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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

सारंगपुर ४

आत्मा-अनात्मा का विवेक

संवत् १८७७ में श्रावण कृष्णा अष्टमी (३१ अगस्त, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीसारंगपुर ग्राम-स्थित जीवाखाचर के राजभवन के कमरे के बरामदे में पलंग पर उत्तर की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे। उन्होंने मस्तक पर श्वेत पाग बाँधी थी, सफ़ेद पिछौरी ओढ़ी थी और श्वेत धोती धारण की थी। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी ने पूछा कि, “हे महाराज! आत्मा-अनात्मा का भेद स्पष्टरूप से किस प्रकार समझ में आता है, जिसे समझकर आत्मा और अनात्मा की एकता संभव ही न हो?”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज कहने लगे कि, “एक श्लोक से, दो श्लोकों से, पाँच श्लोकों से, एक सौ श्लोकों से अथवा एक सहस्र श्लोकों से भी यदि यह बात स्पष्टरूप से समझ में आ जाए, वही अच्छा है; जो समझ लेने के पश्चात् आत्मा-अनात्मा में ऐक्य होने का भ्रम ही न रहे। ऐसी स्पष्ट समझ ही आनंददायक होती है, परंतु संदिग्ध समझ कभी सुखदायी नहीं होती। अतः ऐसा स्पष्टरूप से समझ लेना चाहिए कि, ‘मैं आत्मा हूँ, अतः मेरे जैसा एक भी गुण देह में नहीं आता। और मैं तो चैतन्य हूँ, इस कारण जड, दुःखरूप एवं मिथ्यारूप देह के गुणों में से एक भी गुण मुझमें नहीं आता।’ ऐसा भेद समझकर, अत्यन्त निर्वासनिक होकर तथा चैतन्यरूप होते हुए पुरुषोत्तम भगवान का चिन्तन करे, इस प्रकार का जड़-चैतन्य का विवेक हो, उसी को सुदृढ़ विवेक जानना। परन्तु घड़ीभर स्वयं को आत्मारूप माने और घड़ीभर स्वयं को देहरूप मानकर स्त्री का चिंतन करे, तो उसे मलिन समझना चाहिए, उसके अन्तःकरण में सुख की अनुभूति नहीं होती। जैसे अत्यन्त स्वादिष्ट अमृत-सा खाद्यपदार्थ हो, उसमें अगर थोड़ा-सा विष मिला दिया जाए, तो वह सुखदायी नहीं, बल्कि दुःखदायी हो जाता है। वैसे ही आठों प्रहर आत्मा सम्बन्धी विचार करके एक घड़ीभर स्वयं को देहरूप मानकर यदि स्त्री का चिंतवन करे, तो उसके सभी विचार धूल में मिल जाते हैं। इसलिए अत्यन्त ही निर्वासनिक हो सकें, ऐसा ही स्पष्ट आत्म-विचार करना चाहिए।

“और, यदि किसी को ऐसा संशय होता हो कि, ‘हम अत्यन्त निर्वासनिक नहीं हो पाएँगे, और यदि ऐसी ही अपरिपक्व अवस्था में मर जाएँगे, तो हमारा क्या हाल होगा?’ तो हमारा कहना यह है कि भगवान के भक्त को ऐसा विचार नहीं करना चाहिए। उसे तो यह समझना चाहिए कि, ‘यदि मौत आई, तो शरीर ही मरेगा, परन्तु मैं तो आत्मा हूँ और अजर-अमर हूँ। इसलिए, मैं नहीं मरूँगा।’ ऐसा समझकर हृदय में हिम्मत रखनी चाहिए। और, परमेश्वर के अतिरिक्त अन्य समस्त वासनाओं का परित्याग करके निश्चल मति करनी चाहिए। तथा इस प्रकार वासना को टालते-टालते यदि थोड़ी कुछ वासना रह गई, तो उसे ‘मोक्षधर्म’ में बताए गए नरकों की प्राप्ति होगी। उन नरकों का विवरण यह है कि भगवान के भक्त को यदि तनिक भी सांसारिक वासना रह गई, तो उसे इन्द्रादि देवताओं के लोकों की प्राप्ति होती है। वहाँ जाने पर अप्सराएँ, विमान तथा मणिमंडित महल आदि समस्त वैभव जो कि परमेश्वर के धाम की तुलना में नरक-सदृश हैं, उन्हें वह भोगता है, किन्तु विमुख जीव की तरह यमपुरी अथवा चौरासी लाख योनियों में वह नहीं भटकता। अतः आप यदि भगवान के सवासनिक भक्त भी होंगे, तो अधिक से अधिक देवता होना पड़ेगा। यदि देवलोक से पतन हो गया, तो मनुष्य-शरीर धारण करके पुनः भगवान की भक्ति करके निर्वासनिक बनकर अन्त में भगवान को पाएँगे, किन्तु विमुख जीव की तरह चौरासी लाख योनियों को तो नहीं भोगना पड़ेगा। ऐसा समझते हुए भगवान के भक्त को उग्र वासना को देखकर हिम्मत नहीं हारनी चाहिए और आनन्दमग्न रहकर भगवान का भजन करते रहना तथा वासना को मिटाने का उपाय करते रहना, एवं भगवान तथा उनके सन्त के वचनों में दृढ़ विश्वास रखना।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४ ॥ ८२ ॥

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