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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ७२

माहात्म्ययुक्त निश्चय

संवत् १८७६ में चैत्र कृष्णा एकादशी को (९ अप्रैल, १८२०) स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के समीप उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर पूर्व की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे और उनके समक्ष सभा में मुनिजन तथा विभिन्न स्थानों के हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय मुक्तानन्द स्वामी ने कहा कि, “हे महाराज! कल आपने दादाखाचर के सामने बहुत सुन्दर बातें कही थीं, उसे सुनने की हम सबको बहुत इच्छा है।”

तब वह बात बताते हुए श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिस भगवद्भक्त को भगवान का माहात्म्यसहित निश्चय हो, तथा जो सन्त एवं सत्संगी का माहात्म्य बहुत अच्छी तरह जानता हो, उस भक्त का कर्म एवं काल यदि कठिन हो, फिर भी उस भक्त के भीतर भक्ति का अतिशय बल होने से काल तथा कर्म एकसाथ मिलकर भी उसका अहित नहीं कर सकते। जिसको भगवान और उनके सन्त के प्रति निष्ठा में कुछ न्यूनता होगी, तो भगवान स्वयं भी उसका भला चाहे, तब भी उसका भला नहीं होगा।

“और, जो गरीबों को सताता है, उसका तो कभी भी भला नहीं हो पाता। जैसे कि महाभारत में भीष्म पितामह ने राजा युधिष्ठिर से ऐसा कहा है कि, ‘यदि तुम गरीबों को सताओगे तो तुम अपने वंश के साथ जलकर भस्म हो जाओगे।’ इसलिए भगवान के भक्त अथवा अन्य किसी भी गरीब को लेशमात्र भी दुःख नहीं देना। क्योंकि गरीब को त्रास देनेवाले का भला कभी भी नहीं होगा। यदि गरीब को दुःख दिया, तो उसे सतानेवाले पर ब्रह्महत्या के समान पाप लगता है। इसी प्रकार, किसी के सिर पर मिथ्या कलंक लगाना भी ब्रह्महत्या के समान ही पाप है। यदि कोई वास्तविक रूप से कलंकित हो, तो भी उस व्यक्ति को एकान्त में बुलाकर उसका भला हो, ऐसी हितकारी बात कहना, किन्तु उसकी फजीहत नहीं करना।

“और, जो पुरुष पाँच प्रकार की स्त्रियों का धर्म भंग करता है, तो उसे भी ब्रह्महत्या जैसा पाप लगता है। पाँच प्रकार की स्त्रियों में प्रथम वह है, जो शरण में आई हो, दूसरी अपनी स्त्री हो जो व्रत-उपवास के दिन पति-संग नहीं करना चाहती हो, तीसरी पतिव्रता स्त्री, चौथी विधवा स्त्री, और पाँचवीं विश्वासी स्त्री। यदि ऐसी स्त्रियों के साथ व्यभिचार किया गया, तो अपराध करनेवाले पुरुष पर ब्रह्महत्या का पाप लगता है। उनमें भी विधवा स्त्री का मन यदि कुमार्गगामी हो गया, तो उसे समझाकर भी धर्माचरण को ओर मोड़ देना।”

इसके बाद समस्त मुनि भगवान के शृंगारिक पद गाने लगे, उसे सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “भगवान जीव के कल्याण के लिए ही देह धारण करते हैं। तब उनकी जो क्रियाएँ मनुष्योचित होती हैं, उन्हें देखकर भगवद्भक्त उन्हें चरित्र-लीला ही समझता है, किन्तु विमुख जीव अथवा अपरिपक्व भक्त ऐसे चरित्रों में दोष ही देखते हैं। जैसे शुकजी ने रासपंचाध्यायी का वर्णन किया, तब राजा परीक्षित को संशय उत्पन्न हुआ, फिर उन्होंने शुकदेवजी से पूछा कि, ‘भगवान तो धर्म की मर्यादा स्थापित करने के लिए प्रकट हुए थे, तब उन्होंने परस्त्री का संग करके धर्मभंग क्यों किया?’ इस प्रकार उन्होंने भगवान की लीला में दोष देखा, परन्तु शुकजी ने पूर्णरूप से सोच-विचार करके भगवान का गुणगान किया था कि कामदेव ने ब्रह्मादिक देवताओं को जीतकर अपने वश में कर लिया तो उसे अत्यन्त गर्व हो गया। उस गर्व को दूर करने के लिए भगवान ने कामदेव को ललकारा। जिस प्रकार कोई बलवान राजा अपने शत्रु को अपनी ओर से गोला-बारूद दिलवाकर उसके साथ लड़ने जाता है, उसी प्रकार भगवान ने कामदेवरूपी शत्रु को लड़ने का सामान पहले से ही दिलवा दिया। वह क्या? तो जब स्त्री के साथ सम्बंध होता है, तब कामदेव का बल बढ़ता है। विशेषकर शरदऋतु की रात्रियों में कामदेव के बल में अधिक वृद्धि हो जाया करती है। उस समय स्त्री के रागरंगमय विलास के शब्द सुनने, उसका रूप देखने और स्पर्श करने से कामदेव का बल अत्यधिक बढ़ जाता है। श्रीकृष्ण भगवान ने यह सब सामान कामदेव को देकर उस पर विजय प्राप्त कर ली और वे अखंड ब्रह्मचारी के समान ऊर्ध्वरेता रहे। इस प्रकार भगवान ने कामदेव के गर्व का मूलोच्छेद कर दिया। ऐसा अलौकिक सामर्थ्य भगवान के सिवा अन्य किसी में हो ही नहीं सकता। इस प्रकार, शुकजी ने भगवान का महान सामर्थ्य जानकर उनका चरित्र गान किया, जबकि राजा परीक्षित को यह बात समझ में नहीं आई, इस कारण उन्होंने भगवान में दोष देखा।

“अतः यदि कोई आप से यह कहे कि आप परमहंस होने पर भी शृंगारिक भजन क्यों गाते हैं? तो उसे बताना चाहिए कि, ‘यदि हम शृंगारिक भजन नहीं गाते, और भगवान की शृंगार-लीलाओं के सम्बंध में दोष देखेंगे, तो हम भी राजा परीक्षित तथा अन्य नास्तिक-विमुख जीवों की पंक्ति में मिल जाएँगे। इसीलिए, हम विमुख जीवों की पंक्ति में सम्मिलित नहीं हो सकते, क्योंकि समस्त परमहंसों के गुरु शुकजी ने स्वयं भगवान की शृंगार-लीला का गुणगान किया है, अतएव हमें भी भगवान का गुणगान अवश्य करना है।’

“और, जो पुरुषोत्तम भगवान क्षर-अक्षर से परे हैं, वे जब जीवों के कल्याण के लिए ब्रह्मांड में मनुष्यरूप धारण करके विचरण करते हैं, तब वे मनुष्यों के समान ही समस्त लीला दिखाते हैं। जिस प्रकार मनुष्यों में जय, पराजय, भय, शोक, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, आशा, तृष्णा तथा ईर्ष्या आदि मायिक स्वभाव होते हैं, वैसे ही स्वभाव भगवान भी अपने स्वरूप में दिखलाते हैं। वास्तव में भगवान की ऐसी समस्त लीलाएँ जीवों के कल्याण के लिए ही होती हैं। फिर जो भक्त हैं, वे इन लीलाओं का गान करके परमपद को प्राप्त करते हैं, किन्तु विमुख जीव उन लीलाओं में दोष देखते हैं। जिस प्रकार भगवान क्षर की आत्मा हैं, वैसे ही वे प्रकृति-पुरुष से परे रहेनेवाले अक्षरब्रह्म की भी आत्मा हैं तथा क्षर-अक्षर को अपनी शक्ति द्वारा धारण किए हुए हैं। और वे स्वयं तो क्षर-अक्षर से भिन्न हैं। तथा भगवान की महिमा ऐसी अपरंपार है कि, जिनके एक-एक रोम के छिद्र में अनन्तकोटि ब्रह्मांड परमाणु के समान रह रहे हैं, ऐसे अत्यन्त महान भगवान जीवों के कल्याण के लिए मनुष्य जैसे हो जाते हैं, तब जीवों को सेवा करने का अवसर मिलता है।

“और यदि भगवान जैसे हैं, वे वैसे के वैसे ही बने रहें, तो ब्रह्मांड के अधिपति ब्रह्मादिक देवों में भी भगवान के दर्शन और सेवा करने का सामर्थ्य नहीं रहता। तब मनुष्यों में तो ऐसा सामर्थ्य रहेगा ही कैसे? जैसे वड़वानल अग्नि समुद्र में रहती है और वह उसके जल को पीती है तथा समुद्र द्वारा बुझाने पर भी वह नहीं बुझ पाती, ऐसी महान वडवानल अग्नि यदि हमें घर में दीपक की आवश्यकता होने पर हमारे घर में आ बैठे, तो हमें वह अग्नि दीपक के समान सुखकारी नहीं लगेगी, अपितु उससे जलकर सब भस्म हो जाएँगे। परन्तु वही अग्नि यदि दीपक का स्वरूप ग्रहण कर ले, तब प्रकाश भी होता है और सुख भी होता है। वस्तुतः दीपक भी वही अग्नि है, जो फूँक मारने और हाथ हिलाकर बुझाने पर बुझ जाती है, ऐसी असमर्थ है। परन्तु उसी के द्वारा हमें सुख मिलता है, परन्तु वड़वानल से ऐसा सुख नहीं मिलता। उसी प्रकार भगवान मनुष्य जैसे असमर्थ दिखाई देते हों, परन्तु अनेक जीवों का कल्याण उनके द्वारा ही होता है। यदि भगवान अपने एक-एक रोम में अनन्तकोटि ब्रह्मांड दिखा दें, तो ऐसी (ऐश्वर्ययुक्त) मूर्ति का दर्शन करने के लिए जीव समर्थ भी नहीं हो पाता। अतः ऐसे (विशाल) रूप द्वारा कल्याण नहीं होता।

“इसलिए भगवान मनुष्यरूप धारण करके जैसी-जैसी लीलाएँ करते हैं, वे सब चरित्र, गान करने योग्य हैं, परन्तु ऐसा नहीं समझना चाहिए कि, ‘भगवान होकर भी वे ऐसा क्यों करते हैं?’ भगवान की समस्त लीलाओं को कल्याणकारी ही समझना चाहिए, यही भक्त का धर्म है तथा ऐसा समझनेवाला ही भगवान का पूर्ण भक्त कहलाता है।”

इसके पश्चात् रोजका के हरिभक्त काकाभाई ने पूछा, “जिसे बिना माहात्म्य का निश्चय हो जाता है उसके कौन से लक्षण हैं, और जिसे माहात्म्य सहित निश्चय होता है उसके कौन से लक्षण हैं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “जिसे माहात्म्य रहित निश्चय हुआ है, उसे ऐसे संकल्प होते हैं कि, ‘भगवान तो मिले हैं, परन्तु यह कौन जानता है कि हमारा कल्याण होगा या नहीं?’ तथा जिसे माहात्म्य सहित निश्चय हो गया है, वह यह समझने लगता है कि, ‘जिस दिन से मुझे भगवान के दर्शन हुए हैं, उसी दिन से मेरा कल्याण हो चुका है तथा जो जीव श्रद्धापूर्वक मेरे दर्शन करेंगे तथा मेरे वचनों का पालन करेंगे, उनका भी कल्याण हो जाएगा, तब मेरा कल्याण होने में क्या संशय रहेगा? मैं तो कृतार्थ हूँ, और जो कुछ साधना करता हूँ, वह भगवान की प्रसन्नता के लिए ही करता हूँ।’ जो भक्त ऐसा समझने लगता है, मान लीजिए कि उसे भगवान का माहात्म्य सहित निश्चय हो चुका है।”

फिर काकाभाई ने पूछा कि, “भगवान के उत्तम, मध्यम तथा कनिष्ठ कहे जानेवाले तीन प्रकार के भक्तों के क्या लक्षण होते हैं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “जो भक्त स्वयं को देह से भिन्न रहनेवाली आत्मा का रूप मानता है तथा जड़ता, दुःख, मिथ्यापन और अपवित्रता आदि इस देह के गुणों को आत्मा के गुण नहीं मानता, और अछेद्य, अभेद्य एवं अविनाशी आदि आत्मा के गुणों को देह में नहीं मानता; और, अपने शरीर में रहनेवाली जीवात्मा को देखता है, उस आत्मा में स्थित परमात्मा को भी देखता है, तथा दूसरे लोगों की देहों में रहनेवाली आत्मा को भी देखता है, ऐसा सामर्थ्य रखने पर भी वह केवल आत्मदर्शन से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण भगवान तथा उनके सन्त को समझता है। स्वयं को आत्मदर्शन हुआ है, उसका लेशमात्र भी अभिमान नहीं करता, ऐसे जिसके लक्षण हों, उसी को उत्तम भक्त कहते हैं।

“अब, भगवान का निश्चय तथा आत्मनिष्ठा दोनों होने पर भी जिसे भगवद्भक्त पर ईर्ष्या बनी रहती हो, एवं यदि भगवान उसका अपमान कर दें, तो भगवान के प्रति भी ईर्ष्या उत्पन्न हो कि, ‘वे बड़े होकर भी, बिना दोष के ही ऐसा व्यवहार क्यों करते होंगे?’ ऐसे लक्षण वाले को मध्यम कोटि का भक्त समझना। तथा, भगवान का निश्चय तो हो, परन्तु आत्मनिष्ठा न हो, तथा भगवान से तो प्रीति हो, किन्तु इसके साथ-साथ सांसारिक व्यवहार के कारण भी उसे हर्ष एवं शोक प्रभावित करते हों, तो उसे कनिष्ठ भक्त समझना।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ७२ ॥

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