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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

सारंगपुर १०

आत्मदृष्टि – बाह्यदृष्टि

संवत् १८७७ में श्रावण कृष्णा चतुर्दशी (६ सितम्बर, १८२०) को श्रीजीमहाराज ने समस्त साधुमंडल के साथ कुंडल ग्राम से प्रस्थान किया और मार्ग में वे उनके साथ खांभड़ा गाँव में आए। वहाँ वे पीपलवृक्ष के नीचे ठहरे। इसके पश्चात् गाँव के लोगों ने पलंग लाकर वहाँ बिछाया और उस पर श्रीजीमहाराज को बैठाया। उस समय श्रीजीमहाराज श्वेत वस्त्र धारण किए हुए थे। उनके चारों ओर साधु तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

साधु कीर्तन कर रहे थे। कीर्तन को बंद कराके श्रीजीमहाराज ने गाँववालों से कहा, “इस संसार में धर्मवान् और अधर्मी दो प्रकार के मनुष्य हैं। धर्मवान् मनुष्य चोरी, परस्त्री संग और चुगली करना आदि समस्त पापों का परित्याग कर और परमेश्वर से डरकर धर्म-मर्यादा के अनुसार चलते हैं। संसार में अन्य मनुष्य या अपने कुटुम्बीजन हो, वे सब उनका विश्वास करते हैं। और, वे जो कुछ बोलते हैं, वह सभी को सत्य ही प्रतीत होता है। ऐसे धार्मिक पुरुषों को ही सच्चे सन्त का सत्संग रुचिकर लगता है।

“और, जो अधर्मी मनुष्य होते हैं, वे चोरी, परस्त्री-संग, मद्यपान, मांसभक्षण, धर्मभ्रष्ट होना और दूसरों को भ्रष्ट करना आदि सभी कुकर्म करने में लगे रहते हैं। और, संसार में कोई भी व्यक्ति उनका विश्वास नहीं करता। उनके सम्बन्धी भी उनका विश्वास नहीं करते। ऐसे अधर्मी पुरुषों को सच्चे सन्त का सत्संग पसन्द ही नहीं आता, और यदि कोई उस सन्त का सत्संग करता है, तो वे अधर्मी लोग उसका भी द्रोह करने लगते हैं। इसलिए, जो पुरुष आत्मकल्याण के इच्छुक हों, उन्हें अधर्म के मार्ग पर चलना ही नहीं; धर्मवान् पुरुषों के मार्ग पर चलकर सच्चे सन्त का सत्संग करना, ऐसा करने पर निश्चय ही उन जीवों का कल्याण हो जाएगा। इसमें किसी भी प्रकार का संशय नहीं है।”

इतनी वार्ता सुनने के बाद गाँव के कितने ही मनुष्यों ने श्रीजीमहाराज का आश्रय ग्रहण कर लिया।

बाद में वहाँ से श्रीजीमहाराज पुनः सारंगपुर पधारे। यहाँ जीवाखाचर के राजभवन में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में बिछे हुए पलंग पर वे विराजमान हुए। उस समय उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे। उनके समक्ष मुनिगण तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “गोलोक, वैकुंठ, श्वेतद्वीप तथा ब्रह्मपुर आदि जो भगवान के धाम हैं, उन्हें यदि बाह्यदृष्टि से देखा जाए, तो वे बहुत दूर हैं, किन्तु उन्हें आत्मदृष्टि से देखें, तो वे अणु-जितनी भी दूरी पर नहीं हैं। अतः बाह्यदृष्टिवालों की समझ मिथ्या११९ है और आत्मदृष्टिवालों की समझ सत्य है। और, जो साधु इस प्रकार समझता है कि, ‘मेरे चैतन्य में भगवान सदैव विराजमान रहते हैं। जैसे देह में जीव रहता है, वैसे मेरी आत्मा में भगवान रहते हैं, और मेरा जीव तो शरीर है तथा भगवान मेरे जीव के शरीरी हैं।’ और जो सन्त अपनी जीवात्मा को स्थूल, सूक्ष्म और कारण नामक तीन शरीरों से पृथक् मानता हो और उसमें भगवान अखंड रूप से विराजमान है, ऐसी समझ रखता हो, तो ऐसे सन्त के लिए भगवान अथवा उनका धाम अणुमात्र भी दूर नहीं हैं। और, ऐसा जो संत है, वह श्वेतद्वीप के मुक्त के समान है। ऐसे सन्त का दर्शन हुआ तो यह समझ लेना कि, ‘मुझे साक्षात् भगवान का दर्शन हुआ है।’ ऐसा समझवाला जो सन्त है, वह तो कृतार्थ हो चुका है। और, यदि जिसको ऐसी समझ आ न सके, तो जिसे समझ प्राप्त हुई है, ऐसे सन्त की संगत में अपना जीवन न्योच्छावर करे, और वह सन्त यदि उसे नित्य पाँच जूतियों से प्रताड़ित करें, तो भी वह इस अपमान को सहन करता हुआ सन्त के संग को छोड़ न सके, जैसे अफ़ीम का व्यसनी अफ़ीम को नहीं छोड़ सकता, वैसे ही वह भी किसी भी तरह से सन्त का सत्संग नहीं छोड़ सकता ऐसी समझवाले को पूर्वोक्त सन्त के समान ही मानना। और, जैसी प्राप्ति उन महान सन्त को होती है, वैसी ही प्राप्ति इस (शरणागत को) होती है, जो सन्त-समागम में पड़ा रहता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १० ॥ ८८ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


११९. अंतर्दृष्टिवालों की तुलना में बाह्यदृष्टिवालों की स्थिति तथा समझ अल्प गुणकारी है, ऐसा मिथ्या शब्द का अर्थ समझना चाहिए।

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