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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ९

भगवान के प्रत्यक्षरूप की ही इच्छा

संवत् १८७६ में मार्गशीर्ष शुक्ला द्वादशी (२८ नवम्बर, १८१९) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्वेत वस्त्र धारण करके विराजमान थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में स्थान-स्थान के साधु और हरिभक्त उपस्थित थे।

उस समय श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “जिसने श्रीकृष्ण भगवान का प्रत्यक्षभाव से निश्चय कर लिया हो तथा उनकी भक्ति करता हो, एवं दर्शन करता हो, फिर भी जो स्वयं को पूर्णकाम न माने और अपने अंतःकरण में न्यूनभाव रखे कि, ‘गोलोक, वैकुंठादि धामों में विद्यमान रहनेवाले इन्हीं भगवान के तेजोमय रूप के दर्शन मुझे जब तक नहीं हुआ है, तब तक मेरा परिपूर्ण कल्याण भी नहीं हुआ है।,’ ऐसे अज्ञानी के मुख से भगवान की बात तक नहीं सुननी चाहिए। और जो भक्त प्रत्यक्ष भगवान के प्रति दृढ़ निष्ठा रखता हो तथा उनके दर्शन से ही स्वयं को परिपूर्ण मानता हो तथा अन्य किसी की अपेक्षा न रखता हो, उसे तो भगवान स्वयमेव बलपूर्वक अपने धाम में अपना ऐश्वर्य और अपनी मूर्तियाँ दिखाते हैं। इसलिए भगवान में जिसकी अनन्य निष्ठा हो, उसे प्रत्यक्ष भगवान के सिवा अन्य किसी की इच्छा नहीं करनी चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ९ ॥

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