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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ७४

भगवान की इच्छा ही सर्वोपरि

संवत् १८७६ में वैशाख शुक्ला एकादशी (२४ अप्रैल, १८२०) को प्रातःकाल स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे नीमवृक्ष के नीचे चबूतरे पर रखे हुए पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

तब श्रीजीमहाराज बोले, “जिसे जितना वैराग्य होता है तथा जिसकी जितनी समझ होती है, उसका पता तब चलता है, जब किसी विषयभोग की प्राप्ति हो अथवा संकटकाल की स्थिति उपस्थित हो! इन दोनों के बिना व्यक्ति की कैसी समझ है, वह मालूम नहीं होता। यदि उसे अधिक सम्पत्ति अथवा भीषण विपत्ति आ जाए, तब तो बात ही क्या करनी! परन्तु इन दादाखाचर पर जब थोड़ा-सा संकटकाल घिर आया था, तब जिसका जैसा अन्तःकरण रहा होगा, वैसा सबको विदित हुआ होगा।”

इसके पश्चात् मुक्तानंद स्वामी ने कहा कि, “भगवान के भक्त के प्रति हृदय में स्नेह और सहानुभूति तथा उसका पक्ष हमें रहता तो है, किन्तु वह भी इस विचार से रहता है कि यदि सत्संग की उन्नति होती है तो बहुत लोगों को सद्भाव होता है। किन्तु यदि सत्संग की कुछ अवनति हुई, तो बहुतों को असंतोष होगा। इसी विचार से हमें हर्ष या विषाद के भाव प्रभावित करते हैं।”

तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “हम तो श्रीकृष्ण नारायण के दास हैं, उनकी पसंद में ही हमें प्रसन्न रहना चाहिए। यदि श्रीकृष्ण भगवान की इच्छा होगी तो सत्संग की वृद्धि होगी, और यदि उनकी घटाने की इच्छा होगी तो वह घट जाएगा। और, वे भगवान हमें कदाचित् हाथी पर बैठायें, तो हमें हाथी पर बैठकर प्रसन्न रहना है; यदि वे हमें गधे पर बैठायें तो उस पर बैठकर भी खुश रहना है। लेकिन उन भगवान के चरणारविन्दों के सिवा अन्यत्र कहीं भी प्रीति नहीं रखनी चाहिए। और, भगवान की इच्छा के अनुसार जैसे-जैसे सत्संग की वृद्धि होती रहे, उस तरह प्रसन्न रहना चाहिए। फिर चाहे भगवान की इच्छा से पूरा संसार सत्संगी बन जाए, अथवा उनकी इच्छा के अनुसार समूचा सत्संग समाप्त हो जाए, फिर भी मन में किसी प्रकार का हर्ष या शोक नहीं रखना चाहिए। भगवान का किया ही सब कुछ होता है। अतः जिस प्रकार सूखा पत्ता वायु के झोंके से संचारित रहता है, उसी प्रकार भगवान के अधीन रहकर आनन्द के साथ परमेश्वर का भजन करते रहना, और मन में किसी भी तरह का उद्वेग नहीं आने देना चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ७४ ॥

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