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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

सारंगपुर ७

नैमिषारण्य क्षेत्र

संवत् १८७७ में श्रावण कृष्णा एकादशी (३ सितम्बर, १८२०) को रात्रि के समय श्रीजीमहाराज श्रीसारंगपुर ग्राम-स्थित जीवाखाचर के राजभवन में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय श्रीजीमहाराज ने श्रीमद्भागवत पुराण के प्रथम स्कन्ध की कथा का वाचन आरम्भ कराया था। उसमें ऐसी वार्ता आई कि: “जहाँ मनोमय चक्र की धार कुंठित हो जाए, वहाँ नैमिषारण्य क्षेत्र समझना चाहिए।”

इस वार्ता को सुनकर मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा, “हे महाराज! यह मनोमय चक्र क्या है, तथा इसकी धार किसे समझना चाहिए?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “मनोमय चक्र मन को समझना चाहिए और इसकी धार दस इन्द्रियाँ हैं। उस इन्द्रियरूपी मन की जो धार है, वह जिस स्थान पर घिस जाने से कुंठित हो जाए, उसे नैमिषारण्य क्षेत्र जानना। उस स्थान पर जो कोई जप, तप, व्रत, ध्यान, पूजा आदि शुभ सुकृत का आरम्भ करता है, तो दिन-प्रतिदिन उनकी वृद्धि होती है। ऐसा जो नैमिषारण्य क्षेत्र है, वह जिस स्थान पर भगवान के एकान्तिक साधु रहते हों, वहीं पर जानना चाहिए।

“और, जब मनोमयचक्र की इन्द्रियरूपी धार कुंठित हो जाए, तब शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध नामक पंचविषयों में कतई प्रीति नहीं रहती है। और, जब कोई रूपवती स्त्री दीख पड़े अथवा अतिसुन्दर वस्त्र-अलंकारादि वस्तुएँ दिखाई पड़ें, तब देखनेवाले के मन में अत्यन्त अभाव हो जाता है, परन्तु उनमें इन्द्रियों की वृत्ति नहीं जुड़ती है। जैसे अति तीक्ष्ण धारवाले बाण को जिस पदार्थ को लक्ष्य करके मारा जाए, तो वह उसे बेधकर अन्दर प्रवेश कर जाता है और पुनः निकाले जाने पर भी वह नहीं निकलता। और, यदि उस बाण में से उसका फलक निकाल लिया जाए, फिर थोथे को लेकर दीवार पर घाव करें, तो वहाँ से उखड़कर वह नीचे गिर जाता है, किन्तु पूर्ववत् उसे बेध नहीं सकता। वैसे ही मनोमय चक्र की धाररूपी इन्द्रियाँ जब कुंठित हो जाती हैं, तब चाहे कितना ही श्रेष्ठ विषय हो, उसमें इन्द्रियों की वृत्ति नहीं जमती और थोथी धार की तरह इन्द्रियों की वृत्ति विषय की ओर से वापस हटे; ऐसा वर्तन हो, तब यह मान लेना चाहिए कि मनोमयचक्र की धार कुंठित हो गई है। इस प्रकार का सन्त के सत्संगरूप नैमिषारण्य क्षेत्र जहाँ दिखाई पड़े, वहाँ कल्याण की इच्छा करना तथा वहीं पर अत्यन्त दृढ़ मन करके ठहरना।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ७ ॥ ८५ ॥

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