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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

सारंगपुर ९

युग के धर्म की प्रवृत्ति; स्वधर्मरूपी स्थान

संवत् १८७७ में श्रावण कृष्णा त्रयोदशी (५ सितम्बर, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज अपने भक्तजनों को सुख देने के लिए सारंगपुर से चलकर श्रीकुंडल ग्राम में पधारे। वहाँ वे अमरा पटगर के पश्चिमी कमरे के बरामदे में पलंग पर उत्तर की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे। उन्होंने मस्तक पर श्वेत पगड़ी बाँधी थी, सफ़ेद पिछौरी ओढ़ी थी और श्वेत चुस्त पाजामा धारण किया था। तथा श्वेत अंगरखा धारण किया था। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान से आए हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “हे महाराज! व्यक्ति के हृदय में युग के धर्मों की प्रवृत्ति रहती है, उसका क्या कारण है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “युगधर्मों के प्रवर्तन का कारण (सत्त्वादिक) गुण है। जब शुद्ध सत्त्वगुण प्रवर्तमान हो, तब हृदय में सतयुग की प्रवृत्ति रहती है। जब सत्त्वगुण तथा रजोगुण दोनों प्रवर्तमान हो, तब त्रेतायुग की प्रवृत्ति होती है। जब रजोगुण और तमोगुण प्रवर्तमान हों, तब द्वापरयुग की प्रवृत्ति होती है। और, जब अकेला तमोगुण प्रवर्तमान हो, तब उसके हृदय में कलियुग की प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार ‘गुणों’ द्वारा युगों की प्रवृत्ति रहती है।”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने पुनः पूछा, “गुणों की प्रवृत्ति होती रहने का क्या कारण है?”

उत्तर के रूप में श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “गुणों की प्रवृत्ति होती रहने का कारण कर्म है। जैसे पूर्वकर्म होते हैं, वैसे ही गुणों की प्रवृत्ति होती रहती है। जिनका रजोगुणी तथा तमोगुणी स्वभाव हो, वे यदि एकाग्र होकर भगवान का ध्यान करने लगें तो भी वह नहीं हो पाता। इसलिए, ऐसे पुरुषों को तो आत्मनिष्ठा तथा भगवान की महिमा का बल रखना और यह समझना चाहिए कि, ‘मैं तो आत्मा हूँ, इसलिए मुझमें मायाकृत उपाधि नहीं हो सकती, मैं तो गुणातीत हूँ।’

“तथा भगवान की महिमा का विचार इस प्रकार करना चाहिए कि, ‘अजामिल यद्यपि महापापी था, फिर भी उसने अपने पुत्र के योग से ‘नारायण’ ऐसा नाम-उच्चार किया, तो वह समस्त पापों से मुक्त हो गया और उसे परमपद की प्राप्ति हो गई। परन्तु मुझे तो भगवान प्रत्यक्ष रूप से मिले हैं और रात-दिन मैं उन भगवान का नाम-स्मरण किया करता हूँ, इसलिए मैं तो कृतार्थ हुआ हूँ।’ इस प्रकार की धारणा करके आनन्दमग्न रहना चाहिए। लेकिन जिसमें तमोगुण एवं रजोगुण के भाव रहते हों, वह ध्यान-धारणा के लिए आग्रह न रखे। उसे तो जैसा हो सके, वैसा भजन-स्मरण करना चाहिए। और, देह से भगवान तथा सन्त की परिचर्या श्रद्धासहित करनी चाहिए, तथा अपने-अपने धर्म का पालन करते हुए स्वयं को पूर्णकाम मानना चाहिए।”

फिर मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा, “अनेक तामसिक कर्मों के कारण जिसके हृदय में यदि कलियुग की प्रवृत्ति रहती हो, तो वह किसी उपाय द्वारा टल सकती है या नहीं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “यदि उसे सन्त तथा परमेश्वर के वचनों में अतिशय श्रद्धा तथा अत्यन्त दृढ़ विश्वास हो, तो भले ही उसके कैसे भी तामसिक कर्म क्यों न हो, उनका भी नाश हो जाता है; और कलियुग के धर्म मिटकर सतयुग के धर्म का प्रवर्तन होने लगता है। इसलिए, कोई अति शुद्ध भावना से सत्संग करता है, तो किसी भी प्रकार का दोष उसके हृदय में नहीं रहता और वह अपने जीवनकाल में ही ब्रह्मरूप हो जाता है।”

फिर स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी ने पूछा, “स्थान किसे कहते हैं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “चार वर्णों और चार आश्रमों का जो अपना-अपना धर्म है, उसे ‘स्थान’११८ जानना। यद्यपि आप त्यागी हैं, फिर भी त्याग-पक्ष का परित्याग करके यदि गृहस्थ के मार्ग पर चलने लगते हैं, तो आप स्थानभ्रष्ट हो गए, ऐसा मानना। अतएव, चाहे कैसा भी आपत्काल क्यों न आ जाए और हम आज्ञा करें, तो भी आपको अपने धर्म से नहीं हटना है। और, जिस प्रकार कोई गृहस्थ वस्त्रों तथा अलंकारों द्वारा हमारी पूजा करने का इच्छुक हो, वैसी इच्छा आपको नहीं करनी चाहिए। आपको तो पत्र, पुष्प, फल और जल द्वारा पूजा करनी चाहिए, तथा ऐसी पूजा करके ही आनन्द मानना चाहिए। किन्तु अपने धर्म से चलायमान होकर परमेश्वर की पूजा करना उचित नहीं है। इसलिए, सबको अपने धर्म का पालन करते हुए जितनी संभव हो, उतनी पूजा करनी चाहिए। यह हमारी आज्ञा है, इसका दृढ़ता के साथ पालन करना।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ९ ॥ ८७ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


११८. ‘स्थान’ का अर्थ यहाँ कोई मठ, मंदिर अथवा सम्प्रदाय तक सीमित नहीं है, परंतु धर्मनिष्ठा ही श्रीहरि के मतानुसार सच्चा ‘स्थान’ है।

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