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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ८

भगवान एवं सन्त की सेवा

संवत् १८७६ में मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी (२७ नवम्बर, १८१९) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्वेत वस्त्र धारण करके विराजमान थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष साधुओं तथा स्थान-स्थान के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “इन्द्रियों की जो क्रियाएँ हैं, उन्हें यदि श्रीकृष्ण भगवान तथा उनके भक्त की सेवा में लगाए रखें, तो अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है तथा जीव के अनन्तकाल के पापों का नाश हो जाता है। जो इन्द्रियों की वृत्तियों को स्त्री आदि विषयों में लगाए रखता है, उसका अंतःकरण भ्रष्ट हो जाता है और कल्याण-मार्ग से उसका पतन हो जाता है । इसलिए शास्त्रों में जिस प्रकार विषयों को भोगने का निर्देश दिया गया है, उसी प्रकार नियम में रहकर उनका उपभोग करना चाहिए, परन्तु शास्त्रों की मर्यादा का उल्लंघन करके उनका उपभोग नहीं करना चाहिए। इसके साथ ही साधुओं का संग करना चाहिए और कुसंग का परित्याग कर देना चाहिए। इस प्रकार कुसंग का त्याग करने से और साधुओं का सत्संग करने से ‘मैं देह हूँ’ ऐसी अहंबुद्धि निवृत्त हो जाती है तथा देह के सम्बंधियों के प्रति ममत्वबुद्धि का भी लोप हो जाता है, भगवान के प्रति असाधारण प्रीति हो जाती है और भगवान के सिवा अन्य सांसारिक विषयों से वैराग्य हो जाता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ८ ॥

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