share

॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ७८

देशकाल आदि की प्रधानता

संवत् १८७७ में आषाढ़ शुक्ला तृतीया (१३ जुलाई, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत धोती धारण की थी, सफ़ेद चादर ओढ़ी थी, मस्तक पर श्वेत पाग बाँधी थी और कंठ में सफ़ेद पुष्पों का हार पहना था। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा विभिन्न स्थानों के हरिभक्त बैठे थे।

फिर श्रीजीमहाराज बोले कि, “समस्त सन्त सुनिए, एक प्रश्न पूछते हैं।”

सन्तों ने कहा कि, “पूछिए, महाराज!”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “देश, काल, क्रिया, संग, मन्त्र, देवता का ध्यान, दीक्षा तथा शास्त्र, ये आठ शुभ हों तो पुरुष की बुद्धि निर्मल होती है, और यदि ये आठों अशुभ हों तो उसकी बुद्धि भ्रष्ट होती है। इसलिए, इन आठों में पूर्व संस्कारजन्य कर्मों की कुछ प्रबलता है या नहीं?”

तब मुनि बोले कि, “पूर्वकर्मों का प्रभाव अवश्य मालूम होता है। यदि पूर्वकर्म शुभ हों, तो पवित्र देश में जन्म होता है तथा अशुभ कर्म हों, तो अशुभ देश में जन्म होता है। वैसे ही कालादिक भी सात हैं, उनमें भी पूर्व-कर्मानुसार योग बन जाता है। इसलिए, इन सब बातों में पूर्वकर्मों की प्रधानता दिखाई पड़ती है। देशकालादिक आठ बातों की प्रधानता तो अमुक जगह पर रहती है, किन्तु पूर्वकर्मों का प्राधान्य सभी स्थानों पर दिखाई पड़ता है।”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “देश, काल से लेकर देवताओं तक, परमेश्वर पर्यन्त सभी के सम्बंध में यदि आप पूर्वकर्मों की प्रधानता बताते हैं, तो यह बात किन शास्त्रों के आधार पर प्रतिपादित करते हैं, उनके वचनों के प्रमाण देकर सुनाइए। क्योंकि कर्मों की प्रधानता एकमात्र जैनशास्त्र में बताई गई है, अन्य शास्त्रों में नहीं। अन्य शास्त्रों में परमेश्वर तथा उनके भक्तों के संग की ही प्रधानता को बताया गया है। परन्तु, आप तो पूर्वकर्मों का ही प्रतिपादन करते हैं। इसीलिए आप ऊपर से सत्संगी और गुप्त रीति से नास्तिक हैं क्या? क्योंकि, नास्तिकों के सिवा, दूसरे लोग कर्मों का प्रतिपादन नहीं करते। नास्तिकजन वेदों, शास्त्रों, पुराणों और महाभारत आदि इतिहासों को मिथ्या समझते हैं। वे मागधी भाषा के अपने ग्रन्थों को ही सच्चा मानते हैं। इसलिए, वे मूर्ख होते हुए कर्मों का प्रतिपादन करते हैं।

“यदि पूर्वकर्मों द्वारा ही देश, काल से लेकर देवता पर्यन्त आठ तत्त्व परिवर्तित होते हों, तो मारवाड़ के कितने ही पुण्यात्मा राजाओं के लिए एक सौ हाथ गहरा पानी एकदम ऊपर क्यों नहीं आ गया? यदि पूर्वकर्मों के अधीन देश रहे, तो पुण्य कर्मवालों के लिए पानी ऊँचाई पर आ जाना चाहिए और पापी के लिए पानी गहरा हो जाना चाहिए। परन्तु, ऐसा तो होता नहीं। मारवाड प्रदेश में सर्वत्र सबके लिए गहरा पानी ही निकलता है, भले ही वे पापी हों या पुण्यात्मा, किन्तु वह प्रदेश अपने गुण का त्याग नहीं करता। इसलिए, देशकालादि कभी पूर्वकर्मों के अनुसार परिवर्तित नहीं होते हैं। अतएव, अपने कल्याण की इच्छा रखनेवाले को नास्तिकों की तरह कर्मों के बल पर नहीं रहना चाहिए और आठ अशुभ देशकालादि का त्याग करके आठ शुभ देशकालादि का सेवन करते रहना चाहिए।

“और, देश तो स्थान के रूप में अच्छा या बुरा हो सकता है, और अपना शरीररूपी देश भी शुभाशुभ हो सकता है। जब शरीररूपी शुभ देश में जीव रहता हो, तब उसमें शील, सन्तोष, दया, धर्म आदि कल्याणकारी गुण बने रहते हैं, परन्तु जब देहरूपी अशुभ देश में यह जीव रहता हो, तब काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि अशुभ गुणों की वृद्धि होती है। और, अच्छे-बुरे संग की पहचान यह है कि जिसका संग हो, उसके साथ किसी भी प्रकार का अन्तर न रहे। तभी यह समझ लेना कि उसके साथ पूरा संग हो गया। यद्यपि दिखाने के लिए तो बाहर से शत्रु को भी गले मिलते हैं, परन्तु हृदय में अपने और उसके बीच लाखों कोसों का अन्तर रहता है। इसी प्रकार बाह्य संग को वास्तविक संग नहीं कहा जा सकता। वास्तविक संग तो उसे ही कहा जाता है, जो मन, कर्म तथा वचन द्वारा किया जाए। अतः मन, कर्म, वचन द्वारा सत्संग परमेश्वर और उनके भक्त का ही करना चाहिए, ताकि जीव का कल्याण हो, परन्तु पापी का संग कभी भी नहीं करना।”

इसके पश्चात् श्रीजीमहाराज ने मध्याह्न के समय सभी छोटे विद्यार्थी साधुओं को अपने समीप बुलवाया और उनसे कहा कि, “तुम सब विद्यार्थी मुझसे प्रश्न पूछो।”

तब बड़े शिवानन्द स्वामी ने पूछा कि, “जिसे भगवान का अचल निश्चय हो वह किस प्रकार पहचाना जा सकता है?”

श्रीजीमहाराज बोले, “जिसे अचल निश्चय होता है, वह तो भगवान यदि भली-बुरी किसी भी प्रकार की क्रिया करें, तो भी इन सब क्रियाओं को कल्याणकारी समझता है। यदि भगवान की कभी जीत हो या हार, अथवा किसी स्थान से उन्हें भागना पड़े या कभी प्रसन्न हो जाएँ या कभी शोकग्रस्त हो जाएँ, ऐसी अनन्त प्रकार की भगवान की क्रियाओं को देखकर निश्चयवाला भक्त यही कहता है कि, ‘प्रभु की ये समस्त क्रियाएँ कल्याण के लिए हैं।’ इस कोटि का भक्त जब कभी बोले, तब वह इसी प्रकार अपने उद्‌गार प्रकट करता रहे, ऐसा जो भक्त हो, तो उसे परिपक्व निश्चयवाला समझ लेना चाहिए।”

इसके पश्चात् निर्मानानन्द स्वामी ने पूछा, “भगवान और उनके सन्त के प्रति दोषबुद्धि न होने देने का क्या उपाय है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “जैसा कि पहले भी बताया जा चुका है कि जिस भक्त को भगवान सम्बंधी अचल निश्चय होता है, उसे भगवान के सम्बंध में किसी भी प्रकार की दोषबुद्धि नहीं होती तथा वह ऐसे बड़े भगवान के सेवक की महिमा पर जब विचार करता है, तब उसके मन में भगवद्भक्त के प्रति अवगुण देखने की कोई भावना उत्पन्न नहीं होती।”

फिर निर्मानानन्द स्वामी तथा छोटे प्रज्ञानानन्द स्वामी, दोनों ने मिलकर पूछा कि, “जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति, इन तीनों अवस्थाओं में भगवान की मूर्ति को निरंतर कैसे देखा जा सकता है?”

तब श्रीजीमहाराज ने कहा, “किसी का पूर्वजन्म का कोई शुभ संस्कार प्रबल रहे, तो उसे भगवान की मूर्ति तीनों अवस्थाओं में निरंतर दिखाई पड़ती है अथवा जिसके अंतर में भय, काम अथवा स्नेह के भाव निरंतर विद्यमान रहते हों उसे भगवान के सिवा अन्य वस्तुएँ भी तीनों अवस्थाओं में निरन्तर दिखाई देने लगती हैं, तब भगवान दिखाई पड़ें इसमें तो कहना क्या? ये तो दीखते ही हैं।”

फिर छोटे शिवानन्द स्वामी ने पूछा कि, “सत्संग में जिसकी नींव अविचल हो, उसे किस प्रकार पहचाना जाता है? एक तो यह प्रश्न है, और दूसरा प्रश्न यह है कि मान, काम, क्रोध, लोभ, मद, मत्सर तथा ईर्ष्या आदि शत्रु किस प्रकार नष्ट हो सकते हैं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिस पुरुष को सत्संग का पक्ष (तरफ़दारी) अत्यन्त दृढ़ रूप से हो, वह किसी के भी द्वारा हो रही सत्संग की निन्दा-टीका को सहन नहीं कर सकता। जैसे किसी व्यक्ति को अपने कुटुंबीजनों के साथ झगड़ा हो गया, ऐसी स्थिति में भी यदि कोई उन कुटुंबीजनों को भला-बुरा कहेगा, तो वह उन आक्षेपों को बिल्कुल सहन नहीं करता। इस प्रकार जैसा सम्बंधियों का पक्ष है, वैसे ही सत्संगी का पक्ष रहे, तो समझना कि इसकी नींव सत्संग में अविचल हो चुकी है।

“तथा दूसरे प्रश्न का उत्तर यह है कि जिसने सत्संग का ऐसा पक्ष सुदृढ़ रखा है, वह सन्त अथवा सत्संगी के प्रति अहंभाव, मत्सर एवं ईर्ष्या-भाव कैसे रख सकता है? अतः जिसे सत्संग का पक्ष प्रबल रहता है, उसके अहंभाव, मद, मत्सर तथा ईर्ष्या आदि समस्त शत्रुओं का नाश हो जाता है। परन्तु जिसे सत्संगी के प्रति पक्ष-भावना न हो, और जो सत्संगी एवं कुसंगी को समान स्तर पर देखता हो, वह सत्संग में कितना ही बड़ा (अग्रणी) कहलाता हो, फिर भी वह आखिर में निश्चितरूप से विमुख हो जाता है।”

फिर छोटे आत्मानन्द स्वामी ने पूछा, “भगवान और उनके सन्त किसी को निःसंकोच होकर जो भी कहना हो, कह डालते हैं और उसकी ओर से उन्हें ऐसा भरोसा होता है कि इसका चाहे कितना ही सम्मान करेंगे अथवा तिरस्कार करेंगे तो भी यह किसी भी प्रकार से सत्संग से पीछे नहीं हटेगा। ऐसा भरोसा भगवान तथा उनके सन्त को मुमुक्षु के ऊपर किस प्रकार हो सकता है? एक प्रश्न तो यह है। दूसरा प्रश्न यह है कि जिस सन्त के पास रहते हों, उसका अपने प्रति जैसा स्नेह रहता है, वैसा ही प्रेमभाव अन्य समस्त सन्तों का हम पर किस प्रकार रह सकता है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “शिवानन्द स्वामी के प्रश्न का जैसा उत्तर दिया गया है वैसा ही उत्तर इस प्रश्न पर भी लागू होता है कि जिसका सत्संग का पक्ष सुदृढ़ होता है, उसको कुछ भी कहने में भगवान और उनके सन्त को संदेह नहीं होता और उस पर किसी भी तरह ऐसा अविश्वास नहीं होता कि, ‘यदि इसे कुछ कहेंगे तो यह सत्संग से चला जाएगा।’ इसकी ओर से तो दृढ़ विश्वास ही होता है कि, ‘इसका सत्संग अचल है।’ अतः यदि हम इससे कुछ भी कहेंगे तो उसकी कोई चिन्ता नहीं है।

“दूसरे प्रश्न का उत्तर यह है कि जो भक्त प्रथम जिस सन्त के पास रहता हो, उस संत से उसे कोई अनबन हो गई, तब वह जब दूसरे सन्त के पास जाकर रहता है, उस समय वह पहले वाले सन्त के विरुद्ध किसी के द्वारा भी निंदा सुनकर उस निंदा को सहन न कर सकता! तब अन्य साधुओं को भी ऐसी धारणा हो जाएगी कि, ‘यह कृतघ्नी नहीं है। इसने जिसके साथ रहकर चार अक्षर पढ़े हैं, उसका गुण (उपकार) नहीं छोड़ता है, इसलिए यह बहुत अच्छा साधु है।’ यह जानकर सभी साधु उस पर अपना स्नेह बनाए रखेंगे। परन्तु यदि वह प्रथम जिसके पास रहा था, उसे छोड़कर दूसरे साधुओं के पास गया, और जब वह पहले वाले सन्त की निन्दा करेगा, तो समस्त साधुओं को ऐसा प्रतीत होगा कि, ‘यह कृतघ्न पुरुष है। अतः जब हमारे साथ भी इसकी नहीं पटेगी तब यह हमारी भी निन्दा करेगा। इस कारण उस पर किसी का भी स्नेह नहीं रहेगा।”

फिर दहरानन्द स्वामी ने पूछा कि, “भगवान अक्षरातीत हैं, और मन एवं वाणी से परे हैं, सबके लिए अगोचर हैं; फिर भी वे सबको प्रत्यक्ष दिखते हैं, इसका क्या कारण है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “अक्षरातीत तथा मन-वाणी से परे और अगोचर रहनेवाले भगवान स्वयं कृपा करके ऐसा संकल्प करते हैं कि, ‘मृत्युलोक के सभी ज्ञानी-अज्ञानी पुरुष मुझे देखें।’ इसीलिए, सत्य संकल्पवाले भगवान मृत्युलोक के समस्त मनुष्यों के लिए अपना दर्शनीय स्वरूप धारण करते हैं।”

फिर त्यागानन्द स्वामी ने पूछा कि, “भगवान किस प्रकार प्रसन्न होते हैं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “जो व्यक्ति भगवान को प्रसन्न करने का इच्छुक हो, उसे शारीरिक सुख की इच्छा नहीं करनी चाहिए तथा भगवान के दर्शन का भी लोभ नहीं रखना चाहिए और भगवान जैसी आज्ञा दें वैसा ही करना चाहिए। भगवान को प्रसन्न करने का यही उपाय है।”

फिर लक्ष्मणानन्द स्वामी ने प्रश्न किया कि, “भगवान और उनके सन्त का संग आश्चर्यसदृश कैसे समझें, तथा आठों प्रहर आनन्द ही आनन्द तथा अहोभाव की स्थिति किस प्रकार हो सकती है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जो भक्त ऐसा समझता है कि, ‘ये भगवान और ये सभी सन्त वैकुंठ, गोलोक तथा ब्रह्मपुर के निवासी हैं। ऐसे सन्त तथा परमेश्वर जहाँ विराजमान हैं, वहीं पर वे सब धाम हैं तथा उन सन्त के साथ मेरा निवास हुआ है, यह मेरा अति महान सौभाग्य है।’ इस तरह जो समझता है, उसे आठों प्रहर आश्चर्यवत् स्थिति बनी रहती है और वह आठों प्रहर आनन्दसागर में तैरता रहता है।”

फिर परमानन्द स्वामी ने पूछा कि, “श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध में सन्त के जो तीस लक्षण बताए गए हैं, वे किस उपाय द्वारा सिद्ध हो सकते हैं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “तीस लक्षणयुक्त जो सन्त हों, उनमें गुरुबुद्धि तथा देवबुद्धि रखकर मन, कर्म एवं वचन द्वारा उनका संग करे, तब ऐसे संत के संगी में ये तीस लक्षण आते हैं। तथा समस्त शास्त्रों में भी ऐसा कहा गया है कि: ‘जो सन्त का सेवन करता है वह सन्त के समान हो जाता है।”

फिर शान्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “एक भक्त तो ऐसा है जो भगवान के स्वरूप में अखंड वृत्ति रखता है, तथा दूसरा भक्त भगवान का भजन-स्मरण करने के साथ-साथ स्वयं कथा-कीर्तन करता है और उन्हें सुनता भी है। इन दो प्रकार के भगवद्भक्तों में कौन-सा भक्त श्रेष्ठ है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिसे निर्विकल्प समाधि लग जाती हो और अपनी देह की सुधबुध न रहती हो, वह यदि कथा-कीर्तन न भी करे, तो भी श्रेष्ठ है। और, जिसे शारीरिक स्थिति का भान रहता हो, और भजन में से स्वयमेव उठकर खाने-पीने की समस्त दैहिक क्रियाएँ करता हो और यदि भगवान के कथा-कीर्तन नहीं करता हो तथा न सुनता हो, तो उसकी अपेक्षा भगवान के कथा-कीर्तन करनेवाला और सुननेवाला पुरुष ही श्रेष्ठ होता है।”

फिर आधारानन्द स्वामी ने पूछा कि, “किस प्रकार का आचरण करने पर भगवान तथा उनके सन्त प्रसन्न होते हैं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “पंचव्रतों का पूर्णरूप से पालन किया जाए और उसमें किसी भी तरह की कमी न आने दी जाए, तो भगवान तथा उनके सन्त प्रसन्न हो जाते हैं, इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है।”

फिर वेदान्तानन्द स्वामी ने प्रश्न किया कि, “पहले जिसका कुछ अनुचित आचरण रहा हो, तो उसे ऐसा कौन-सा उपाय करना चाहिए, जिससे उस पर भगवान तथा उनके सन्त प्रसन्न हो जाएँ?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “मुमुक्षु को अपने बुरे स्वभावों को भगवान तथा उनके सन्त को अप्रसन्न करनेवाले ऐसे स्वभावों के साथ शत्रुभाव रखना चाहिए। जब ऐसा वैरभाव हो, तब जिसका, जिसके साथ वैर होता है, उसकी जानकारी समस्त जगत को हो जाती है, अतः सन्त को भी मालूम हो जाता है कि इसको अपने स्वभावों से वैर हो गया है। सन्त तो स्वभावों के वैरी होते ही हैं; अतः वे अपने मुमुक्षु के पक्ष में शामिल होकर उस पर दया करते हैं और ऐसा उपाय बताते हैं, जिससे उन स्वभावों पर विजय हो। अतएव, जिस स्वभाव के कारण अपनी फ़जीहत हुई हो, उस स्वभाव के साथ दृढ़तापूर्वक वैर बांधकर, जब तक उसका मूलोच्छेद हो, तब तक उपाय करना चाहिए। ऐसा करने पर भगवान और उनके सन्त पूर्ण दया करते हैं। और जब हरि की तथा उनके भक्तों की जिस पर दया होती है, उसके हृदय में अतिशय सुख बना रहता है और कल्याण के मार्ग पर चलने का सामर्थ्य भी बढ़ जाता है, और अपने काम, क्रोध, लोभादिक शत्रुओं की शक्ति क्षीण हो जाती है। अतः जिसके हृदय में जो शत्रु अत्यधिक पीड़ा पहुँचाता हो, उसके साथ पूर्ण रूप से शत्रुता रखी जाए, तो परमेश्वर उसकी सहायता करते हैं। इसलिए, अपने कामादिक शत्रुओं के साथ अवश्य ही वैरभाव रखना चाहिए। और, अपने आन्तरिक शत्रुओं के साथ वैर करने में अत्यधिक लाभ होता है।”

फिर भगवदानन्द स्वामी ने पूछा, “हे महाराज! भगवान के पास बैठकर उनकी जितनी मर्यादा रहती है, वैसी की वैसी मर्यादा दूर जाने पर भी बनी रहे। वह क्या समझने पर बनी रहती है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “भगवान का माहात्म्य यदि पूर्ण रूप से समझ लिया जाए, तो भगवान की जो मर्यादा उनके पास में रहने पर बनी रहती है, वैसे ही उनसे दूर जाने पर भी रह सकती है। वह माहात्म्य इस प्रकार से समझें कि, ‘अक्षरातीत जो पुरुषोत्तम भगवान हैं, उनकी इच्छा से अनन्तकोटि ब्रह्मांडों की उत्पत्ति होती है और वे उन ब्रह्मांडों को अपनी शक्ति द्वारा धारण किये रहते हैं। और, वे भगवान व्यतिरिक्त रहते हुए भी सबमें अन्वयभाव से रहते हैं तथा वे अन्वय होते हुए भी व्यतिरेक हैं। वे भगवान जैसे प्रत्यक्षप्रमाण हैं, वैसे के वैसे ही अणु-अणु में अन्तर्यामी रूप से विराजमान हैं। ऐसे भगवान की इच्छा के बिना एक तिनका भी हिलने-डुलने में समर्थ नहीं हो पाता तथा अनन्तकोटि ब्रह्मांडों में जो उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते हैं, और उनमें जीवों को सुख-दुःख प्राप्त होते हैं, यह सब कुछ पुरुषोत्तम भगवान के नियंत्रण में है। भगवान जितना कुछ करना चाहते हैं, उतना ही होता है। ऐसे समर्थ भगवान जब जीवों के कल्याण के लिए पृथ्वी पर पधारते हैं, तब वे घोड़े पर बैठते हैं, और घोड़ा भगवान को अपनी पीठ पर उठकर चलता है, परन्तु ये तो घोड़े के भी आधार हैं, और जब वे पृथ्वी पर बैठे हों, तो ऐसा लगता है कि पृथ्वी भगवान को धारण कर रही है, परन्तु वे तो स्थावर-जंगम सहित समग्र पृथ्वी को धारण कर रहे हैं। और, रात्रि हो, तब चन्द्रमा, दीपक या मशाल के प्रकाश से भगवान का दर्शन होता है, और दिवस में सूर्य के प्रकाश से उनका दर्शन होता है, परन्तु वह भगवान तो सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि इन सभी को प्रकाश प्रदान करते हैं। उनमें ऐसा अद्भुत सामर्थ्य है, फिर भी वे जीवों के कल्याण के लिए, मनुष्य जैसे होकर मुझे दर्शन देते हैं।’ इस प्रकार माहात्म्य समझें, तब जैसी मर्यादा उनके पास में रहने पर रहती है, वैसी ही मर्यादा उनके दूर जाने पर भी रह सकती है।”

फिर भगवदानन्द स्वामी ने दूसरा प्रश्न पूछा, “भगवान के किए बिना कुछ भी नहीं होता, सब भगवान का ही किया हुआ होता है, तब भगवान को और भगवान के भक्त को जब कुछ बूरे देशकाल के योग से दुःख प्राप्त होता है, उस दुःख को भगवान क्यों नहीं टालते हैं? और उन्हें टालने के मनसूबे क्यों किया करते हैं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “भगवान जब मनुष्यदेह धारण करते हैं तब उनकी यही रीति रहती है कि मनुष्य के सदृश समस्त व्यवहार करते हैं, परन्तु अपने अलौकिक सामर्थ्य को प्रकट नहीं करते हैं। इस प्रकार, सभी शास्त्रों में भगवान की लीलाएँ बताई गई हैं। इसलिए, जब भगवान कुछ नई लीलाएँ करें तो संशय करिएगा, किन्तु जहाँ तक वे पूर्व अवतारों जैसी लीलाएँ करें, वहाँ तक किसी भी प्रकार का संदेह नहीं करना।”

फिर निर्मलानन्द स्वामी ने पूछा, “किस प्रकार समझने से प्रभु के संत की महिमा अच्छी तरह विदित हो सकती है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “भगवान के मत्स्य, कच्छप, वराह, वामन, परशुराम तथा रामकृष्णादि अनेक अवतारों की महिमा पर विचार करना चाहिए कि, ‘जिन भगवान ने रामकृष्णादि अवतारों के द्वारा असंख्य जीवों का उद्धार किया है, उन भगवान के ये सन्त हैं और उनके सत्संग का लाभ मुझे मिला है, अतः मैं भी बड़ा सौभाग्यशाली हूँ।’ इस प्रकार समझने से सन्त की महिमा दिन-प्रतिदिन बहुत अच्छी तरह मालूम होती है।”

फिर नारायणानन्द स्वामी ने पूछा, “स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण, इन तीनों देह में जीव अन्वय भाव से किस तरह है, एवं व्यतिरेक भाव से किस प्रकार रहता है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जब देह में सुखों-दुःखों का योग होता है, तब जीव ऐसे सुख-दुःखों को अपने में मान लेता है, तब वह अन्वयभाव से रहता है, और जब इन तीनों देहों के सुख-दुःखों से जीव स्वयं को भिन्न समझता है, तब वह व्यतिरेकभाव से रहता है।”

फिर शून्यातीतानन्द स्वामी ने पूछा कि, “जब कोई सत्संग करता है, तब सन्त तथा सत्संगी में उसको अत्यन्त स्नेह हो जाता है, किन्तु कुछ समय के बाद उसमें कमी क्यों आ जाती है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “प्रथम तो सन्त में उसकी अलौकिक मति रहती है और बाद में वह सन्त का अल्प दोष देखकर अपनी कुबुद्धि से अधिक दोष मान लेता है। इस कारण उसकी असद्वासना हो जाती है, जिसके फलस्वरूप सन्त के प्रति विद्यमान भाव में न्यूनता हो जाती है। इसलिए, यदि वह विवेकपूर्वक असद्वासना को टाल दे, तो वह पहले जैसा शुद्ध था, वैसा शुद्ध हो जाता है; और यदि वह असद्वासना को नहीं मिटाता है, तो आखिर वह विमुख हो जाता है।”

फिर प्रसादानन्द स्वामी ने पूछा कि, “जीव के लिए मोक्ष का उपाय क्या है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “जिस प्रकार सन्त कहें, उसी तरह निःसंशय होकर किया करे, वही जीव के मोक्ष का उपाय है।”

फिर त्रिगुणातीतानन्द स्वामी ने पूछा कि, “जहाँ देश, काल, क्रिया और संग की विषमता रहे, तब वहाँ कैसा उपाय करना चाहिए?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “जहाँ देशादि विषम हो जाए, वहाँ तो सुरक्षित रहने का यही उपाय है कि वहाँ से जिस-किसी भी तरह भागकर स्वयं को मुक्त कर लेना।”

फिर छोटे निर्विकारानन्द स्वामी ने पूछा कि, “यद्यपि भगवान के प्रति निश्चय है, फिर भी असद्वासना क्यों नहीं मिटती?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “भगवान का माहात्म्य यथार्थरूप से नहीं समझा है, इसलिए असद्वासना नहीं मिटती है।”

फिर बड़े योगानन्द स्वामी ने पूछा कि, “यद्यपि भगवान का निश्चय परिपूर्ण है, फिर भी भगवान तथा उनकी कथा में रुचि उत्पन्न क्यों नहीं होती?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “भगवान का जैसा माहात्म्य है, वैसा इस जीव की समझ में नहीं आया है। और, यदि भगवान का यथार्थरूप से माहात्म्य समझ में आ जाए, तो भगवान के सिवा दूसरों में स्नेह करने पर भी स्नेह नहीं होता, और एकमात्र भगवान तथा भगवान के सन्त एवं भगवान के कथा-कीर्तन में ही अचल प्रीति होती है।”

फिर प्रतोषानन्द स्वामी ने पूछा कि, “भगवान की भक्ति किस प्रकार अचल रह सकती है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “चतुर्व्यूह अर्थात् अनिरुद्ध प्रद्युम्न, संकर्षण एवं वासुदेव तथा केशवादिक चौबीस मूर्तियों और वराहादि अवतारों के कारण जो प्रत्यक्ष श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं, उनकी महिमा को जो अत्यधिक समझ लेता है उसके लिए भगवान की श्रवणादिक नवधा भक्ति निश्चल रहती है।”

इस प्रकार, समस्त मुनियों के प्रश्नों का उत्तर देने के पश्चात् श्रीजीमहाराज ने सबसे पूछा कि, “काम, क्रोध तथा लोभ, ये तीनों ही नरक के द्वार हैं। इनमें से जिसको जिसने अधिकाधिक जीत लिया हो, उसके सम्बंध में आप सब बताएँ।”

तब, जिनको जिस बात की अतिशय दृढ़ता थी, उसके अनुसार उन्होंने उत्तर दिया। उन मुनियों के वचनों को सुनकर श्रीजीमहाराज अत्यन्त प्रसन्न हुए। तथा, उन्होंने आत्मानन्द स्वामी, योगानन्द स्वामी, भगवदानन्द स्वामी और शिवानन्द स्वामी को प्रसन्नतापूर्वक हृदय में अपने चरणारविन्द प्रदान किए और कहा कि, “जैसे महानुभावानन्द स्वामी आदि जो बड़े साधु हैं, उनके साथ ये चार साधु भी महान हैं। इसलिए, इनका किसी के भी द्वारा अपमान नहीं करने देना।”

इस प्रकार मुक्तानन्द स्वामी आदि बड़े साधुओं को आदेश देकर श्रीजीमहाराज ‘जय सच्चिदानन्द’ कहकर अपने निवास पर भोजन करने के लिए पधारे।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ७८ ॥

* * *

This Vachanamrut took place ago.

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

Type: Keywords Exact phrase