Show Shravan Audio
Play Nirupan Audio॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
सारंगपुर १३
शास्त्र-वचनों में विश्वास; अविचल निश्चय
संवत् १८७७ में भाद्रपद शुक्ला द्वितीया (९ सितम्बर, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीसारंगपुर ग्राम-स्थित जीवाखाचर के राजभवन में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। वे श्वेत वस्त्र धारण किए हुए थे। उनके सभा में समक्ष मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे।
तब मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “भगवान के स्वरूप का निश्चय होने के बाद यदि वह मिट जाता है, तो उस मुमुक्षु को यथार्थ निश्चय हुआ था या नहीं?”
इसके उत्तर में स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी बोले कि, “जिसे अपनी जीवात्मा में निश्चय हुआ हो, वह तो किसी भी तरह नहीं टलता। फिर भी शास्त्रों की रीति जानकर यद्यपि निश्चय कर लिया, तो परमेश्वर यदि ऐसा चरित्र करें कि शास्त्रों में ऐसे चरित्र का कहीं उल्लेख तक न हो, तो उसे देखकर कोई मुमुक्षु का भगवान संबन्धी निश्चय होकर भी मिट जाता है।”
यह सुनकर श्रीजीमहाराज बोले, “शास्त्रों में परमेश्वर का सामर्थ्य, उनकी असमर्थता, कर्तृत्व एवं अकर्तृत्व - आदि अनेक बातें बताई गई हैं। अतः ऐसा कौन-सा चरित्र परमेश्वर ने दिखाया होगा, जो शास्त्रों के विपरीत होगा जो देखकर उसका निश्चय समाप्त हो गया? इस प्रश्न का उत्तर दीजिए।”
तब समस्त मुनि बोले, “जो शास्त्र-सम्मत न हो, ऐसा तो परमेश्वर का कोई चरित्र नहीं है। इसलिए, हे महाराज! अब यह बताइए कि भगवान का निश्चय होने के बाद भी क्यों मिट जाता है?”
तब श्रीजीमहाराज ने कहा, “जिसे भगवान का निश्चय होता है, वह शास्त्रों के द्वारा ही होता है, क्योंकि शास्त्रों में परमेश्वर के लक्षण भी कहे होते हैं और सन्त के लक्षण भी लिखे होते हैं। अतः शास्त्र के द्वारा जो निश्चय होता है, वही अविचल रहता है, किन्तु बिना शास्त्र के अपने मन से ही निश्चय किया हो, तो वह निश्चय मिट जाता है। धर्म की प्रवृत्ति के कारण भी शास्त्र ही हैं। जिन्होंने शास्त्रों का कभी भी श्रवण नहीं किया है, ऐसे जीवों में भी माता, बहन, पुत्री और स्त्री सम्बंधी विवेक-द्योतक धर्म की मर्यादा आज तक चली आ रही है, उसके कारण भी शास्त्र ही हैं। क्योंकि सर्व प्रथम किसी ने शास्त्रों में से ही ऐसी बात सुनी है, जो परम्परा द्वारा सभी लोगों में प्रचलित हुई है। इसलिए, जिसे भगवान सम्बंधी निश्चय होकर भी मिट जाता है, उसे शास्त्रवचनों में विश्वास ही नहीं है। वह तो मनमानी बात करनेवाला है और नास्तिक है। जिसे शास्त्रों में प्रतीति होती है, वह कभी परमेश्वर से विमुख होता ही नहीं। क्योंकि शास्त्रों में भगवान के अनेक प्रकार के चरित्र हैं। अतः परमेश्वर चाहे जैसे चरित्र करें, फिर भी वे शास्त्रों से विपरीत होते ही नहीं। अतः जिसे शास्त्र-वचनों में विश्वास होता है, उसी को भगवान के स्वरूप का निश्चय अटल बना रहता है और कल्याण भी उसी का होता है। वह कभी भी धर्मच्युत होता ही नहीं।”
॥ इति वचनामृतम् ॥ १३ ॥ ९१ ॥
This Vachanamrut took place ago.