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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ७१

भगवान अक्षरधाम सहित पृथ्वी पर बिराजमान हैं

संवत् १८७६ में चैत्र कृष्णा चतुर्थी (२ अप्रैल, १८२०) को सायंकाल श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी द्वार के ऊपर की मंजिल के समीप चबूतरे पर पलंग बिछवाकर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत धोती धारण की थी, सफ़ेद चादर ओढ़ी थी और सिर पर श्वेत फेंटा बाँधा था। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा विभिन्न स्थानों के हरिभक्त बैठे हुए थे। उस समय मुक्तानन्द स्वामी आदि साधुवृंद वाद्ययन्त्रों सहित भजन गा रहे थे।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “अब कीर्तनभक्ति समाप्त करके परस्पर प्रश्न-उत्तर कीजिए।”

इस आदेश पर सोमलाखाचर ने प्रश्न किया कि, “भगवान यद्यपि अपने भक्तों के समस्त अपराधों को क्षमा कर देते हैं, तथापि ऐसा कौन-सा अपराध है, जिसे भगवान क्षमा नहीं करते?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “वैसे तो भगवान सामान्यतः सभी अपराधों को क्षमा कर देते हैं, फिर भी वे भगवद्भक्त के द्रोहरूप अपराध को क्षमा नहीं करते, इसलिए भगवान के भक्त का किसी भी प्रकार से द्रोह नहीं करना चाहिए। और, भगवान के समस्त अपराधों में सबसे बड़ा अपराध वही है, जो भगवान के साकार स्वरूप का खंडन करना। अतः वह अपराध कभी भी नहीं करना। यदि कोई व्यक्ति वह अपराध करता है, तो उसे पाँच महापापों से भी अधिक पाप लगता है। वस्तुतः भगवान सदैव साकार मूर्तिमान हैं, उन्हें निराकार समझना ही भगवान के आकार का खंडन करना कहलाता है।

“तथा, पुरुषोत्तम भगवान करोड़ों सूर्य-चन्द्रमाओं के तेज के समान देदीप्यमान रहनेवाले अपने अक्षरधाम में सदैव दिव्यरूप धारण करके विराजमान रहते हैं। और, अनन्तकोटि ब्रह्मरूप ऐसे मुक्त उनके चरणकमलों की सेवा किया करते हैं। ऐसे परब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान ही स्वयमेव कृपा करके जीवों के कल्याण के लिए पृथ्वी पर प्रकट होते हैं। तब वे जिन-जिन तत्त्वों को अंगीकार करते हैं, वे सभी तत्त्व ब्रह्मरूप (दिव्य) हो जाते हैं। क्योंकि रामकृष्णादि अवतारों के स्वरूपों में स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण इन तीन में देह तथा जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीन अवस्थाओं के भाव दिखाई देते हैं, तथा दस इन्द्रियाँ, पंचप्राण इत्यादि भी मनुष्य के समान ही दिखाई देते हैं। परन्तु ये सब ब्रह्म (दिव्य) हैं, मायिक नहीं। इसलिए ऐसे भगवान के आकार का कभी भी खंडन नहीं करना।”

तत्पश्चात् मातरा धाधल ने पूछा, “ईर्ष्या का स्वरूप कैसा है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “जिस पर जिसको ईर्ष्या होती है, उसका उत्कर्ष उससे सहन नहीं होता, किन्तु उसका अहित होने पर उसे प्रसन्नता होती है, यही ईर्ष्या का लक्षण है।”

फिर श्रीजीमहाराज ने साधुओं से प्रश्न पूछा, “यदि किसी को भगवान की प्रत्यक्ष मूर्ति का निश्चय हो, और वह भजन करता हो और सत्संग के नियमों के अनुसार आचरण करता हो, तो उसका कल्याण होता है। यह तो सत्संग की रीति है, परन्तु शास्त्रों में कल्याण की रीति क्या बताई गई है? और, वेदों के अर्थ तो अत्यन्त कठिन हैं, इसलिए वेदों की कथा नहीं होती. तथा श्रीमद्भागवत पुराण और महाभारत में वेदों का ही अर्थ है और वह सुगम है, इसलिए जगत में उनकी कथा होती है। अतः शास्त्रों के कहे अनुसार कल्याण की रीति बताइए। और, शंकराचार्यजी ने भगवान के निराकार स्वरूप का प्रतिपादन किया है, जबकि रामानुजादिक आचार्यों ने भगवान के साकार स्वरूप को ही प्रतिपादित किया है। इसीलिए इस प्रकार शास्त्रों के मतानुसार उत्तर दीजिए।”

इसके पश्चात् मुनियों ने शास्त्रीय रीति से निराकार के पक्ष को मिथ्या सिद्ध करके यह बात बताई कि साकार भगवान का भजन करने से कल्याण होता है।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “हम भी इसी पक्ष का ग्रहण करते हैं फिर भी, इस सम्बंध में आपसे एक प्रश्न पूछते हैं कि, यद्यपि निराकार अक्षरब्रह्म से परे सदा साकार मूर्ति पुरुषोत्तम भगवान हमें पृथ्वी पर प्रत्यक्ष रूप से मिले हैं, तथापि ब्रह्मपुर, गोलोक, वैकुंठ एवं श्वेतद्वीप आदि भगवान के धामों को देखने की जिसे लालच रहती है, उसे भगवान का निश्चय है या नहीं?”

तब मुनियों ने बताया, “भगवान की प्राप्ति होने पर भी जिसके मन में ऐसी इच्छा रहती हो कि, ‘जब अक्षर आदि धाम देखेंगे, अथवा कोटि-कोटि सूर्यों का प्रकाश देखेंगे तभी हमारा कल्याण होगा,’ तो ऐसी समझवालों को भगवान का यथार्थ निश्चय नहीं है।”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “इसने ब्रह्मपुर आदि धामों तथा ब्रह्मस्वरूप को देखने की लालसा रखकर क्या कोई पाप किया है, जिससे आप यह मत व्यक्त करते हैं कि उसे भगवान का निश्चय नहीं हुआ है?”

मुनियों ने बताया कि, “जिसने प्रत्यक्ष प्रमाण भगवान के दर्शन को कल्याणकारी मान लिया हो, उसके लिए ब्रह्मपुर, गोलोक आदि धाम भी भगवान के ही धाम हैं, तब वह उनसे अरुचि क्यों रखे? परन्तु वह भगवान के बिना उसकी इच्छा नहीं करता।”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “वे धाम तथा उनमें रहनेवाले पार्षद तो चैतन्यमूर्ति हैं और माया से परे भी हैं, तब उनमें कौन-सा ऐसा दोष है कि वह उसे नहीं इच्छता? और, भगवान जब पृथ्वी पर प्रकट रूप से विराजते हों और तब उनके जो मनुष्यरूप सेवक होते हैं, वे तो नाशवान लगते हैं। तथा वे जिन घरों में रहते हैं, वे भी मिट्टी में मिल जाए ऐसे होते हैं, तो इसके बारे में कहिए, आपकी समझ क्या है?”

तब मुनि बोले कि, “इन घरों को हम ब्रह्मपुरादिक धाम समझते हैं तथा सेवकों को हम ब्रह्मरूप समझते हैं।”

फिर श्रीजीमहाराज बोले, “ब्रह्मपुर और उसमें रहनेवाले पार्षद अखंड एवं अविनाशी हैं। तो इस मृत्युलोक के नाशवान घरों और नाशवान शरीरवाले पार्षदों के साथ उसकी तुलना क्यों करते हैं?”

अब नित्यानन्द स्वामी बोले, “हे महाराज! इसका उत्तर आप ही दीजिए।”

तब श्रीजीमहाराज ने बताया, “भगवान जीव के कल्याण के लिए जब मूर्ति धारण करते हैं, तब वे अपने अक्षरधाम१०१ एवं चैतन्यमूर्ति पार्षदों तथा समस्त निजी ऐश्वर्यों सहित ही पधारते हैं, परन्तु वे दूसरे लोगों को दिखाई नहीं पड़ते। और, जब किसी भक्त को समाधि में अलौकिक दृष्टि प्राप्त होती है, तब उसे भगवान की मूर्ति में कोटि-कोटि सूर्यों के समान प्रकाश दिखता है, और अनन्तकोटि मुक्त भी उस भगवान के साथ दिखाई देते हैं और वह अक्षरधाम भी भगवान की मूर्ति के साथ ही दिखाई देता है। यद्यपि ये सब भगवान के साथ ही रहते हैं, तथापि परमेश्वर अपने भक्त मनुष्यों की ही सेवा को स्वीकार करते हैं, और वे अपने भक्तों के मिट्टी और पत्थरों से बनाए गए घरों में विराजमान होते हैं। उनके श्रद्धालु भक्त जो धूप, दीप और अन्नवस्त्रादि अर्पित करते हैं, उन्हें भगवान प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लेते हैं। वह इसलिए कि इससे अपना मनुष्य सेवक दिव्यरूपधारी पार्षदों की पंक्ति में सम्मिलित हो!

“अतः भक्तजन भगवान की सेवा में जिन-जिन वस्तुओं को समर्पित करते हैं, वे सभी वस्तुएँ भगवान के धाम में दिव्यरूप हो जाती हैं और वे भक्त भी दिव्यरूप होकर भगवान के धाम को प्राप्त करते हैं। अतः ऐसा अचल-अखंड सुख अपने भक्तजनों को दिलाने के लिए ही भगवान भक्तों की समस्त सेवाओं को स्वीकार करते हैं। अतएव, भगवद्भक्तों को यह समझ लेना है कि भगवान का स्वरूप अक्षरधाम सहित पृथ्वी पर विराजमान रहता है और भगवान के भक्तों को दूसरे लोगों के सामने भी इसी प्रकार वार्ता करनी चाहिए।”१०२

॥ इति वचनामृतम् ॥ ७१ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


१०१. यहाँ निर्देशित अक्षरधाम अर्थात् भगवान स्वामिनारायण के साथ पृथ्वी पर पधारे हुए संत सद्‌गुरुवर्य गुणातीतानंद स्वामी थे। जिनकी पहचान स्वयं श्रीहरि ने बारबार करवाई थी। इसी कारण वे संप्रदाय में अपने ही समय में ‘अक्षरब्रह्म’ एवं ‘वचनामृत-रहस्य के ज्ञाता’ के रूप में प्रसिद्ध हुए थे।

१०२. इस पृथ्वी पर अक्षर सहित पुरुषोत्तम अर्थात् गुणातीतानंद स्वामी के साथ श्रीहरि सर्वदा प्रकट रहते हैं। इसी ज्ञान को ब्रह्मस्वरूप शास्त्रीजी महाराज ने इन दोनों की मूर्तियों की स्थापना करके मूर्तिमान बनाया।

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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