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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

सारंगपुर १४

प्रमाद तथा मोह

संवत् १८७७ में भाद्रपद शुक्ला तृतीया (१० सितम्बर, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीसारंगपुर ग्राम-स्थित जीवाखाचर के राजभवन के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने काले पल्ले की श्वेत धोती धारण की थी, सफ़ेद चादर ओढ़ी थी, मस्तक पर श्वेत पगड़ी बाँधी थी, कानों में पीत पुष्पों के गुच्छ लगाए हुए थे और पाग में पीले फूलों के तुर्रे धारण किए थे। उनके कंठ में पीत पुष्पों का हार नाभि तक लटकता हुआ सुशोभित हो रहा था। श्रीजीमहाराज पश्चिम की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी ने पूछा कि, “भगवान ने गीता में कहा है कि जो भगवद्भक्त भगवान के वैकुंठादि धामों को प्राप्त होते हैं, वहाँ से उन्हें लौटना नहीं पड़ता।१२२ फिर भी, वहाँ से जिसका पतन होता है, वह किस दोष से हुआ करता है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “भगवान के धाम को प्राप्त करके, वहाँ से कौन गिरा है, हमें एक तो बताइए!”

स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी ने कहा, “वैकुंठ से भगवान के जय-विजय नामक पार्षदों का पतन हुआ तथा गोलोक से राधिकाजी तथा श्रीदामा को भी पृथ्वी पर लौटना पड़ा।”

फिर श्रीजीमहाराज बोले कि, “जय-विजय को भगवान ने इसलिए गिराया कि अपने सच्चे सन्त की महिमा से सब अवगत हों। जैसे ‘सनकादि के समान साधु से जो भी द्रोह करेगा, तो वैकुंठादि के समान धामों को प्राप्त करके भी उसका पतन हो जाया करता है।’ और जय-विजय तो अपने तीसरे जन्म में पुनः भगवान के वैकुंठधाम में पहुँच गए। इसलिए, इन्हें गिरे हुए नहीं कह सकते! वह पतन भगवान की इच्छा से हुआ था। वास्तव में भगवान के धाम से गिरा हुआ उसे कहा जाता है, जिसका भगवान से पुनः किसी भी प्रकार से सम्बंध ही न रहे। और गोलोक से राधिकाजी को लौटना पड़ा, वह भी भगवान की ही इच्छा थी। स्वयं भगवान को भी मनुष्य-देह धारण करके अनंत जीवों का उद्धार करना था तथा अपने कल्याणकारी चरित्रों का विस्तार करना था। इसलिए, कोई राधिकाजी का ‘पतन’ कहेगा, तो उनके साथ भगवान भी ‘गिरे हुए’ कहलाएँगे। अतः जो कोई भगवान की इच्छा से ही गोलोक से पृथ्वी पर अवतरित हुआ, तो उसे गिरा हुआ नहीं कहा जाता। वहाँ तो भगवान की इच्छा को ही सर्वोपरि मानना। क्योंकि भगवान की इच्छा से तो अक्षरधाम से भी (कोई मुक्त) पृथ्वी पर देह धारण करे, और जड हो, वह भी चैतन्य हो जाए, और चैतन्य हो, वह जड हो जाए; क्योंकि भगवान तो अत्यन्त समर्थ हैं, वह जो करे, सो हो सकता है। परन्तु, उस भगवान की इच्छा के बिना, भगवान के धाम को प्राप्त कर कोई गिरता ही नहीं है। और जो गिरता है, वह तो आधुनिक अपक्व भक्त होता है। और जिसका साधनाकाल से ही पतन होता है, उसे योगभ्रष्ट कहा जाता है, परन्तु वैराग्य, आत्मनिष्ठा, भगवान की भक्ति तथा ब्रह्मचर्यादि धर्म द्वारा जो ‘सिद्ध’ होते हैं, वे श्वेतद्वीपनिवासी मुक्तजनों के सदृश हैं। उनका कभी भी पतन नहीं होता।”

इतनी वार्ता कहने के बाद श्रीजीमहाराज ने कहा, “लीजिए, अब हम एक प्रश्न पूछते हैं।”

मुनियों ने कहा कि, “पूछिए।”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “महाभारत के उद्योगपर्व में सनत्सुजात ऋषि ने धृतराष्ट्र से कहा है कि: ‘प्रमाद और मोह दोनों का त्याग करनेवाला सर्व प्रकार से भगवान की माया को तैर चुका है। और, प्रमाद एवं मोह का नाम ही माया है।’ अतएव, हम भगवान के त्यागी भक्त कहलाते हैं, फिर जिसको प्रमाद और मोह रहते होंगे और वह भक्त यदि भगवान की महिमा के बल को लेकर प्रमाद और मोह को मिटाने में सावधानी नहीं बरतेगा, तो वह भक्त अपने जीवनकाल में कैसा सुख भोगेगा तथा मरकर कैसे सुख को प्राप्त करेगा? यह प्रश्न है।”

स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी ने उत्तर दिया कि, “भगवान का भक्त भगवान के माहात्म्य का अत्यंत बल ग्रहण करके प्रमाद एवं मोह के न मिटने पर भी उसके सम्बंध में कुछ अधिक चिन्ता नहीं करता।”

तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “भगवान के जिस भक्त में प्रमाद और मोह रहे हों, उन्हें मिटाने की सावधानी रखता हो, उसमें क्या कमी है? तथा जो उन्हें मिटाने की सतर्कता नहीं रखता उसमें कौन-सी विशेषता है?”

तब स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी बोले कि, “भगवान की महिमा का बल रखता है तथा अपने साधन का बल नहीं रखता, इसलिए वह विशेष ही है।”

तब श्रीजीमहाराज ने संशय किया कि, “प्रमाद और मोहरूपी शत्रु रहने पर भी जो पुरुष गाफ़िल रहता है, उसे आप श्रेष्ठ कहते हैं, जैसे कोई पतिव्रता स्त्री अपने पति के भय से पतिव्रता धर्म रखने की आशंका से मन में अत्यन्त सतर्कता रखते हुए किसी पुरुष से हँसकर ताली नहीं लेती। उसके मन में यह डर लगा रहता है कि, ‘मैं गफ़लत रखूगी, तो मेरा पति मुझे व्यभिचारिणी समझेगा और मेरी सेवा को अंगीकार नहीं करेगा, जिससे मेरे पतिव्रता धर्म में बाधा पड़ेगी,’ ऐसा समझकर सावधान रहती है। वैसे ही जो भक्त ऐसी पतिव्रता भक्ति रखता है और प्रमाद तथा मोह को मिटाने की सावधानी बरतता है, उसमें तो आप भारी दोष बताते हैं। जैसे कोई स्त्री अपने मनमाने पुरुष के साथ हँस-बोलकर घूमती-फिरती है तथा पतिव्रता धर्म का पालन करने की सावधानी भी नहीं बरतती, वैसे ही जो भक्त प्रमाद और मोह को टालने की सावधानी नहीं रखता, उसे आप श्रेष्ठ बतलाते हैं। यह आपकी उल्टी समझ नहीं है तो क्या है? और जो गफ़लत रखेगा, फिर वह भगवान का भक्त होगा, तो भी उसके समक्ष प्रमाद तथा मोह नामक दो शत्रु बाधा डाले बिना नहीं रहेंगे। जैसे मदिरा और भांग पीने का नशा विमुख पुरुष को भी चढ़ता है, वैसे ही भगवान के भक्त को भी चढ़ता है और वह भी पागल बन जाता है। उसी तरह, मदिरा और भाँगरूपी प्रमाद तथा मोह जैसे विमुख जीव को बाधा डालते हैं, वैसे ही भगवान के भक्त को भी विघ्न उपस्थित करते हैं। तथा विमुख जीव और हरिभक्त में केवल इतना ही अन्तर है कि, ‘विमुख से ये दोनों शत्रु टलते नहीं, किन्तु भगवान का भक्त यदि सावधानी रखकर उन्हें टालने का उपाय करे, तो इन दोनों शत्रुओं का नाश हो सकता है।’ भगवान के भक्त में इतनी विशिष्टता रहती है। किन्तु जो गफ़लत रखता है, वह यदि भगवद्भक्त हो फिर भी अच्छा नहीं है।”

श्रीजीमहाराज ने पुनः प्रश्न किया कि, “स्थूल शरीर कितने तत्त्वों का है और सूक्ष्म शरीर कितने तत्त्वों का है? तथा स्थूल देह में तथा सूक्ष्म शरीर में समान तत्त्व हैं या कुछ न्यूनाधिक हैं? इन दोनों शरीरों के स्वरूप बताइए।”

स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी इस प्रश्न का उत्तर देने लगे, किन्तु वे यथार्थ उत्तर न दे सके। तब समस्त मुनि बोले, “हे महाराज! कृपया आप ही इसका उत्तर दीजिए।”

फिर श्रीजीमहाराज बोले कि, “स्थूल शरीर पृथ्वी आदि पंचमहाभूत नामक पाँच तत्त्वों का है। और, सूक्ष्म शरीर पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों, पाँच प्राणों, चार अन्तःकरणों, इन उन्नीस तत्त्वों का है। उस स्थूल शरीर में भी जब सूक्ष्म शरीर अनुस्यूत भाव से रहता है, तभी समस्त क्रियाएँ यथार्थ रूप से होती हैं, परन्तु उसके बिना नहीं होतीं। क्योंकि कान, नेत्र आदि इन्द्रियों के गोलक से युक्त जो स्थूल शरीर है, उसमें उन इन्द्रियों सहित सूक्ष्म शरीर मिलता है, तब उन इन्द्रियों के विषयों का ग्रहण होता है, परन्तु केवल स्थूल देह के गोलकों से ग्रहण नहीं होता। अतएव, पंचतत्त्वों के स्थूल शरीर में उन्नीस तत्त्वों का सूक्ष्म शरीर अनुस्यूत रूप से मिला है। इसलिए स्थूल देह में भी चौबीस तत्त्व निहित हैं।

“और, सूक्ष्म देह में भी पंच तत्त्वों का स्थूल शरीर एकत्वरूप से रहता है, तभी सूक्ष्म देह के भोग सिद्ध होते हैं। और, सूक्ष्म शरीर उन्नीस तत्त्वों का है, उनमें पाँच तत्त्वों का स्थूल शरीर मिलता है, अतः सूक्ष्म शरीर भी चौबीस तत्त्वों का है। और, यदि सूक्ष्म देह में स्थूल देह अवस्थित है, तो सूक्ष्म शरीर में स्त्री का संग करने से स्थूल देह में वीर्यपात हो जाता है। अतः स्थूलदेह एवं सूक्ष्मदेह की जाग्रत अवस्था में एवं स्वप्नावस्था में एकता है।”

मुनि ने पुनः प्रश्न किया कि, “हे महाराज! इस प्रकार स्थूल देह के सदृश ही सूक्ष्म देह हुई, तब जैसे स्थूल देह में कर्मों का बन्धन रहता है, वैसे ही सूक्ष्म देह में भी कर्मबन्धन रहता है या नहीं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “स्थूल देह में अपनेपन की जैसी दृढ़ मान्यता है, वैसी ही मान्यता यदि सूक्ष्म देह में हो, तो स्थूल देह के कर्मों के समान सूक्ष्म देह में भी कर्म-बन्धन हो जाता है। और, सूक्ष्म देह के कर्मों को जो अल्प कहा गया है, वह तो जीव को हिम्मत दिलाने के लिए कहा गया है। और, जिसे स्थूल देह और सूक्ष्म देह में (कर्तृत्व का) अभिमान नहीं होता, उसे स्थूल या सूक्ष्म शरीरों से किए गए कर्मों का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि वह केवल आत्मस्वरूप ही रहता है। ऐसे आत्मज्ञानियों को स्थूल तथा सूक्ष्म देह सम्बंधी कर्मों का बन्धन नहीं होता।

“और आत्मज्ञानी इस शरीर से अशुभ कर्म तो करता ही नहीं है, फिर भी प्रारब्ध के अनुसार जो सुख-दुःख आते हैं, उन्हें वह भोगता है, और इन सुख-दुःखों को भोगता हुआ ऐसा मानता है कि, ‘मैं इनका भोक्ता नहीं, बल्कि आत्मा हूँ।’ और जो अज्ञानी देहाभिमानी हो, उसे स्थूल देह अथवा सूक्ष्म देह सम्बंधी सभी कर्म लगते हैं। तब वह उन कर्मों के अनुसार सुखदुःख भी भोगता है। क्योंकि अज्ञानी पुरुष जिस विषय को भोगता है, उसे भोगता हुआ वह स्वयं को देहरूप समझकर ऐसा मानता है कि, ‘मैं इस विषय का भोक्ता हूँ।’ फिर जब उसका अन्त समय आता है, तब उस अज्ञानी जीव को यम के दूत दिखाई पड़ते हैं। उस स्थिति में उसे देह की विस्मृति और मूर्छावस्था हो जाती है। इसके पश्चात् यमदूत आकर शरीर से जीव को अलग करते हैं। तब उस जीव को प्रेत का शरीर प्राप्त होता है, जिसके द्वारा वह यमपुरी के कष्टों को भोगता है।

“और भगवान के ज्ञानी भक्त को तो अन्त समय में भगवान अथवा उनके सन्त के दर्शन होते हैं। उस जीवात्मा को अन्त समय में देह विस्मृति हो जाती है और मूर्छावस्था होती है, फिर वह शरीर को छोड़कर अलग होता है। तब उस भक्त को भगवान भागवती शरीर प्रदान करते हैं, जिसे धारण कर वह भगवान के धाम में निवास करता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १४ ॥ ९२ ॥

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१२२. गीता: १५/६

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