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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

सारंगपुर १६

श्रीनरनारायण ऋषि का तप

संवत् १८७७ में भाद्रपद शुक्ला पंचमी (१२ सितम्बर, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीसारंगपुर ग्राम-स्थित जीवाखाचर के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। वे श्वेत वस्त्र धारण किए हुए थे। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

उस समय परमानन्द स्वामी ने प्रश्न किया कि, “श्रीमद्भागवत में कहा गया है१२४ कि, ‘श्रीनरनारायण ऋषि बदरिकाश्रम में रहते हुए इस भरतखंड के समस्त मनुष्यों के कल्याण तथा सुख के लिए तप करते रहते हैं।’ तब सभी मनुष्य कल्याण के मार्ग में प्रवृत्त क्यों नहीं होते?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “इसका उत्तर श्रीमद्भागवत के पंचम स्कन्ध में है कि: ‘ये भगवान अभक्तों के लिए नहीं बल्कि अपने भक्तों के लिए ही तप करते हैं।’ वह कैसे? तो इस भरतखंड में अतिशय दुर्लभ मनुष्य शरीर के महत्त्व को समझकर जो-जो मनुष्य भगवान की शरण में जाते हैं तथा भक्ति करते हैं, उन पर अनुग्रह करने के लिए तपस्वी-सदृश वेषधारण करनेवाले श्रीनरनारायण भगवान कृपापूर्वक भारी तपस्या करते हैं। और, अपने में निरन्तर अधिकाधिक रूप से रह रहे धर्म, ज्ञान, वैराग्य, उपशम तथा ऐश्वर्यादि गुणों से युक्त तपस्या करते हुए, वे भगवान इस जगत में रात्रिप्रलय होने तक बदरिकाश्रम में रहे हैं। और, भरतखंड में निवास करनेवाले अपने भक्तों के धर्मज्ञानादिक गुण अति अल्प होने पर भी, उन भगवान के गुणयुक्त तप के प्रताप से, उनमें थोड़े ही समय में अतिशय वृद्धि हो जाती है। इसके बाद भगवान की इच्छा से दीखनेवाले अक्षरब्रह्ममय तेज में साक्षात् श्रीकृष्ण भगवान के दर्शन होते हैं। इस प्रकार भगवान के तप द्वारा भगवद्भक्तों का निर्विघ्न कल्याण होता है। परन्तु, भगवान के जो भक्त नहीं हैं, उनका कल्याण नहीं होता। इस प्रकार इस प्रश्न का उत्तर है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १६ ॥ ९४ ॥

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१२४. श्रीमद्भागवत: १०/८७/६

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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