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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

सारंगपुर १

मन को जीतने का उपाय

संवत् १८७७ में श्रावण कृष्णा पंचमी (२८ अगस्त, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीसारंगपुर ग्राम-स्थित जीवाखाचर के राजभवन में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे।

तब मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा, “‘जितं जगत् केन मनो हि येन।’१०९ इस श्लोक में यह कहा गया है कि जिसने अपने मन को जीत लिया है, उसने समस्त जगत पर विजय प्राप्त कर ली है; सो मन जीता गया हो, वह कैसे प्रतीत हो सकता है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध नामक पंचविषयों से जब इन्द्रियाँ पीछे हट जाती हैं और किसी भी विषय को प्राप्त करने की इच्छा नहीं रह जाती, तब समस्त इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं। और, जब इन्द्रियाँ विषयों का स्पर्श ही नहीं करती हैं, तब मन भी इन्द्रियों तक नही पहुँचता और हृदय में ही बना रहता है। इस प्रकार, जिसने पंचविषयों का अत्यन्त दृढ़ परित्याग कर दिया है, तो समझना कि उसने मन को जीत लिया है। यदि विषयों से कुछ भी लगाव है, तो विजित मन को भी जीता गया नहीं समझना चाहिए।”

फिर मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “विषयासक्ति की निवृत्ति का कारण वैराग्य है या परमेश्वर के प्रति प्रीति है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “विषयासक्ति की निवृत्ति का एक कारण आत्मनिष्ठा है तथा दूसरा कारण माहात्म्यसहित भगवान सम्बंधी ज्ञान है। दोनों में आत्मनिष्ठा की समझ ऐसी है कि, ‘मैं चैतन्य हूँ, देह जड है, मैं शुद्ध हूँ, देह नरकरूप है, मैं अविनाशी हूँ, देह नाशवान है तथा मैं आनन्दरूप हूँ और देह दुःखरूप है।’ इस तरह जब अपनी आत्मा को समस्त प्रकार से देह से अतिशय विलक्षण समझता है, तब वह देह को अपना रूप मानकर विषयों से प्रीति करता ही नहीं। इस प्रकार, आत्मज्ञान द्वारा विषयों की निवृत्ति हो जाती है।

“और, भगवान की महिमा को इस प्रकार समझे कि, ‘मैं आत्मा हूँ और मुझे जो प्रत्यक्ष भगवान मिले हैं वे परमात्मा हैं। और, गोलोक, वैकुंठ, श्वेतद्वीप, ब्रह्मपुर तथा अनन्तकोटि ब्रह्मांडों के अधिपति जो ब्रह्मादि देव हैं, उन सबके स्वामी, जो श्रीपुरुषोत्तम भगवान हैं, वह मुझे प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त हुए हैं। और, वे मेरी आत्मा में भी निरन्तर विराजमान हैं। और, ऐसे भगवान का जो एक निमेषमात्र का दर्शन हो, उस पर अनन्तकोटि ब्रह्मांडों के सभी विषयसुखों को न्योच्छावर कर दें, फिर भगवान के एक रोम में जितना आनन्द समाया है, उतना आनन्द अनन्तकोटि ब्रह्मांडों के विषयसुखों को इकट्ठा करने पर भी उनके कोटि के एक भाग के बराबर भी नहीं होता। और, भगवान के अक्षरधाम की तुलना में अन्य देवताओं के लोकों को ‘मोक्षधर्म’ में नरकतुल्य बताया गया है। ऐसे भगवान मुझे प्रकट रूप से मिले हैं, तब उन्हें छोड़कर नरककुंड जैसे विषयसुखों की इच्छा मैं क्यों करूँ? क्योंकि विषयसुख केवल दुःखरूप ही है।’

“इस प्रकार भगवान के माहात्म्य को जानने से विषयासक्ति की निवृत्ति होती है। ऐसा जो आत्मज्ञान एवं परमात्मा का ज्ञान है, उसके द्वारा जो वैराग्य प्रकट होता है, उस वैराग्य से समस्त विषयसुखों की वासना निवृत्त हो जाती है। और, जिसने इस प्रकार समझकर विषयी-सुखों का परित्याग कर दिया है, उसे पुनः विषयों में प्रीति होती ही नहीं। उसी का मन जीता हुआ कहा जाता है। और, ऐसे ज्ञान के बिना भले ही उसे भगवान में अधिक स्नेह दिखता हो, परन्तु किसी अच्छे विषय-सुख प्राप्त होने पर भगवान को छोड़कर विषय में उसकी प्रीति हो जाती है, अथवा पुत्र-स्त्री आदि से प्रीति हो जाती है; या रोगादि सम्बंधी पीड़ा के समय, अथवा पंच-विषयों के सुख नष्ट हो जाने पर भगवान से प्रीति नहीं रहती और वह व्याकुल हो जाता है। जैसे कुत्ते का पिल्ला छोटा होने पर सुन्दर दिखाई पड़ता है, वैसे ही ऐसे पुरुष की भगवद्भक्ति पहले अच्छी दिखती है, परन्तु अन्त में शोभनीय नहीं रहती।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १ ॥ ७९ ॥

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१०९. मणिरत्नमाला: ११

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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