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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
सारंगपुर १५
मुग्धा, मध्या और प्रौढा गोपियाँ
संवत् १८७७ में भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी (११ सितम्बर, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीसारंगपुर ग्राम-स्थित जीवाखाचर के राजभवन में कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।
श्रीजीमहाराज ने प्रश्न किया कि, “लीजिए, एक प्रश्न करते हैं कि भगवान के दो प्रकार के भक्त हैं। इनमें से एक भक्त को तो भगवान से अत्यन्त प्रीति रहती है और भगवान के दर्शन के बिना उससे क्षणमात्र भी रहा नहीं जाता। और, भगवान के प्रति उसका प्रेम ऊपर से बहुत दिखाई पड़ता है। तथा भगवान का जो अन्य भक्त है, उसे आत्मनिष्ठा भी दृढ़ है, तथा वैराग्य भी परिपूर्ण है एवं भगवान के प्रति प्रीति भी है, फिर भी उसका प्रेम पहले भक्त के समान मालूम नहीं होता। और, पूर्वोक्त भक्त में यद्यपि आत्मनिष्ठा और वैराग्य नहीं है, तथापि उसकी भक्ति लोगों में बहुत आदरपात्र होती है। किन्तु, आत्मनिष्ठा तथा वैराग्ययुक्त रहने पर भी अन्य भक्त की भगवद्भक्ति पहले बताए गए भक्त की भांति ‘अच्छी’ नहीं दिखती। इन दो प्रकार के भक्तों में किसकी भक्ति श्रेष्ठ है और किसकी भक्ति कनिष्ठ है?”
तब स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी ने उतर दिया कि, “आत्मनिष्ठा तथा वैराग्य न रहने पर भी जिसे भगवान से अत्यन्त प्रेम है, वही श्रेष्ठ है।”
यह सुनकर श्रीजीमहाराज ने तर्क किया कि, “जिसे वैराग्य और आत्मनिष्ठा नहीं है, उसे आप कौन-सी बुद्धि से श्रेष्ठ बताते हैं? क्योंकि वह तो देहाभिमानी है, इसलिए जब इसे शारीरिक सुख मिलेगा और ऐसे पंचविषयों का योग होगा, तब इसको विषयों में आसक्ति हो जाएगी। तब इसे भगवान से वैसी प्रीति नहीं रहेगी। फिर, आप इसे श्रेष्ठ क्यों कहते हैं?”
तब स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी बोले कि, “जिसे विषयों से प्रीति हो, उसे हम भगवत्प्रेमी नहीं कहते। हम तो गोपियों जैसे भक्तों के लिए यह बात बताते हैं।”
परंतु श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “गोपियाँ कहीं भोलीभाली नहीं थीं। वे तो आत्मनिष्ठा एवं वैराग्ययुक्त विवेकशील भक्तों से भी बढ़कर समझदार थीं। जैसे कोई राजनीतिज्ञ हो, और वह उच्चारण करता हो, ऐसा गोपियों का वाक्चातुर्य था; और वे भगवान को भी जैसा जानना चाहिए, वैसा (महिमापूर्वक) यथार्थरूप से जानती थीं।
“और, समस्त यादवों में अतिशय बुद्धिमान तथा भगवान के प्रधान सचिव उद्धवजी भी गोपियों की अध्यात्म-समझ को देखकर गद्गदकंठ हो गए और बोले थे कि, ‘ज्ञान की बातें बताने के लिए मुझे गोपियों के पास भेजकर भगवान ने मुझ पर अत्यन्त अनुग्रह किया है।’१२३ यद्यपि वे स्वयं गोपियों को उपदेश देने के लिए गए थे, किन्तु वहाँ गोपियों के वचनों को सुनकर उन्होंने स्वयं उनसे उपदेश ग्रहण किया।
“यदि आप कहेंगे कि, ‘गोपियाँ ऐसी बुद्धिमती नहीं थीं,’ किन्तु, उनमें मुग्धा, मध्या तथा प्रौढ़ा नामक तीन प्रकार के भेद थे।
“उनमें मुग्धा का लक्षण यह है कि वह भगवान को खूब चकमा देती हैं, फिर ऐसे वचन बोलती रहती हैं कि, ‘हम आपके लिए कर-करके मर गए, तो भी आप उस पर नज़र नहीं डालते।’ ऐसा कहने पर अगर उसे अधिक छेड़ा जाए, तो वह भगवान से रूठकर तुच्छ-सा वचन बोलने लगती हैं, उस समय सुननेवालों को ऐसा मालूम होने लगता है कि ये अभी-अभी विमुख हो जाएँगी। अतः शास्त्रों में जिनके इस प्रकार के वचन हों, उन गोपियों को ‘मुग्धा’ समझना चाहिए। और, ‘मध्या’ तो किसी भी दिन भगवान के सामने रोष नहीं करती, और व्यंग्य-वचन भी नहीं बोलती, वह चतुराई एवं युक्तिपूर्वक अपना स्वार्थ दूसरे को नहीं मालूम होने देती। और, अपने स्वार्थ को साधती हुई थोड़ा-बहुत भगवान की मरज़ी के अनुसार भी करती हैं परंतु केवल भगवान की ही पसन्द के अनुसार नहीं बरततीं। और, यदि उसे भगवान की ही मरज़ी के अनुसार करना पड़े, तो भी कुछ अपनी बात भी मनवाने की युक्ति अवश्य ढूँढ़ निकालती हैं। शास्त्रों में जिन गोपियों के ऐसे वचन हों, उनको ‘मध्या’ जानना।
“और, जो प्रौढ़ा होती हैं, वह तो केवल भगवान की पसन्द के अनुसार ही चलती हैं, किन्तु किसी प्रकार से अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए युक्ति नहीं खोजती। वे केवल भगवान को प्रसन्न करने का ही सोचती हैं, तथा भगवान जिस प्रकार से प्रसन्न रहें, उसी तरह वे स्वयं को भी प्रसन्न रखती हैं। और, वे अपनी बराबरी की गोपियों पर ईर्ष्या और क्रोध करती ही नहीं! तथा मान-मत्सर आदि समस्त विकारों का परित्याग करके भगवान की सेवा में ही तत्पर रहती हैं। और, वह कभी भी मन, कर्म तथा वचन द्वारा ऐसा कोई भी आचरण नहीं करती, जिससे भगवान अप्रसन्न हो जाएँ। शास्त्रों में जिनके ऐसे वचन हों, उन गोपियों को ‘प्रौढ़ा’ समझना चाहिए।
“इस प्रकार मुग्धा, मध्या तथा प्रौढ़ा गोपियों के भेद हैं। वस्तुतः गोपियों की समझ में अतिशय विवेक था। इसलिए, उनकी प्रीति को अविवेकपूर्ण नहीं कहा जा सकता। और गोपियाँ भगवान की महिमा को यथार्थरूप से जानती थीं। उस महिमा के प्रताप से ही उनके हृदय में आत्मनिष्ठा तथा वैराग्य की भावना सहज बनी रहती थी। इसलिए, उन गोपियों के हृदय में आत्मनिष्ठा तथा वैराग्य आदि अनेक कल्याणकारी गुण भगवान के माहात्म्य के प्रताप से सम्पूर्ण बने हुए थे।
“और, ऐसे भक्तों की रीति यह है कि वे केवल भगवान सम्बंधी ही शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध नामक पाँच विषयों की इच्छा करते हैं, परन्तु अन्य मायिक विषयों की इच्छा नहीं करते। तथा भगवान सम्बंधी पंचविषयों में अतिशय स्नेह के कारण उसको वैराग्य और आत्मनिष्ठा यदि न भी हो, तो भी उनके हृदय में भगवान के सिवा जगत के किसी भी अन्य संकल्प का स्थान नहीं होता। और जैसे वर्षा नहीं हुई हो, तब नाना प्रकार के तृण-बीज पृथ्वी पर कहीं भी नहीं दिखाई पड़ते, किन्तु वर्षा होते ही इतने तृण उगने लगते हैं कि पृथ्वी कहीं दिखाई नहीं पड़ती। वैसे ही आत्मनिष्ठा और वैराग्य रहित पुरुष को यद्यपि भगवान के सिवा अन्य किसी भी विषय के संकल्प मालूम नहीं होते, फिर भी जब उसे कुसंग का योग होगा, तब मायिक विषयों के संकल्प होने लगेंगे तथा बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाएगी, तब उसके हृदय में परमेश्वर की स्मृति भी नहीं रहेगी, तथा अखंड रूप से विषयों का ही ध्यान बना रहेगा। तब वैराग्य तथा आत्मनिष्ठा रहित प्रेमी को ऐसा आभास होने लगेगा कि, ‘मुझे भगवान से लेशमात्र भी प्रीति नहीं है।’ अतएव, आत्मनिष्ठा तथा वैराग्य से रहित जो प्रेमी भक्त दिखाई पड़ता हो, वह तो अत्यन्त न्यून है। और, जिसमें आत्मनिष्ठा एवं वैराग्य के रहते कदाचित् भगवान के प्रति साधारण सी प्रीति ही होगी, तो वह ऐसा मानता है कि, ‘मेरी जीवात्मा में ही भगवान की मूर्ति अखंडरूप से विराजमान है।’ ऐसा जानकर ऊपर से यद्यपि भगवान की मूर्ति के दर्शन-स्पर्शादि के सम्बंध में आतुरता जैसा कुछ दिखता नहीं है और शान्तभाव दिखाई पड़ता है, तो भी उसकी प्रीति की जड़ें गहरी हैं। सो किसी भी कुसंग के योग से उसकी प्रीति कम नहीं हो सकती। इसी कारण वह श्रेष्ठ है तथा एकान्तिक भक्त है।”
॥ इति वचनामृतम् ॥ १५ ॥ ९३ ॥
This Vachanamrut took place ago.
१२३. श्रीमद्भागवत: १०/४७/२७-२८