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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

सारंगपुर १२

आत्मविचार

संवत् १८७७ में भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा (८ सितम्बर, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीसारंगपुर ग्राम-स्थित जीवाखाचर के राजभवन में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। वे श्वेत वस्त्र धारण किए हुए थे। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय निर्विकारानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि, “साधु में कौन-से गुण अखंड रहते हैं और कौन-से गुण आते-जाते हैं?”

श्रीजीमहाराज बोले कि, “एक तो आत्मनिष्ठा, दूसरा स्व-धर्म तथा तीसरा भगवान के स्वरूप का निश्चय, ये तीन गुण तो साधु में निरंतर रहते हैं। अन्य गुण आते भी हैं और जाते भी हैं। परन्तु ये तीन गुण तो उन सन्त में अखंड बने रहते हैं।”

फिर मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “यदि देह और आत्मा की भिन्नता को समझ लिया हो, तब भी उसे भूलकर जीव पुनः देहाभिमानी क्यों हो जाता है?”

तब श्रीजीमहाराज ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि, “देह और आत्मा की भिन्नता को एक बार यदि अच्छी तरह समझ लिया हो, तो वह पुनः विस्मृत नहीं होती। और, ऐसा यदि माने कि मैं देह हूँ, तो भी देह अपना रूप नहीं माना जा सकता। और, भगवान सम्बंधी निश्चय भी एक बार सुदृढ़ हो गया, तो पुनः मिटाने पर भी नहीं मिटता। कभी-कभी उसे मन में ऐसा होता है कि आत्मबुद्धि मिटकर देहबुद्धि आ जाती है, किन्तु यह मन का मिथ्या भ्रम है। क्योंकि उसे देहाभिमान तो उदित ही नहीं होता। और, ऐसा जो परिपक्व ज्ञानी होता है, उसे आत्मा का ही अभिमान दृढ़ रहता है। वह अपनी आत्मा को ब्रह्मरूप मानता है; तथा वह यह भी मानता है कि उस ब्रह्म में परब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान अखंड रूप से विराजमान हैं। एवं उसे उन भगवान के स्वरूप का निश्चय भी निरंतर बना रहता है।”

पश्चात् स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी ने पूछा कि, “अपनी आत्मा के सम्बंध में किस प्रकार विचार करना चाहिए?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “जब द्रष्टा जीवात्मा अन्तःकरण के सामने देखता है, तब बाह्य स्थूल शरीर एवं उसके सम्बंधी समस्त विषय विस्मृत हो जाते हैं। और, अन्तःकरण एवं द्रष्टा इन दोनों के बीच जो विचार बना रहता है, उस विचार के द्वारा मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि के रूपों को जान लेना, बाद में विचार की दृष्टि से अन्तःकरण के संकल्पों के सामने देखते रहना। इस तरह देखते-देखते जब संकल्प मात्र स्थिर हो जाए, तब भगवान की मूर्ति का ध्यान करना। और, जब तक संकल्पों का बल बना रहे तब तक उन संकल्पों के सामने देखते रहना, किन्तु ध्यान नहीं करना।

“और जब स्थूल देह में पंच ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों की ओर उन्मुख होती हैं, तब विचार को दो प्रकार में बाँट देना: एक तो यह कि इन्द्रियाँ जिन विषयों में आसक्त हो गई हैं, उन विषयों के सम्बंध में विचार करना। तथा दूसरा प्रकार यह है कि इन्द्रियों के गोलक में जो द्रष्टा है, उस आत्मा परक विचार करना। ऐसा करने से विषयों के विचार तथा द्रष्टा सम्बंधी आत्मापरक विचार दोनों का एकीकरण हो जाता है। इसके पश्चात् जीव की वृत्ति उन विषयों से बिल्कुल टूट जाती है। यदि इस प्रकार बिना विचार के ही वृत्ति को विषयों से जबरन हटाया गया, तो वृत्तियों में रही विषयों की आसक्ति मिटेगी नहीं। परन्तु यदि वृत्तियों को विषयों से विचारपूर्वक लौटा लिया गया, तो उसकी आसक्ति पुनः विषयों में रहेगी ही नहीं!

“अतः जब तक इन्द्रियों की वृत्ति विषयों से प्रीति करने में लगी रहे, तब तक भगवान का ध्यान नहीं करना, और जब इन्द्रियों की वृत्ति स्थिर हो जाए, तब भगवान का ध्यान करना। जब द्रष्टा स्थूल देह में बरतता हो, तब स्पष्ट वर्गीकरण कर डालना चाहिए कि स्थूल देह में बरतते समय सूक्ष्म देह के संकल्पों की ओर ध्यान देना ही नहीं! परन्तु जब अन्तःकरण के सम्मुख देखना, तब स्थूल देह की ओर से बिल्कुल मुकर जाना। द्रष्टा और दृश्य के मध्य में रहनेवाले विचार द्वारा यह समझना कि, ‘द्रष्टा और दृश्य नितान्त भिन्न हैं। ऐसा विवेक रखकर देह के भावों को देह में और द्रष्टा (चैतन्य) के भावों को चैतन्य में लय कर देना। और, बाल्यावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था, स्थूलता, कृशता, जीवन, मरण आदि सब देह के भाव हैं, उन्हें आत्मा में मानना ही नहीं! तथा अछेद्य, अभेद्य, अजर, अमर, ज्ञानरूप, सुखरूप और सत्तारूप जो आत्मा के भाव हैं, उन्हें कभी भी देह में नहीं समझना। यह आत्मविचार तब तक त्याग न करें, जब तक (मायिक) संकल्पों का बल रहता हो! जैसे कोई राजा बलवान् शत्रु के रहते राजगद्दी पर बैठकर भी सुख नहीं भोग सकता, किन्तु शत्रुमात्र का नाश होने पर ही वह अपने राज्य के वैभवों का उपभोग कर सकता है, वैसे ही भगवान के भक्त को मन तथा इन्द्रियरूपी शत्रुओं द्वारा पीड़ित किए जाने तक पूर्वोक्त विचार की दृढ़ता रखना तथा जब मन और इन्द्रियों के संकल्पों का शमन हो जाए, तब परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान करना।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १२ ॥ ९० ॥

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