ बोलता है वह कौन है?”

तब नित्यानन्द स्वामी ने कहा, “जो मना करता है, वह जीवात्मा है और जो भोगने की संमति देता है वह मन है।”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “इस प्रश्न का उत्तर हम देते हैं, कि हमने जन्म के बाद जिस दिन से होश सँभाला, और माता-पिता को पहचाना, उस दिन से माँ-बाप ने हमें निश्चय कराया कि, ‘यह तेरी माँ, यह तेरा बाप, यह तेरा काका, यह तेरा भाई, यह तेरा मामा, यह तेरी बहन, यह तेरी मामी, यह तेरी काकी, यह तेरी मौसी, यह तेरी भैंस, यह तेरी गाय, यह तेरा घोड़ा, यह तेरे कपड़े, यह तेरा घर, यह तेरा मकान, यह तेरा खेत और यह तेरे गहने।’ ऐसे-ऐसे कुसंगियों के समस्त शब्द इस जीव की बुद्धि में रह-रहे हैं। ये किस प्रकार से रहे हैं? तो जैसे स्त्रियाँ जब में कसीदे का काम करती हैं, तब कसीदावाली चीज़ में शीशे का टुकड़ा लगाया जाता है, वैसे ही कसीदाकारी की जगह बुद्धि है और शीशे के टुकड़े के स्थान पर यह जीव है, और उस बुद्धि में कुसंगी लोगों के वे शब्द तथा उनके रूप इन पंचविषयों के सहित रहते हैं। बाद में उस जीव को जब सत्संग प्राप्त हुआ, तब सन्त ने परमेश्वर की महिमा तथा विषयों के खंडन और जगत के मिथ्या होने की बात कही।

“उन सन्त की ऐसी बातें तथा उन संतों के रूप भी इस जीव की बुद्धि में रहे हैं। इन दो प्रकार के शब्दों की दो सेनाएँ हैं, जो आमने-सामने उसी तरह खड़ी हुई हैं, जिस प्रकार कुरुक्षेत्र में कौरवों तथा पांडवों की सेनाएँ एक-दूसरे के सामने खड़ी हुई थीं। उनके बीच युद्ध में तीर, बर्छियाँ, आदि शस्त्रों का उपयोग किया गया। उस समय कुछ योद्धा तलवारें और कतिपय वीरपुरुष गदाएँ लेकर, तो कुछ सैनिक आमने-सामने लड़ रहे थे। उस स्थिति में किसी का सिर उड़ गया, तो किसी की जाँघ कट गयी, ऐसा भीषण रक्तपात हुआ था। उसी प्रकार जीव के अन्तःकरण में भी जो कुसंग के भाव हैं, वे पंचविषयरूपी शस्त्रों को लेकर खड़े हैं तथा सन्त के जो भाव हैं, वे भी ’भगवान सत्य हैं, जगत मिथ्या है तथा विषय झूठे हैं’, इन शब्दरूपी शस्त्रों से सज्जित होकर खड़े हैं और इन दोनों प्रकार के शब्दों का आपस में युद्ध होता है। सो जब कुसंगी का बल बढ़ जाता है, तब विषयों के भोगने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है, तथा जब सन्त का बल बढ़ता है, तब विषयोपभोग की इच्छा नहीं होती। इस प्रकार परस्पर अन्तर्द्वन्द्व चलता रहता है। इसलिए, कहा गया है:

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूति र्ध्रूवा नीतिर्मति र्मम ॥१००

“इस श्लोक में बताया गया है कि, ‘जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और धनुषधारी अर्जुन हैं, वहीं लक्ष्मी है, वहीं विजय है, वहीं ऐश्वर्य है और वहीं अचल नीति बनी रहती है।’ इस तरह जिसके पक्ष में यह सन्तमंडल है, उसी की विजय होगी, ऐसा निश्चय रखना।”

तब काकाभाई ने पुनः पूछा, “हे महाराज! भीतर जो सन्त बैठे हैं, उनका बल बढ़े तथा कुसंगी की शक्ति कम हो, उसका क्या उपाय है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “अन्तःकरण में और बाहर जो कुसंग रहता है, वे दोनों एक हैं तथा हृदय में और बाहर जो संत रहते हैं, वे भी एक हैं। अन्तस्तल में रहनेवाले कुसंगी का बल बाहरवाले कुसंगी के पोषण से बढ़ता है, और अंतर में निवास करनेवाले सन्त का बल तभी बढ़ता है, जब बाहरवाले सन्त से उसे पोषण प्राप्त होता हो। इसीलिए, बाहर के कुसंगियों का संग न करके बाहर के जो सन्त है, उन्हीं का सत्संग करें। तभी कुसंगियों का बल कम हो जाता है, तथा सन्त के बल में वृद्धि होती है।” इस प्रकार श्रीजीमहाराज ने प्रश्न का उत्तर दिया।

काकाभाई ने पुनः यह प्रश्न पूछा, “हे महाराज! एक पुरुष तो ऐसा है, जिसके लिए कुसंगियों का संघर्ष समाप्त हो गया है और केवल सन्त का संबल प्राप्त है। तथा एक अन्य पुरुष भी है, जिसका संघर्ष ज्यों का त्यों चलता रहता है। इस स्थिति में, इन दोनों में जिसका संघर्ष समाप्त हो गया है, उसके मरने पर उसे भगवान के धाम की प्राप्ति होती है, इस बात में तो कोई सन्देह नहीं है, परन्तु जिसका संघर्ष पूर्ववत् चल रहा है, उसका देहान्त होने पर उसकी कैसी गति होती है, यह बताइए।”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “जैसे एक योद्धा जब युद्ध करने के लिए निकला, तब उसके समक्ष बनिये अथवा गरीब लोग आए उन्हें जीत लिया, तब उसे भी विजय कहा जायेगा। ठीक उसी तरह दूसरा योद्धा युद्ध करने गया, तब उसके सामने आरबों की सेना आई तथा राजपूत, काठी और कोली जैसे योद्धा आए, उन्हें जीतना कठिन ही है। वे कोई बनियों जैसे थोड़े ही हैं, जिन पर तुरन्त विजय पा ली जाए! इस कारण वह योद्धा उनके साथ बस संघर्षरत ही रहता है। उनमें कदाचित् जीता तो जीत ही गया! परन्तु अगर जो लड़ते-लड़ते शत्रु द्वारा खदेड़े जाने पर भी नहीं हटा, तथा आयुष्य समाप्त होने के कारण अगर वह मर भी गया, तो क्या उसका स्वामी यह बात नहीं जानेगा कि, ‘इसका मुकाबला बड़े-बड़े बलवान लोगों से हुआ था, जिन्हें जीता नहीं जा सकता था! तथा जो पहला योद्धा था वह बनिये आदि को जीता था। वह वाकई आसान काम था।’ इस प्रकार, दोनों योद्धाओं पर उनके स्वामी की नज़र रहती है। उसी प्रकार भगवान भी नज़र रखते हैं कि, ‘इन्हें ऐसे प्रबल संकल्प-विकल्पों के विघ्न हैं, फिर भी उनके साथ लड़ाई लड़ता रहा है, इसलिए यह धन्य है।’ इस प्रकार भगवान उसकी सहायता करते हैं। अतएव, बेफ़िक्र रहना, किसी भी प्रकार की चिन्ता नहीं करना। और बस, इसी प्रकार भगवान का भजन करते रहना। सन्त का अधिक से अधिक सत्संग करना और कुसंगी से दूर ही रहना।” इस प्रकार श्रीजीमहाराज प्रसन्न होकर बोल रहे थे।

फिर ‘जसका’ गाँव के जीवाभाई ने नित्यानन्द स्वामी से प्रश्न किया, “भगवान सम्बंधी अटल निश्चय किस प्रकार से हो सकता है?”

तब नित्यानन्द स्वामी ने कहा, “यदि कुसंगी लोगों से दूर रहें और सन्त का अधिकाधिक सत्संग करें, तो उन सन्त की बातों से भगवान का अटल निश्चय हो जाता है, परन्तु यदि कुसंगी लोगों का संग किया, तो अडिग निश्चय नहीं हो सकता।”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “अब हम इसका उत्तर देते हैं कि भगवान सम्बंधी निश्चय केवल अपने जीव के कल्याण के लिए ही करना, लेकिन किसी पदार्थ की लालसा से नहीं करना। जैसे कि, ’यदि मैं सत्संग करूँ, तो मेरा रोग दूर हो जाए अथवा निःसंतान हूँ तो पुत्र मिले, या पुत्र की मृत्यु हो जाती है, तो वह जीवित रहे, अथवा निर्धन हूँ तो धनवान हो जाऊँ, या भू-सम्पत्ति चली गई है, वह सत्संग करने से वापस आ जाए।’ इस प्रकार पदार्थों की लालसा रखकर सत्संग नहीं करना। जो मनुष्य ऐसी इच्छा के साथ सत्संग करता है, उसकी पदार्थों की लालसा यदि पूरी हो गई, तो वह पक्का सत्संगी बन जाता है, और यदि इच्छा पूर्ण न हुई, तो भगवान सम्बंधी निश्चय कम हो जाता है। इसलिए सत्संग अपने जीव के कल्याण के लिए ही करना। किन्तु किसी प्रकार के भौतिक पदार्थों की इच्छा रखना ही नहीं। क्योंकि अगर घर में दस मनुष्य हों तथा सभी का मृत्युकाल उपस्थित हो गया, परन्तु यदि उनमें से एक भी आदमी बच गया तो क्या कम है? अथवा प्रारब्ध में यदि भिक्षा माँगने का योग हो और रोटियाँ खाने को मिलें, तो क्या कम है? सबकुछ जाने वाला था, उसमें से यदि इतना बच गया है, तो वह पर्याप्त है, ऐसा मानना। इस प्रकार अत्यधिक दुःख आनेवाला हो, वह परमेश्वर के आश्रय को ग्रहण करने से निश्चित रूप से कम तो होता है, परन्तु जीव को यह बात समझ में नहीं आती। अन्यथा एक बात तो पक्की है कि किसी को सूली चढ़ने का योग हो, तो ऐसा दुःख केवल काँटा लगने मात्र से भी टल जाता है, इतना अन्तर भगवान के आश्रय से पड़ता है।

“इस प्रसंग में एक वार्ता स्मरणीय है: एक गाँव में बहुत चोर रहते थे, जिनमें से एक चोर साधु के पास बैठने के लिए जाया करता था। एक बार मार्ग में चलते हुए उस चोर के पैर में काँटा चुभ गया और वह आरपार निकल गया। उसका पैर सूज गया और इस हालत में वह चोरी करने के लिए नहीं जा सका। दूसरे चोर चोरी करने के लिए गए, और एक राजा का खजाना लूटा। बहुत-सा धन लेकर उन्होंने उसे आपस में बाँट लिया। उधर, जो चोर साधु के पास आता था, और पैर में काँटा लग गया था, उसके माता-पिता, पत्नी और अन्य सम्बंधीजन उसे डाँटने-फटकारने लगे कि, ‘तू चोरी करने नहीं गया और साधु के पास बैठा रहा, तो हमारा भारी नुकसान हो गया! देखो वे चोर राजा के यहाँ चोरी करके कितने धक धनवान बन गए!’ जब वे ऐसी बातचीत कर ही रहे थे कि राजा के सैनिक वहाँ पहुँच गए और उन्होंने सब चोरों को पकड़कर सूली पर चढ़ा दिया। वे इन चोरों के साथ सत्संग में आनेवाले उक्त चोर को भी सूली पर चढ़ाने के लिए ले गए। तब उस गाँव के लोगों के साथ साधु ने आकर गवाही देते हुए बताया कि, ‘यह तो चोरी करने गया ही नहीं था, क्योंकि इसके पैर में काँटा लग गया था।’ इस तरह उस चोर की रक्षा हो गई।

“इस प्रकार जो सत्संग करते हैं, उनका सूली जैसा दुःख भी काँटे से मिट जाया करता है, क्योंकि हमने रामानन्द स्वामी से प्रार्थना की है कि, ‘आपके सत्संगियों को यदि एक बिच्छू का कष्ट होनेवाला हो, तो मेरे एक-एक रोम में करोड़ों बिच्छुओं के डंक लगने की पीड़ा हो जाए, किन्तु उन्हें (सत्संगियों को) ऐसा कष्ट नहीं होना चाहिए। तथा आपके सत्संगियों के प्रारब्ध में यदि भिक्षापात्र का योग हो, तो वह मुझे मिल जाए, परन्तु आपके सत्संगी अन्न-वस्त्र के अभाव से दुःखी न हों। कृपया ये दो वरदान मुझे दीजिए।’ इस प्रकार मैंने रामानन्द स्वामी से दो वरदान माँगे, जो उन्होंने मुझे प्रसन्नतापूर्वक दिए हैं। इसलिए, जो कोई सत्संग करता है, उसे व्यवहार में यदि कोई दुःख होनेवाला हो तो भी वह नहीं हो पाता। फिर भी, पदार्थ तो नाशवान ही है, इसलिए, यदि पदार्थों की लालसा से कोई सत्संग करेगा, तो उसके भगवान सम्बंधी निश्चय में संशय हुए बिना नहीं रहेगा! इसलिए, सत्संग केवल निष्कामभाव से तथा अपने जीव के कल्याण के लिए ही करना, तभी अडिग निश्चय होगा।”

इस संदर्भ में श्रीहरि ने बहुत सी बातें की हैं, परन्तु यहाँ पर तो मात्र अल्प ही लिखी गई हैं।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ७० ॥

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This Vachanamrut took place ago.


१००. गीता: १८/७८

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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