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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

सारंगपुर ३

श्रवण, मनन, निदिध्यास और साक्षात्कार

संवत् १८७७ में श्रावण कृष्णा सप्तमी (३० अगस्त, १८२०) को सायंकाल श्रीजीमहाराज श्रीसारंगपुर ग्राम-स्थित जीवाखाचर के राजभवन में कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने सिर पर श्वेत पाग बाँधी थी, काले पल्ले की धोती ओढ़ी थी और श्वेत धोती धारण की थी। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी ने श्रीजीमहाराज से पूछा कि, “हे महाराज! एक भक्त नाना प्रकार की पूजा-सामग्री लेकर प्रत्यक्ष भगवान की पूजा करता है, जबकि एक अन्य भक्त नाना प्रकार के मानसिक उपचारों के द्वारा भगवान की मानसी पूजा करता है, कृपया बताइए कि इन दोनों भक्तों में कौन श्रेष्ठ है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जो भक्त भगवान के प्रेम में अति रोमांचित-गात्र होकर तथा गद्‌गदकंठ होकर यदि भगवान की प्रत्यक्ष पूजा करता है, अथवा इसी प्रकार भगवान की मानसिक पूजा करता है, तो ये दोनों ही श्रेष्ठ हैं। और, यदि भगवत्प्रेम में रोमांचित-गात्र तथा गद्‌गदकंठ हुए बिना केवल शुष्क मन से भगवान की प्रत्यक्ष पूजा करता है, तो भी न्यून है और मानसीपूजा करता है, तो भी न्यून है।”

तब सोमला खाचर ने पूछा, “इस प्रकार प्रेममग्न होकर जो भक्त प्रत्यक्ष भगवान की पूजा करता हो अथवा मानसी पूजा करता हो, उसे किन लक्षणों द्वारा पहचाना जाता है?”

तब श्रीजीमहाराज ने कहा, “जिस भक्त को भगवान की पूजा-सेवा, कथा-वार्ता तथा कीर्तन में अतिशय श्रद्धा हो और भगवान के माहात्म्य को पूर्णतः समझता हो, इन दोनों साधन करते हुए जिसके अंतर में प्रतिदिन बिल्कुल नई उमंगें रहती हों, किन्तु (उसकी उमंग) कभी भी गौण न पड़ती हों, ऐसे लक्षण से उस भक्त को पहचाना जा सकता है। जैसे मुक्तानन्द स्वामी को हमने पहली बार लोजपुर में देखा था, उनमें जैसी श्रद्धा और भगवान का माहात्म्य था, वैसा का वैसा आज तक पूर्णरूप से नया का नया ही दिखाई दे रहा है, परन्तु तनिक भी गौण नहीं पड़ा। इन दोनों लक्षणों से उस भक्त को पहचाना जाता है। ऐसे माहात्म्य तथा श्रद्धा के बिना ही समस्त यादव श्रीकृष्ण भगवान के साथ रहते थे और जैसे अन्य राजा की सेवा-चाकरी करे, उसी प्रकार भगवान की सेवा-चाकरी भी करते थे, परंतु आज कोई भी उनके नाम तक नहीं जानता११० और वे भक्त भी नहीं कहलाए। परंतु उद्धवजी यदि श्रीकृष्ण भगवान की श्रद्धा एवं माहात्म्य सहित सेवा-चाकरी करते थे, तो वे परम भागवत कहलाए तथा शास्त्रों एवं संसार में भी उनकी अतिशय ख्याति बनी हुई है।”

फिर निर्विकारानन्द स्वामी ने पूछा कि, “हे महाराज! श्रवण, मनन, निदिध्यास तथा साक्षात्कार किसे कहा जाता है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “श्रोत्रों द्वारा वार्ता सुनना ही श्रवण कहा जाता है। और, जो वार्ता सुनी है, उस पर मन द्वारा विचार करके, जितनी वार्ता का त्याग करना हो, उतनी छोड़कर उसके ग्राह्य अंश को ग्रहण करना ही मनन कहलाता है। तथा जो वार्ता निश्चयपूर्वक मन में ग्रहण की गई हो, उसे रात-दिन स्मरण में रखने का अभ्यास करना ही निदिध्यास कहा जाता है। तत्पश्चात् वह वार्ता बिना चिन्तन किए भी यथार्थरूप में मूर्तिमान के समान पूर्णतः स्मरण में आ जाए उसे साक्षात्कार कहते हैं। और, यदि आत्मा के स्वरूप का इस प्रकार श्रवणादि किया गया हो, तो आत्मस्वरूप का इस तरह साक्षात्कार हो जाता है। उसी प्रकार यदि भगवान की कथा का श्रवण, मनन और निदिध्यास किया गया हो, तो भगवान का साक्षात्कार हो जाता है। परन्तु, बिना मनन एवं निदिध्यास किए, केवल श्रवण द्वारा ही साक्षात्कार नहीं हो पाता।

“और, यदि भगवान के स्वरूप का दर्शन करके भगवान का मनन तथा निदिध्यास न किया गया हो, तो चाहे एक लाख वर्षों तक दर्शन करते रहने पर भी उनके स्वरूप का साक्षात्कार नहीं हो पाता। तथा वह दर्शन तो केवल श्रवणमात्र ही कहलाएगा। एवं यदि कोई भक्त भगवान के प्रत्येक अंग का दर्शन करके उसका मनन एवं निदिध्यास करेगा, तो उसे भगवान की मूर्ति आज भी सहजभाव से स्मरण में आ जाएगी। परंतु उसने यदि भगवान के अंग का केवल दर्शन ही किया होगा तो स्मरण करने पर भी उनकी मूर्ति की स्मृति नहीं कर पाएगा। और, कितने ही हरिभक्त कहा करते हैं कि, ‘हम तो ध्यानावस्था में बैठकर महाराज की मूर्ति का अधिक से अधिक स्मरण करने का प्रयास करते हैं, फिर भी उनके एक भी अंग की धारणा नहीं होती, तब समग्र मूर्ति का ध्यान कैसे संभव हो सकता है?’ इस समस्या का कारण भी यही है कि वह भगवान की मूर्ति का दर्शनमात्र करता है, परन्तु मनन तथा निदिध्यास नहीं करता, तब ध्यानावस्था में मूर्ति कैसे आ सकती है? क्योंकि मायिक पदार्थों को भी केवल दृष्टिमात्र से देखा हो और केवल श्रवण द्वारा सुना हो किन्तु यदि उसका मनन करके मन में स्मृति में न रखा हो, तो वह भी विस्मृत हो जाता है, तब अमायिक एवं दिव्य ऐसा जो भगवान का स्वरूप है, वह बिना मनन और निदिध्यास के स्मृति में कैसे आएगा? इसलिए, भगवान का दर्शन करके तथा वार्ता सुनकर यदि उसका मनन और निदिध्यास निरन्तर किया करता है तो उसे साक्षात्कार हो सकता है, अन्यथा सारी उम्र दर्शन-श्रवण करते हुए बीत जाए फिर भी साक्षात्कार नहीं होता।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३ ॥ ८१ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


११०. ‘दुर्भगो बत लोकोऽयं यदवो नितरामपि। ये संवसन्तो न विदुर्हरिं मीना इवोडुपम्।’ (श्रीमद्भागवत: ३/२/८) इस श्लोक का यही भावार्थ है।

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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