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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
सारंगपुर ८
ईर्ष्या का स्वरूप
संवत् १८७७ में श्रावण कृष्णा द्वादशी (४ सितम्बर, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीसारंगपुर ग्राम-स्थित जीवाखाचर के राजभवन में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।
उस समय चैतन्यानन्द स्वामी ने पूछा, “हे महाराज! ईर्ष्या का क्या रूप है?”
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिसके हृदय में मान होता है, उसमें से ईर्ष्या उत्पन्न होती है। और, क्रोध, मत्सर तथा असूया की भी उत्पत्ति मान से होती है। ईर्ष्या का रूप यह है कि, ‘अपने से जो श्रेष्ठ हों, फिर भी जब उनका भी सम्मान होता है, तब उसे न देख सके, ऐसा जिसका स्वभाव हो, उसके बारे में यूं समझना कि इसके हृदय में ईर्ष्या है।’ और यथार्थ ईर्ष्या करनेवाला तो किसी की भी महत्ता को नहीं देख सकता।”
॥ इति वचनामृतम् ॥ ८ ॥ ८६ ॥
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