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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

सारंगपुर २

भगवान की मूर्ति में स्नेह

संवत् १८७७ में श्रावण कृष्णा षष्ठी (२९ अगस्त, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीसारंगपुर ग्राम-स्थित जीवाखाचर के उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में बिछे हुए पलंग पर उत्तर की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे। उन्होंने मस्तक पर श्वेत पाग बाँधी थी, सफ़ेद पिछौरी ओढ़ी थी और श्वेत धोती धारण की थी। उनके सम्मुख सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान से आए हरिभक्त बैठे थे।

तब श्रीजीमहाराज ने मुनियों से कहा कि, “आप सभी आपस में प्रश्नोत्तरी प्रारम्भ करें।”

तब स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि, “भगवान के भक्त को भगवान की मूर्ति में अतिशय स्नेह किस प्रकार होता है?” तब मुनिजन इस प्रश्न का उत्तर परस्पर देने लगे, परन्तु यथार्थ उत्तर न हुआ।

तब श्रीजीमहाराज इस प्रश्न का उत्तर देते हुए बोले, “स्नेह तो रूप से भी होता है, काम से भी होता है, लोभ से भी होता है, स्वार्थ से भी होता है, तथा गुण द्वारा भी होता है। उनमें रूप द्वारा जो स्नेह उत्पन्न होता है, वह देह में पित्त अथवा कोढ़ निकलने पर नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार लोभ, काम और स्वार्थ द्वारा उत्पन्न हुए स्नेह का भी अन्त में नाश हो जाता है। फिर भी, गुणों को परख कर जो स्नेह हुआ है, वह तो अन्त तक रहता है।”

उस पर श्रीजीमहाराज से सोमला खाचर ने पूछा, “ये गुण कौन-से हैं, बाह्य अथवा आन्तरिक?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “बाह्य गुणों से क्या होता है? वह तो वचन, देह और मन द्वारा उत्पन्न गुणों की बात है! इन तीनों के द्वारा जो स्नेह होता है, उसका नाश नहीं होता। क्या आप केवल यही पूछते हैं कि उस भक्त को भगवान से कैसे स्नेह होता है? या आप यह भी पूछते हैं कि भगवान को भक्त से किस प्रकार स्नेह होता है?”

यह सुनकर स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी बोले कि, “हम दोनों स्नेह के बारे में पूछते हैं।”

तत्पश्चात् श्रीजीमहाराज विस्तारपूर्वक बताने लगे कि, “वचन द्वारा किसी भी जीव-प्राणिमात्र को दुःखी मत करना। और, परमेश्वर एवं महान सन्त के साथ यदि प्रश्नोत्तरी कर रहे हो, फिर उसमें स्वयं को अपनी जीत की प्रतीति होने लगे, फिर भी बड़ों के पास अपनी हार स्वीकार लेना, परन्तु अपने से बड़े सन्त को सभा में प्रश्नोत्तर के समय लज्जित होना पड़े, ऐसा कभी न करें; महान सन्त और परमेश्वर के सामने स्वयं पराजित होकर ही प्रसन्न रहना चाहिए। और, परमेश्वर और महान सन्त यदि अपने प्रति कोई उचित अथवा अनुचित वचन कहें तो उसे स्नेहपूर्वक तत्काल मान लें। उन वचनों में यदि उचित वचन (आज्ञा) हो, तो उसमें कोई शंका नहीं होती, परन्तु यदि उन्होंने कोई अनुचित वचन कहा हो, और उसमें कुछ संदेह होता हो, तो भी उस समय उसका अस्वीकार न करें। परमेश्वर या बड़े सन्त के समक्ष अपनी सहमति प्रकट करके कहना कि, ‘हे महाराज! आप जैसा कहेंगे, वैसा ही मैं करूँगा।’ यदि वह वचन मन में स्वीकार्य न हो, फिर भी परमेश्वर और बड़े सन्त की मर्जी हो, तो उनके समक्ष हाथ जोड़कर भक्तिपूर्ण यही निवेदन करना कि, ‘हे महाराज! आपने जो वचन कहा है, वह तो ठीक है, परन्तु उसमें मुझे इतना संदेह होता है।’ इस प्रकार दीनभाव से अपना मन्तव्य प्रकट करना। यदि परमेश्वर की मरजी न हो, तो उनके निकट रहनेवाले महान सन्त तथा हरिभक्त को इस बात से अवगत करा देना चाहिए कि, ‘परमेश्वर ने ऐसा वचन कहा है, वह मुझे अपने लिए स्वीकार्य नहीं लगता।’ इसके पश्चात् बड़े सन्त इसका निराकरण करें या तो परमेश्वर को निवेदन करके इस बात का समाधान कराएँ। परन्तु परमेश्वर के वचन को मानने से कभी मना करना ही नहीं, चाहे वह उचित हो या अनुचित। इस प्रकार युक्ति द्वारा बड़ों के वचनों को धीरज से लौटाना, परन्तु उसे मानने से तत्काल अस्वीकार नहीं करना। इस प्रकार वचन से बर्ताव करना। तब जाकर उस भक्त के प्रति परमेश्वर तथा महान सन्त का स्नेह होता है। इसी तरह, भक्त को भी भगवान के साथ दृढ़ स्नेह हो जाता है।

“अब देह के द्वारा कैसा आचरण करना चाहिए यह बताते हैं। यदि अपने शरीर में किसी प्रकार की उन्मत्तता दिखाई पड़े, तो भजन में बैठकर अथवा चांद्रायण व्रत के द्वारा देह को दुर्बल कर देना। फिर ऐसी अवस्था को देखकर यदि बड़े सन्त अथवा परमेश्वर शरीर की भले ही देखभाल कराएँ, परन्तु स्वयं अपने आप ही देह का जतन न करे। तथा अपनी देह द्वारा भगवान और भगवान के भक्तों की सेवा-शुश्रूषा करते रहे। इस प्रकार, जब वह अपने देह के द्वारा आचरण करने लगता है, तब उसे देखकर परमेश्वर और बड़े सन्त का उससे स्नेह हो जाता है और उस भक्त को भी भगवान से प्रीति हो जाती है।

“अब मन के द्वारा व्यवहार करने की रीति बताते हैं। जब भी परमेश्वर का दर्शन करना, अपने मन और दृष्टि को एकाग्र रखना। परमेश्वर के दर्शन करते समय यदि कोई मनुष्य अथवा श्वान या कोई अन्य पशु-पक्षी वहाँ आ गया, तब अपना ध्यान हटाकर परमेश्वर के दर्शन से वृत्ति को तोड़कर इधर-उधर ऊपर-नीचे दृष्टि घूमाता हो, तथा उन पशुओं को भी देखता रहता हो, तो ऐसी विचलित दृष्टिवाले को देखकर परमेश्वर तथा बड़े सन्त प्रसन्न नहीं होते। क्योंकि वह भगवान का दर्शन उसी प्रकार से करता है, जैसे अन्य मनुष्य करते हैं। अतः लौकिक दृष्टिवाले ऐसे पुरुष को उस गिलहरी के समान समझना चाहिए, जो बोलने के साथ ही पूँछ को भी ऊँचा किया करती है। क्योंकि, भगवान के दर्शन के साथ-साथ जो अन्य वस्तुओं को भी देखता रहता है। ऐसे ‘लौकिक’ दर्शन के कारण उसकी पहले जैसी अच्छी स्थिति थी, वैसी नहीं रहती और वह दिन-प्रतिदिन अपने स्तर से नीचे गिरता जाता है। अतः परमेश्वर के दर्शन करते समय अपनी दृष्टि इधर-उधर नहीं डालनी चाहिए।

“भक्त को चाहिए कि वह परमेश्वर के सर्वप्रथम दर्शन करते समय हृदय में जैसी अलौकिकता अनुभव करता है, वैसी की वैसी अलौकिकता मन में हमेशा बनाये रखें। तथा एक ही दृष्टि से मूर्ति को देखते रहें। दृष्टि को पलट-पलटकर अपने अन्तःकरण में उसी मूर्ति को उतारते रहें। जैसे धर्मपुर में कुशलकुंवरबाई थीं, वे हमारे दर्शन करती जाती थीं और दृष्टि को पलटकर मूर्ति को अपने अन्तःकरण में उतार लेती थीं। वैसे ही दर्शन मनोयोगपूर्वक दृष्टि को एकाग्र रखकर करना, परन्तु दूसरों की तरह दर्शन नहीं करना। यदि परमेश्वर के दर्शनों के साथ-साथ अन्य लौकिक-मनुष्य अथवा कुत्ते और बिल्ली को भी देखता जाएगा, तो उसे स्वप्नावस्था में परमेश्वर भी दिखायी पड़ते हैं तथा साथ ही अन्य लौकिक रूप भी दिखाई पड़ेंगे। इसलिए परमेश्वर का दर्शन चंचल दृष्टि से नहीं, बल्कि एकाग्र स्थिर दृष्टि से करना चाहिए।

“और दृष्टि को नियम में रखकर परमेश्वर के दर्शन जो करता है, उसे वह दर्शन निश्चित ही बिल्कुल नवीनतम रहता है। तथा परमेश्वर के कहे गए वचन भी उनके लिए नित्य नूतन बने रहते हैं। परन्तु लौकिक बाह्यदृष्टि से दर्शन किए हों, उसके लिए परमेश्वर के दर्शन तथा वचन सब कुछ पुराने हो जाते हैं। भले ही वह प्रतिदिन दर्शन क्यों न किया करता हो! ऐसे पुरुष के लिए ये दर्शन नहीं किए गए के समान ही होते हैं। वह तब मालूम होता है, जब वह भजन करने के लिए बैठता है, तब उसका मन स्थिर नहीं रहता और वह अनेक विचारधाराओं में बिखर जाता है। और, परमेश्वर का ध्यान करता है, तब उनके साथ-साथ दूसरे जो भी दर्शन किए गए हैं, उनकी स्फुरणा भी हृदय में अचिन्तित रूप से होने लगती है। इसलिए दर्शन एकमात्र परमेश्वर के ही करने चाहिए। जो व्यक्ति ऐसे दर्शन करता है, उनका मन भजन एवं स्मरण करते समय केवल परमेश्वर में ही लगा रहता है, परन्तु बहुविचारधारा में फैल नहीं जाता और उसकी एक ही विचारधारा रहती है।

“और, जो चपल दृष्टि से दर्शन करता है, उसको मैं जानता हूँ और जिनकी दृष्टि और मन नियन्त्रण में हो, ऐसे बड़े सन्त भी जानते हैं कि, ‘यह तो लौकिक दर्शन करता है।’ फिर लौकिक दर्शन करनेवाला दिन-प्रतिदिन इस सत्संग से च्युत होता जाता है। और, जैसे कोई कामी पुरुष अपनी रूपवती स्त्री में ही एकाग्रतापूर्वक दृष्टि को पिरोकर रखता है, और तब बीच में अगर कोई पशु-पक्षी आता-जाता है या बोलता है, तो भी उसको उसकी सुध नहीं रहती; इस प्रकार एकाग्र दृष्टि द्वारा परमेश्वर से जुड़ जाएँ, परन्तु लौकिक दर्शन न करें।”

तब निर्विकारानन्द स्वामी ने शंका प्रकट की, “हे महाराज! हमें देशभर में स्थान-स्थान पर मनुष्यों के समक्ष (कथा) वार्ता करनी पड़ती है, उस कारण मन की एकाग्रता रहती ही नहीं।”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “जनसमूह के समक्ष वार्ता करने की आज्ञा तो हमने दे रखी है, किन्तु यहाँ मूर्ति के दर्शनों को छोड़कर अन्य दर्शन करने की अनुमति हमने किस दिन दी?” इतना कहने के पश्चात् वे पुनः वार्ता करने लगे, “मूर्ति के प्रथम दर्शन के समय मुमुक्षु को जैसी अलौकिकता थी, वैसी ही अलौकिकता तो तभी रहे, जब दृष्टि को एकाग्र मन के साथ ही परमेश्वर में रखे। यदि मन द्वारा ऐसा आचरण हुआ, तब उस भक्त पर भगवान का नित्य ही नवीनतम स्नेह बना रहता है। इसी तरह, भक्त को भी भगवान से नित्य ही अभिनव स्नेह बना रहता है।

“तथा भक्त को चाहिए कि वह नेत्र और श्रोत्र इन दोनों को विशेष रूप से संयम में रखे। क्योंकि जहाँ-जहाँ लौकिक बातें होती हैं, वहाँ श्रोत्रेन्द्रिय की वृत्ति आकृष्ट हो जाती है, और वही बातें सुनाई देती हैं, फिर सुने हुए समस्त लौकिक शब्दों की स्मृति भजन करते समय होने लगती हैं। और, असंयमी नेत्रवृत्ति के द्वारा जो-जो रूप देखे गए हों, उन सबका स्मरण भी भजन के समय होने लगता है। इसलिए, इन दोनों इन्द्रियों को कठोरता पूर्वक नियमबद्ध रखना चाहिए। और, मूर्ति का दर्शन करते समय जब नेत्र एवं श्रोत्रेन्द्रिय की वृत्ति मूर्ति के दर्शनों को छोड़कर दूसरी ओर आकृष्ट हो जाए, तब दोनों इन्द्रियों को यह उपदेश देना कि, ‘हे मूर्ख इन्द्रियाँ! तुम भगवान की मूर्ति को छोड़कर अन्य रूपों को देखती हों या परमेश्वर की वार्ता का त्याग करके दूसरी बातें सुनती हों, उससे तुझे क्या मिल जाएगा? और अभी तुम्हारी ऐसी सिद्धदशा नहीं हो पाई है कि जैसा चिन्तन करो, उसका वैसा ही फल तुझे तत्काल मिल जाए; क्योंकि अभी तो तुम मात्र साधक ही हों। इसलिए जिस विषय का तुम चिन्तन करोगी, उसकी प्राप्ति नहीं हो पाएगी, और व्यर्थ की लालसा करके तुम परमेश्वर को क्यों छोड़ रही हो? यदि तुम्हें कोई अल्प विषय प्राप्त हो भी गया, तो उसके पाप के कारण यमपुरी की मार-पीट इतनी सहनी पड़ेगी कि कहीं उसका अन्त ही नहीं होगा।’ इस प्रकार, नेत्रेन्द्रिय और श्रोत्रेन्द्रिय को उपदेश देना चाहिए।

“और उनसे कहो, ‘जब तुम भगवान की मूर्ति में एकाग्र हो जाएगी, तब तुम्हें सिद्धदशा प्राप्त होगी। फिर तुम ब्रह्मांडों में होनेवाली विभिन्न वार्ताओं को सहज ही सुन पाओगी। तुम ब्रह्मा, विष्णु और शिव सदृश रूप को प्राप्त करने की इच्छा करोगी, तो तुम्हें इच्छित रूप भी मिल जाएगा। यदि तुम लक्ष्मी या राधिका-जैसा भक्त होने की कामना करोगी, तो वैसा भी हो जाएगा। यदि तुम अपने जीवन-पर्यन्त भगवान का भजन करते-करते सिद्धदशा को न पा सके, तो देह छोड़ने के बाद मुक्त होने पर सिद्धदशा मिल जाएगी, किन्तु सिद्धदशा प्राप्त हुए बिना यदि तुम लौकिक रूपों को देख-देखकर मर भी जाओगी, तो भी तुझे वह रूप नहीं मिल पाएगा। यदि तुम लौकिक शब्दों को सुन-सुनकर मर भी जाओगी, तो उनसे बुद्धि अत्यन्त भ्रष्ट हो जाएगी, परन्तु उसमें से कुछ भी प्राप्ति नहीं होगी।’ इस प्रकार, नेत्रेन्द्रिय और श्रोत्रेन्द्रिय को उपदेश देकर, एकमात्र भगवान की मूर्ति में ही अपना ध्यान रखना चाहिए। जो पुरुष इस तरह का आचरण करता है, उसे भगवान की मूर्ति के प्रति दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक स्नेह होता जाता है, तथा उस भक्त के ऊपर परमेश्वर और सत्पुरुष का स्नेहभाव भी दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ २ ॥ ८० ॥

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