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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

सारंगपुर ५

वासना निवृत्ति; अन्वय-व्यतिरेक

संवत् १८७७ में श्रावण कृष्णा नवमी (१ सितम्बर, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीसारंगपुर ग्राम-स्थित जीवाखाचर के राजभवन में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। वे श्वेत वस्त्र धारण किए हुए थे। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे।

मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “वासना की निवृत्ति होने का कौन-सा श्रेष्ठ उपाय है, जिसमें वासना मिटाने के सभी साधन समाविष्ट हो जाए?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिसके हृदय में श्रद्धा हो तथा भगवान एवं भगवान के भक्तों में विश्वास हो तथा भगवान में प्रीति हो एवं परमेश्वर के स्वरूप का माहात्म्यज्ञान हो, ये चार गुण जिस भक्त में हों, उसकी वासना निवृत्त हो जाती है। उसमें भी यदि माहात्म्यज्ञान सुदृढ़ हो, तो श्रद्धा, विश्वास और प्रीति दुर्बल होने पर भी ये तीनों महाबलवान होते हैं। बिना माहात्म्य की भक्ति भले ही अधिक दिखाई पड़ती हो, परन्तु अन्त में उसका नाश हो जाता है। जैसे दस-बारह वर्ष की कोई कन्या हो और उसे क्षयरोग हो गया, तो वह युवती होने से पहले ही मर जाएगी। वैसे ही जिसकी भक्ति बिना माहात्म्य की हो, वह भी परिपक्व हुए बिना ही धीरे-धीरे नाश हो जाती है। और, जिसके हृदय में माहात्म्यसहित भगवान की भक्ति हो, और अन्य कल्याणकारी गुण न भी हों, तो भी उसमें ये सभी गुण आ जाते हैं। यदि ऐसी माहात्म्यसहित भक्ति जिसके हृदय में नहीं है परंतु शम-दमादिक कल्याणकारी उत्तम गुण तो हैं, फिर भी वे नगण्य जैसे ही कहे जाएगें। क्योंकि अंत में उन गुणों का भी नाश हो जाएगा। अतः केवल एक माहात्म्यसहित भक्ति ही हो, तो उसकी वासना भी निवृत्त हो जाती है, और जो कल्याणकारी गुण हैं वे सभी हृदय में आकर निवास करते हैं। इसीलिए माहात्म्यसहित भगवान की भक्ति ही वासना को मिटाने का अतिश्रेष्ठ एवं अविचल साधन है।”

तत्पश्चात् स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी ने पूछा कि, “जीव, ईश्वर तथा अक्षरब्रह्म अन्वयभाव से एवं व्यतिरेकभाव से किस तरह हैं तथा पुरुषोत्तम भगवान का अन्वयभाव और व्यतिरेकभाव किस प्रकार जानना चाहिए?”

तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “जीव का जो ‘जन्म-मरण को भोगनेवाला’ स्वरूप है, उसे जीव का अन्वयरूप जानना; और अछेद्य, अभेद्य तथा अविनाशी जो जीव का स्वरूप है उसे व्यतिरेक समझना।

“और, विराट, सूत्रात्मा तथा अव्याकृत इन तीन शरीरों में ऐक्यभाव से वर्तन करे, वह ईश्वर का अन्वय स्वरूप है; तथा पिंड-ब्रह्मांडों से परे सच्चिदानन्द भाव द्वारा जो निरूपण किया गया है, वह ईश्वर का व्यतिरेक स्वरूप जानना।

“और, प्रकृतिपुरुष तथा सूर्यचन्द्रादि समस्त देवताओं के प्रेरक स्वरूप है, उसे अक्षर का अन्वय स्वरूप जानना; तथा जिस स्वरूप में पुरुषप्रकृति आदि की कोई उपाधि नहीं होती और एकमात्र पुरुषोत्तम भगवान ही रहते हैं, वह अक्षर का व्यतिरेक स्वरूप जानना।

“और, बद्ध जीव तथा मुक्त जीव दोनों के हृदय में साक्षीरूप रहे हैं, फिर भी बद्धता और मुक्तता जिसका स्पर्श नहीं कर सकती है, वैसे ही ईश्वर के एवं अक्षर के हृदय में साक्षीरूप से निवास करने पर भी जो उन दोनों की उपाधि से रहित है, वह पुरुषोत्तम का अन्वय स्वरूप है। और जीव, ईश्वर तथा अक्षर से परे जो अक्षरातीत स्वरूप है, वह पुरुषोत्तम का व्यतिरेक स्वरूप जानना। इस प्रकार, अन्वय तथा व्यतिरेक भाव समझना।”

फिर मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “भगवान के दर्शन, नामस्मरण और स्पर्श की जो महिमा है, वह भगवान के भक्त के लिए है, या समस्त मनुष्यों के लिए है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “दर्शनादि साधना में तो अन्तर रहता ही है उसे बताते हैं कि, जब भगवान का दर्शन करनेवाला एकाग्र दृष्टि से मन स्थिर करके दर्शन करता है, तो वह दर्शन ऐसा होता है कि अगर उसका विस्मरण करना चाहे, फिर भी वह विस्मृत नहीं होता। इसी प्रकार, मन पिरोकर यदि त्वचा से भगवान का स्पर्श करे, तो उस स्पर्श का भी विस्मरण नहीं होता। जैसे भागवत में भगवान के प्रति गोपांगनाओं का यह वचन है कि, ‘हे भगवन्! जिस दिन से आपके चरणों का स्पर्श हुआ है, उस दिन से हमें बिना आपके संसार के अन्य सुख भी विष के समान लगते हैं।’ इस प्रकार समस्त ज्ञानेन्द्रियों से जो भी दर्शन, स्पर्श और श्रवणादि क्रियाएँ की जाती हैं, वे यदि मन पिरोकर की गईं, तो वे किसी भी समय विस्मृत नहीं होती। जैसे अज्ञानी जीव ने मन लगाकर पाँच ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जो-जो विषय भोगे हों, उन्हें भुलाने पर भी उसे उनका विस्मरण नहीं होता। वैसे ही जो पुरुष मनोयोगपूर्वक दर्शनादि करते हैं, उन्हीं को दर्शन आदि समझना चाहिए। दूसरों को तो दर्शन हुआ भी है, तो भी वह न होने जैसा ही है, क्योंकि जिस समय उसने दर्शन किया था, उस समय उसका मन किसी दूसरी जगह ही भटक रहा था। अतः ऐसे दर्शन तो एक दिन में या पाँच दिन में या पचास दिन में अथवा छः महीनों में तथा एक वर्ष में अथवा पाँच वर्ष में अवश्य विस्मृत हो जाएगा, परन्तु अन्त तक वह नहीं रहेगा।

“अतः माहात्म्य समझकर अतिशय प्रीतिपूर्वक मनसहित दृष्टि आदि ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जो पुरुष (भगवान का) दर्शन-स्पर्शादि करता है, उसी को उनका फल मिलता है और दूसरे मनुष्य को तो परमेश्वर के जो दर्शनादि होते हैं, उनका संस्कारफल होता है। यथार्थ महिमा उसके लिए है, जो पूरे मनोयोग के साथ दर्शनादि करता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ५ ॥ ८३ ॥

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