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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ७६

क्रोधी, ईष्यालु, कपटी एवं मानी व्यक्ति

संवत् १८७६ में प्रथम ज्येष्ठ शुक्ला एकादशी (२३ मई, १८२०) को श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज अपने निवासस्थान में विराजमान थे। वे श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष कुछ बड़े-बड़े साधु बैठे थे।

उस समय श्रीजीमहाराज ने उनके समक्ष वार्ता कही कि, “क्रोधी, ईर्ष्यालु, कपटी तथा मानी, ये चार प्रकार के मनुष्य हरिभक्त होने पर भी उनके साथ हमारी नहीं बनती! और, क्रोध एवं ईर्ष्याभाव दोनों मान के आधार पर रहते हैं। तथा कामी का तो हमें भी विश्वास ही नहीं होता कि ‘यह सत्संगी है।’ कामी पुरुष सत्संग में रहते हुए भी विमुख जैसा रहता है। किन्तु जिसे पंचव्रतमानों में किसी भी प्रकार की कमी न हो, तथा उसे हम चाहे जितनी कठिन आज्ञा करें तथा उसको अपनी पसन्द का सोचा हुआ विचार छुड़ाकर उसे हमारी अपनी रुचि के अनुसार रखें, फिर भी वह जीवनपर्यन्त ग्लानि-मुक्त रहे, वही पक्का सत्संगी है। ऐसे हरिभक्त पर हमें सहज ही बिना स्नेह किए ही स्नेह उमड़ पड़ता है। किन्तु जिसमें ऐसे गुण न हों, उस पर यदि हम स्नेह करने का यत्न भी करें फिर भी स्नेह नहीं होता। हमारा यही स्वभाव है कि जिसके हृदय में भगवान की ऐसी परिपूर्ण भक्ति होती है, उस पर ही स्नेह होता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ७६ ॥

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