share

॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

सारंगपुर ११

पुरुषप्रयत्न

संवत् १८७७ में श्रावण कृष्णा अमावस्या (७ सितम्बर, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीसारंगपुर ग्राम-स्थित जीवाखाचर के राजभवन में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

तब मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “शास्त्रों में पुरुषप्रयत्न (पुरुषार्थ) करने को कहा है। उस पुरुषप्रयत्न के द्वारा कितना काम होता है तथा परमेश्वर की कृपा द्वारा कितना काम होता है?”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिस पुरुष को सद्‌गुरु तथा सत्शास्त्रों के वचनों द्वारा दृढ़ वैराग्य हुआ हो, और जो दृढ़ श्रद्धावान हो, और जिसने आठ प्रकार के ब्रह्मचर्य का अत्यन्त दृढ़ता के साथ पालन किया हो, और जो अहिंसा-धर्म में दृढ़ प्रीति रखनेवाला हो तथा जिसकी आत्मनिष्ठा भी अतिपरिपक्व हो गई हो, उसकी जन्म-मरण से निवृत्ति हो जाती है। जैसे धान के ऊपर का छिलका उतर जाने पर फिर से धान नहीं उगता, वैसे ही पहले कहे हुए गुणों से युक्त पुरुष भी अनादि अज्ञानरूप माया से मुक्त हो जाता है तथा जन्म-मरण के बन्धन से छूट जाता है और आत्मसत्ता को प्राप्त करता है। इतना तो पुरुषप्रयत्न से होता है। और, परमेश्वर की कृपा भी उस पर ही होती है, जो ऐसे लक्षणयुक्त है होता है। और, जब परमेश्वर की कृपा होती है, तभी वह भगवान का एकान्तिक भक्त हो जाता है। और, श्रुति में कहा गया है कि: ‘निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति।’१२० इस श्रुति का अर्थ यह है कि, अंजनरूप माया से रहित पुरुष भगवान की तुल्यता को प्राप्त कर लेता है, अर्थात् जिस प्रकार भगवान को शुभाशुभ कर्मों का बन्धन नहीं होता है, ठीक वैसे वह मुक्त पुरुष भी शुभ-अशुभ कर्मों के बन्धन में नहीं फँसता। और, जैसे लक्ष्मीजी कभी स्नेहवश भगवान के स्वरूप में लीन हो जाती हैं और कभी अलग रहकर भगवान की सेवा में तत्पर रहती हैं, इसी प्रकार वह भक्त भी अतिशय स्नेहपूर्वक कभी तो भगवान में लीन हो जाता है और कभी-कभी मूर्तिमान रूप से भगवान की सेवा में रहता है। और, जैसे भगवान स्वतन्त्र हैं, वैसे ही वह भगवद्भक्त भी स्वतंत्र होता है। इस प्रकार का सामर्थ्य भगवान की कृपा से प्राप्त होता है।”

तब नित्यानन्द स्वामी ने पूछा कि, “जिसमें ये समस्त अंग सम्पूर्ण रूप से होते हैं, उस पर तो भगवान की कृपा होती है, लेकिन यदि किसी में इन अंगों में से किसी अंग की न्यूनता रहे, तो उसकी कैसी गति होती है?”

तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “वैराग्य, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा, अहिंसाधर्म तथा आत्मनिष्ठा में से यदि किसी अंग में न्यूनता हो, तो वह पुरुष भगवान के आत्यन्तिक मोक्ष जो अक्षरधाम, उसको नहीं पाता। इसे छोड़कर वह दूसरे भगवान के धामों को पाता है। अथवा वह अधिक सवासनिक होगा तो देवलोक को पाता है। जिस देवलोक को मोक्षधर्म में भगवान के धाम की तुलना में नरकतुल्य बताया गया है। इस प्रकार जीव देवता से मनुष्य होता है और मनुष्य में से पुनः देवता हो जाता है!

“तथा ‘अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्’१२१ इस श्लोक का भी यही अर्थ है कि भगवान का जो भक्त सवासनिक होता है, वह नरक तथा चौरासी लाख योनियों में नहीं जाता, परन्तु देवलोक तथा मनुष्यलोक में उसे अनेक जन्म धारण करने पड़ते हैं। फिर जब वह पूर्वोक्त वैराग्य आदि लक्षणों से युक्त हो जाता है, तभी भगवान की कृपा का पात्र होता है और बाद में भगवान का एकान्तिक भक्त होकर भगवान के गुणातीत अक्षरधाम को प्राप्त कर लेता है। इसलिए, एक जन्म अथवा अनेक जन्मों में जिस दिन पूर्वोक्त लक्षणों से युक्त होकर जब वह अत्यन्त निर्वासनिक होगा, तभी भगवान की कृपा का पात्र बनेगा तथा आत्यन्तिक मोक्ष को प्राप्त करेगा, उसके बिना उसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती।”

फिर नृसिंहानन्द स्वामी ने पूछा कि, “क्या ऐसा कोई उपाय है कि इस जीवन में ही सभी कसर मिट जाए?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “यदि मुमुक्षु सावधान होकर अपनी साधना में जुट जाए, तो इसी जीवन में सब कसर मिट सकती है। यदि देहपर्यन्त कसर न मिटी हो, तो भी अगर वह अन्त समय में निर्वासनिक हो जाए तथा उसकी भगवान से अत्यन्त प्रीति हो जाए, तो अन्तकाल में भी भगवान की कृपा हो जाती है और वह भगवान के धाम को प्राप्त कर लेता है। इसलिए, एक देह अथवा अनन्त देहों से या अन्तकाल में मृत्यु के बीच एक घड़ी भी रही हो और उस समय भी यदि भगवान में उसकी दृढ़ वृत्ति जुड़ गई, तो उस भक्त में किसी भी प्रकार की कसर नहीं रहती।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ११ ॥ ८९ ॥

* * *

This Vachanamrut took place ago.


१२०. मुण्डकोपनिषद्: ३/१/३

१२१. गीता: ६/४५

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

Type: Keywords Exact phrase