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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ७३

काम पर विजय

संवत् १८७६ में चैत्र कृष्णा अमावस्या (१२ अप्रैल, १८२०) को रात्रि के समय स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में अपने निवास स्थान में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे, सफ़ेद चादर ओढ़ी थी और श्वेत फेंटा मस्तक पर बाँधा था। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में मुक्तानन्द स्वामी आदि चार बड़े साधु तथा लगभग पचास हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय गोपालानन्द स्वामी ने प्रश्न किया कि, “काम का क्या स्वरूप है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “वीर्य ही काम का स्वरूप है।”

बाद में यह शंका की कि, “वीर्य तो सात धातुओं में से एक धातु है। अतः इसे ही काम का स्वरूप कैसे कहा जा सकता है, तथा उस वीर्य की उत्पत्ति कैसे होती है?”

तब श्रीजीमहाराज ने कहा, “मनोवहा नामक नाड़ी में मन रहता है और मन में जब स्त्री सम्बंधी संकल्प होता है तब वीर्य शरीर में से मथकर मनोवहा नाड़ी में एकत्र होकर शिश्न द्वारा उसी प्रकार आ जाता है, जिस तरह मथानी द्वारा दही को मथे जाने पर घी तैरता हुआ ऊपर आ जाता है। जिनका वीर्य शिश्नद्वार पर नहीं आता, उन्हें ऊर्ध्वरेता पुरुष तथा नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहा जाता है। और, श्रीकृष्ण भगवान ने रासक्रीड़ा के समय स्त्रियों के साथ रहने पर भी वीर्यपात नहीं होने दिया था, इसीलिए उन्हें ऊध्वरेता ब्रह्मचारी कहा गया और उन्होंने ‘काम’ को जीत लिया। अतएव, वीर्य ही काम का स्वरूप है। जिसने वीर्य को जीतकर अपने वश में कर लिया है, वही काम पर विजय प्राप्त करने में समर्थ हो पाता है।”

फिर गोपालानन्द स्वामी ने पूछा, “जब इस देह को जला दिया जाता है, तब सप्त धातुएँ भी देह के साथ जल जाती हैं। ऐसी स्थिति में, यदि वीर्य को ही काम का रूप माना जाए, तो शरीर के साथ ही वीर्य जल जाने से काम को भी जल जाना चाहिए, तब इस जीव के अन्य देह में जाने पर काम क्यों उत्पन्न होता है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “वीर्य तो सूक्ष्म शरीर के साथ ही रहता है और उस सूक्ष्म शरीर के योग से स्थूल शरीर उत्पन्न हो जाता है। उदाहरणार्थ, भूत (प्रेत) का शरीर सूक्ष्मरूप से होता है, किन्तु जब वह सूक्ष्म देह में से स्थूल शरीर को धारण करके स्त्री का संग करता है, तब उस स्त्री को भूत से बालक उत्पन्न होता है। इसीलिए, वीर्य सूक्ष्म शरीर के साथ ही रहता है।”

फिर गोपालानन्द स्वामी ने पूछा कि, “शिवजी यद्यपि ऊर्ध्वरेता थे, फिर भी मोहिनी रूप को देखकर वीर्यपात हो गया था। वैसे ही, जिसकी देह में वीर्य होता है, उसे जाग्रत अथवा स्वप्नावस्था में स्त्री का योग होने पर वीर्यपात हुए बिना नहीं रह सकता। इसलिए, जब तक देह में वीर्य रहेगा तब तक किसी को भी निष्कामी कैसे कहा जा सकता है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “शिवजी की योगकला में इतनी कमी कही जाती है। जिसे जाग्रत अथवा स्वप्न अवस्था में स्त्री सम्बंधी संकल्पों के कारण वीर्यपात होता है, तो उसे पक्का ब्रह्मचारी नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः, इस संसार में दृढ़ ब्रह्मचर्य वाले तो एकमात्र नरनारायण ऋषि ही हैं। हमें उनका ही आश्रय है। उनके प्रताप से धीरे-धीरे उनका भजन करके हम लोग भी उनके समान निष्कामी हो जाएँगे। देह में जो वीर्य रहता है, उसे जला डालने के लिए योगी कितने ही प्रकार के यत्न करते रहते हैं; और, श्रीकृष्ण भगवान ने स्त्रियों के संग में रहकर भी नैष्ठिक ब्रह्मचर्य जो दृढ़ रखा था, ऐसा सामर्थ्य भगवान में ही हो सकता है, परन्तु दूसरे तो इस प्रकार नहीं रह सकते। अतएव, अन्य योगियों को जाग्रत अथवा स्वप्नावस्था तक में स्त्री-सम्बंधी संकल्प न होने देने के लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए।”

फिर शुकमुनि ने पूछा कि, “द्वारिका में भगवान की सोलह हजार एक सौ आठ स्त्रियाँ थीं, उनमें से प्रत्येक स्त्री को दस-दस पुत्र हुए तथा एक-एक पुत्री हुई, ऐसा भी कहा गया है। उसे किस प्रकार समझना चाहिए?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “द्वारिका और व्रज की बात एक-दूसरे से भिन्न है। द्वारिका में भगवान ने सांख्यमत का आश्रय लिया था। जैसे कि सांख्यमत का अनुसरण करनेवाला अपने स्वरूप को देह, इन्द्रियों तथा मन से भिन्न समझता है और समस्त क्रियाओं को करते हुए भी स्वयं को अकर्ता मानता है। उन क्रियाओं द्वारा उसे हर्ष-शोक भी नहीं प्राप्त होता। भगवान ने भी उसी मत को अंगीकार किया था, इसलिए भगवान को निर्लिप्त कहा गया है। और, द्वारिका में भगवान ने जिस सांख्यमत का आश्रय ग्रहण किया था, वह जनक जैसे राजाओं का मत है। जो राजा गृहस्थाश्रम में रहकर प्रभु का भजन करते रहते हैं, वे सांख्यमतानुयायी होते हैं। इसी प्रकार भगवान भी गृहस्थाश्रम में रहे थे और द्वारिका के राजा कहलाते थे। इसलिए, वे सांख्यमतावलम्बी होने के कारण निर्लेप रहे थे।

“और, वृन्दावन में उन्होंने योगकला का आश्रय ग्रहण किया था, इस कारण स्त्रियों का संग करके भी नैष्ठिक ब्रह्मचर्यव्रत रखा था। इस स्थान पर उन्होंने स्वयं में नरनारायण ऋषि का भाव दिखलाया। यह कथा श्रीमद्भागवत में है। जिसमें कपिलदेव ने देवहूति के प्रति कहा है कि, ‘स्त्रीरूप में मेरी जो माया है, उसे जीतने में नरनारायण ऋषि के सिवा अन्य कोई भी समर्थ नहीं है।’ इसी कारण श्रीकृष्ण भगवान ने स्त्रियों के संग में रहने पर भी काम को जीत लिया था।

“और, जब दुर्वासा ऋषि पधारे तो भगवान ने समस्त गोपियों से वहाँ खाद्य पदार्थों से भरे हुए थाल ले जाने के लिए कहा। तब गोपियाँ बोलीं कि, ‘हम यमुनाजी को किस प्रकार पार कर सकेंगे?’ श्रीकृष्ण भगवान ने कहा कि, ‘यमुनाजी से इस प्रकार कहना कि, “यदि श्रीकृष्ण सदैव बालब्रह्मचारी रहे हों तो हमें मार्ग दे दीजिए।”’ बाद में, गोपियाँ जब इस प्रकार बोलीं तब यमुनाजी ने मार्ग दे दिया। समस्त गोपियाँ जब ऋषि को भोजन करा चुकीं, तब वे बोली कि, ‘हमारे जाने के मार्ग में यमुनाजी हैं, तो हम अपने घर किस प्रकार जा पायेंगी?’ तब ऋषि ने पूछा कि, ‘वहाँ से आते समय किस प्रकार आई थीं?’ गोपियों ने बताया कि, ‘हमने यमुनाजी से ऐसा कहा था कि, “यदि श्रीकृष्ण सदैव ब्रह्मचारी रहे हों, तो हमें मार्ग दे दीजिए।” इसलिए यमुनाजी ने हमें मार्ग दे दिया था, परन्तु अब घर किस तरह जाएँ?’ तब दुर्वासा ऋषि बोले कि, ‘इस बार यमुनाजी से यह कहना कि, “यदि दुर्वासा ऋषि सदा उपवासी रहे हों, तो हमें मार्ग दे दीजिए।”’ जब गोपियों ने यमुनाजी से इस प्रकार कहा, तब यमुनाजी ने उन्हें मार्ग दे दिया। इस पर गोपियों को अत्यन्त आश्चर्य हुआ, परन्तु वे भगवान तथा दुर्वासा ऋषि की महिमा को नहीं जान सकीं। वास्तव में भगवान ने नैष्ठिक व्रत रखकर गोपियों के साथ क्रीड़ा की थी, इसलिए वे ब्रह्मचारी थे। किन्तु दुर्वासा ऋषि विश्वात्मा श्रीकृष्ण भगवान में अपनी आत्मा की एकता करके गोपियों द्वारा लाए गए समस्त थालों के खाद्य पदार्थों को अंगीकार कर गए थे, इस कारण वे भी उपवासी ही थे, क्योंकि समस्त खाद्य पदार्थ उन्होंने वस्तुतः भगवान को ही खिला दिए थे।

“अतः महापुरुषों की क्रियाएँ समझ में नहीं आतीं। यदि सांख्यमतावलम्बियों को खोजा जाए तो वे सहस्रों की संख्या में मिल जाएँगे, परन्तु योगकला द्वारा ऊर्ध्वरेता रहनेवाले तो एकमात्र नरनारायण ही हैं, अथवा नरनारायण के जो अनन्य भक्त होते हैं, वे भी नरनारायण के भजन के प्रताप से दृढ़ ब्रह्मचर्यवाले हो जाते हैं, किन्तु दूसरे लोग ऐसे नहीं हो सकते। तथा जिसके इन्द्रियद्वार से जाग्रत अथवा स्वप्नावस्था में वीर्यपात होता है, वह ब्रह्मचारी नहीं कहलाता। और, जो पुरुष आठ प्रकार से स्त्री का त्याग रखता है, उसने ब्रह्मचर्य के मार्ग पर चलना शुरू किया है, अतः वह नरनारायण के प्रताप से धीरे-धीरे ब्रह्मचारी हो जाएगा।

“और, जब हमारी शैशवावस्था थी, तब हमने यह सुना था कि वीर्य तो पसीने द्वारा भी निकल जाता है। तब हमने वीर्य को ऊर्ध्वगामी रखने के लिए दो प्रकार की जलबस्ति१०३ सीखी थी तथा कुंजरक्रिया१०४ की शिक्षा पाई थी। और, काम को जीतने के लिए कई आसन सीखे थे। तथा रात्रि में गोरख आसन१०५ में शयन किया करते थे, जिससे स्वप्नावस्था में भी वीर्यपात नहीं हो पाए। फिर तो काम को जीतने का ऐसा उपाय किया कि शरीर से पसीना ही नहीं निकले तथा ठंड और धूप भी न लगे। बाद में हम रामानन्द स्वामी के पास आए तब स्वामी ने पसीना निकले इसलिए हमारे शरीर पर ‘अर्बूर’ नामक वनस्पति का लेप लगवाया, उसी की पट्टियाँ भी लगवाईं, फिर भी देह में पसीना नहीं आया। अतः काम पर विजय प्राप्त करने की साधना अत्यन्त कठिन है। जिसे भगवान के स्वरूप की उपासना का सुदृढ़ संबल रहता है तथा जिसमें पंचविषयों में से किसी भी विषय की वासना बिल्कुल नहीं रहती और निर्वासनिक रहने की भावना अत्यन्त दृढ़ हो चुकी हो, वही पुरुष भगवान के प्रताप से निष्कामी होता है।”

फिर नित्यानन्द स्वामी ने पूछा कि, “निर्वासनिक होने के लिए ऐसी बात सुनना आवश्यक है, या वैराग्य की जरूरत होती है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “अकेला वैराग्य नहीं टिक सकता; अन्ततो गत्वा वह नष्ट हो जाता है। और, व्यक्ति को जब आत्मनिष्ठा तथा भगवान की मूर्ति का यथार्थ ज्ञान होता है, फिर वह आलोचना करे कि, ‘मैं आत्मा हूँ, तथा सच्चिदानन्दरूप हूँ। और पिंड-ब्रह्मांड मायिक एवं नाशवान हैं, इसलिए मेरे साथ इस पिंड-ब्रह्मांड की तुलना कैसे की जा सकती है? तथा मेरे इष्टदेव पुरुषोत्तम भगवान अनन्तकोटि ब्रह्मांडों के आधार अक्षर से भी परे हैं तथा उन भगवान का मुझे दृढ़ आश्रय हुआ है।’ ऐसी आलोचना से जो वैराग्य उदित होता है, वह ज्ञानयुक्त कहलाता है तथा उस वैराग्य का किसी भी काल में नाश नहीं होता। जैसे जलती हुई आग पर जल के गिर जाने से वह बुझ जाती है, किन्तु समुद्र में स्थित बड़वानल अग्नि पानी से बुझाए जाने पर भी नहीं बुझती। वैसे ही ज्ञानयुक्त वैराग्य बड़वानल अग्नि और बिजली की अग्नि जैसा होता है। ऐसा वैराग्य कभी भी नहीं नष्ट होता! ऐसे वैराग्य के बिना अन्य वैराग्य विश्वसनीय नहीं है।

“और, हमारे भीतर जो वैराग्य है वह बिजली की अग्नि तथा बड़वानल के सदृश है। सो हमारे स्वभाव को तो जो भक्त हमारे साथ बहुत दिनों तक रहे होंगे वही पहचानते हैं, और जो हमसे दूर रहते हैं उन्हें हमारे स्वभाव का परिचय नहीं होता! जैसे ये मुकुन्द ब्रह्मचारी भोले-भाले दिखाई पड़ते हैं, फिर भी वे हमारे स्वभाव को यथार्थरूप से जानते हैं कि, ‘महाराज तो आकाश के समान निर्लिप्त हैं और उनके लिए न तो कोई अपना है और न ही कोई पराया है!’ यदि मुकुन्द ब्रह्मचारी हमारे इस स्वभाव को इस प्रकार समझते हैं, तो ईश्वर के समान गुण ब्रह्मचारी में दिख रहे हैं। तथा अन्तर्यामी (भगवान) सबमें विद्यमान रहकर प्रत्येक स्त्री-पुरुष के अन्तःकरण में इस प्रकार प्रतीति दे रहे हैं कि, ‘(मुकुन्द) ब्रह्मचारी में किसी भी प्रकार का दोष नहीं है!’ ऐसे दिव्य गुणों के उदय होने का कारण यह है, कि सत्पुरुष के स्वरूप में जो निर्दोष बुद्धि रखता है, वह समस्त दोषों से रहित हो जाता है। और जो सत्पुरुष में दोष देखा करते हैं, उन दोष देखनेवालों की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, और कामादिक समस्त शत्रु उनके हृदय में आकर निवास करते हैं। तत्पश्चात् सत्पुरुष के प्रति दोषदृष्टि रखनेवाले के हृदय को सदैव अशुभ संकल्प पीड़ा देते रहते हैं और सत्संग करते हुए भी उसका दुःख नहीं मिटता। और, जो बुद्धिमान हैं, वे हमारे समीप रहने के कारण हमारे समग्र स्वभाव को अच्छी तरह जानते हैं कि, ‘संसार में मोह उत्पन्न करनेवाले धन, स्त्री, अलंकार तथा खाद्य-पेयादिक जो पदार्थ हैं, उनसे महाराज का कोई भी लगाव नहीं है और महाराज सबसे उदासीन रहते हैं। यदि वे किसी को कृपा करके अपने पास में बैठने देते हैं या उसके समक्ष ज्ञानवार्ता करते हैं, तो वह केवल उस मनुष्य के कल्याण के लिए ही दया करके ऐसा करते हैं।’

“और, जो मूर्ख होते हैं, वे हमारे पास रहने या दूर रहने पर भी हमारे स्वभाव को इस तरह नहीं जान पाते। और यह बात भी उन्हीं भक्तों की समझ में आती है जिसे आत्मनिष्ठा की दृढ़ता हो, तथा आत्मा में परमेश्वर की मूर्ति को धारण करके उसकी भक्ति करता रहता हो, इसके साथ ही वह स्वयं ब्रह्मरूप हो गया हो फिर भी वह भगवान की उपासना का त्याग नहीं करता।

“इस प्रकार, आत्मनिष्ठा तथा भगवान की मूर्ति की महिमा को समझ लेने से किसी भी पदार्थ में वासना नहीं रहती। और वासना के टल जाने के बाद वह अपने प्रारब्धानुसार सुख-दुःख को अवश्य भोगता है, परन्तु उसकी इन्द्रियों की तीक्ष्णता मिट जाती है। और, मनोमय चक्र की धाराएँ जो इन्द्रियाँ हैं, वे ब्रह्म तथा उनसे परे परब्रह्म का साक्षात् दर्शन होने से कुंठित हो जाती हैं। जैसे किसी ने ढेर सारे नींबू को चूस लिए हों, और उसके दाँत खट्टे पड़ गए हों, ऐसी दशा में उसे चने चबाने पड़ें, तो भी वह किसी तरह उन्हें चबा नहीं सकता। और उसे बहुत अधिक भूख लगी हो, तो चने निगलकर गले के नीचे भले ही उतार दे, परन्तु वे चबाये नहीं जा सकते। वैसे ही जिसने आत्मा तथा भगवान की यथार्थ महिमा जान ली हो, उसे संसार के किसी भी विषय सुख में आनन्द नहीं आता। और, प्रारब्ध रहने तक यद्यपि वह खान-पान आदि सभी भोगों को अवश्य भोगता है, परन्तु जिस तरह दाँतों के खट्टे पड़ जाने के कारण चनों को निगल जाने के लिए बाध्य होना पड़ता है, उसी प्रकार वह भोगों को भोगता है।

“और, वासना को मिटाना भी अत्यन्त कठिन कार्य है। वासना तो समाधिनिष्ठ होने पर भी रह जाती है। समाधि लगने के बाद ब्रह्म के स्वरूप से पुनः देह में किसी भी प्रकार लौटा नहीं जाता। फिर भी यदि कोई वापस लौटता है, तो उसके तीन कारण होते हैं। प्रथम कारण यह है कि जिसे सांसारिक सुख की यदि कोई वासना रह गई हो, तो वह समाधि से लौटकर पुनः देह में आता है।

“दूसरा कारण यह है कि कोई अति समर्थ हो और समाधिस्थ हो गया, तो वह अपनी इच्छा से पुनः देह में वापस लौटता है।

“तीसरा कारण यह है कि कोई अपने से भी अति सामर्थ्यवान हो, तो वह इसे समाधि से पुनः देह में ले आता है। इन तीन कारणों से ही जीव का इस देह में प्रत्यावर्तन होता है। जब समाधि लग जाती है, तो उसमें ब्रह्म का दर्शन होता है, और कोटि-कोटि सूर्यों के समान ब्रह्म का प्रकाश देखने पर यदि वह अपनी अल्पबुद्धि के कारण प्रत्यक्ष पुरुषोत्तम भगवान की मूर्ति में किसी प्रकार की न्यूनता मान लेता है तथा ब्रह्म में अधिक महत्ता मान लेता है, तब उपासना भंग हो जाती है।

“अतः प्रत्यक्ष मूर्ति में अत्यन्त दृढ़ निश्चय होना ही चाहिए, तभी समस्त कार्य सम्पन्न हो जाते हैं। हमने भी ऐसा दृढ़ निश्चय किया है कि जो कोई हमको समर्पित होते हुए अपना मन अर्पण कर देता है, और लेशमात्र भी पर्दा हमारे साथ नहीं रखता, तो हम भी उसमें किसी भी बात की कमी नहीं रहने देते हैं।”

फिर मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “जिसने मन अर्पित कर दिया हो उसके कैसे लक्षण होते हैं, और मन न देनेवाले के कैसे लक्षण दिखाई देते हैं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिसने अपना मन अर्पित कर दिया हो वह परमेश्वर की कथा हो रही हो तथा उनका दर्शन होता हो, तब स्वयं उपस्थित न रह सका तो अपने हृदय में अत्यंत दुःखी होता है। भगवान के श्रवण में भगवान की कथा और उनके दर्शन में अधिकाधिक प्रीति होती रहे, परन्तु कथा एवं दर्शन से उसका मन पीछे नहीं हटता। जब परमेश्वर किसी को परदेश भेजने की आज्ञा करते हों, तब मन अर्पण करनेवाले के हृदय में ऐसी भावना हो आती है कि, ‘यदि भगवान मुझे आदेश दें तो मैं बुरहानपुर तथा काशी में जहाँ-कहीं भी भेजें, वहाँ प्रसन्न मन से जाऊँ।’ इस प्रकार परमेश्वर की रुचि में रहकर जो स्वयं प्रसन्न रहता हो, वह यदि सहस्रों कोस दूर हो, फिर भी हमारे पास ही है! परन्तु जिसने इस प्रकार मन अर्पित नहीं किया हो, वह हमारे अत्यन्त निकट रहने पर भी लाखों कोस दूर है! जिसने हमें मन अर्पित न किया हो, उसे उपदेश देने में भी हमें भय रहता है कि क्या मालूम, यह सीधा समझेगा या उलटा! इस प्रकार जिसने मन अर्पण किया हो या न अर्पण किया हो, उसके लक्षण हैं।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ७३ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


१०३. जल में नाभि तक खड़े रहकर गुदा द्वारा जल को खिंचकर और बस्ति (नाभि से निचले भाग) को धोकर उसे निकाल डालना चाहिए, अर्थात् गुदामार्ग से चढ़ाये गए जल को गुदा द्वारा ही बाहर निकाल देना, उसे बस्तिक्रिया का एक प्रकार कहा जाता है। लिंग द्वारा पानी को चढ़ाने के बाद उसे फिर से लिंग द्वारा ही अथवा गुदामार्ग से बाहर निकाल देना, इसे बस्तिक्रिया का दूसरा प्रकार कहा गया है।

१०४. सर्व प्रथम मुख से जल पीकर उसका फिर से मुँह के जरिये ही वमन कर डालना, उसे गजकरणी क्रिया कहा जाता है और उसको कुंजरक्रिया भी कहते हैं।

१०५. भद्रासन को ही गोरक्षासन कहते हैं। वृषण (अंडकोश) के नीचे के लिंगसूत्र के दोनों पार्श्वभागों में गुल्फा को रखना चाहिए, उसमें वाम गुल्फा को लिंग के नीचे के सूत्र के बाँये भाग में और दक्षिण गुल्फा को उस सूत्र के दक्षिण भाग में रखना चाहिए तथा सूत्र के पार्श्वभाग के समीप रखे हुए दोनों पैरों को दोनों हाथों से, जो पश्चिम की ओर लोम-विलोम किए हुए रहें, ग्रहण करना चाहिए। इस क्रिया को उत्तम भद्रासन कहा गया है।

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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