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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

सारंगपुर १७

मुक्तों के प्रकार-भेद

संवत् १८७७ में भाद्रपद शुक्ला षष्ठी (१३ सितम्बर, १८२०) को सायंकाल श्रीजीमहाराज श्रीसारंगपुर ग्राम-स्थित जीवाखाचर के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “भगवान का भजन करनेवाले जीव की दृष्टि जैसे-जैसे सूक्ष्म होती जाती है, वैसे-वैसे उसको परमेश्वर की महत्ता विदित होती जाती है तथा भगवान की महिमा भी अधिकाधिक मालूम होती जाती है। जैसे कि जब वह भक्त स्वयं को देहरूप मानता हो, तब वह भगवान को जाग्रत, स्वप्न एवं सुषुप्ति का साक्षी समझता है, तथा जब वह स्वयं को जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति से परे समझता है, तब भगवान तो उसे उससे भी परे भासित होते हैं। फिर उसकी जैसे-जैसे सूक्ष्म दृष्टि होती जाए, वैसे-वैसे वह भगवान को अपने से परे जानता है, और उनकी महिमा को भी विशेष रूप से समझता रहता है। इसके बाद जैसे-जैसे अपनी वृत्ति प्रेमपूर्वक भगवान के साथ लगती जाए, वैसे वैसे उपासना अत्यन्त दृढ़ होती जाती है।

“यहाँ एक दृष्टान्त है कि: समुद्र से अगाध मीठे जल से यद्यपि चींटी जाकर पानी पीए, तथा चिडिया भी पीए, तथा मनुष्य, पशु, घोड़ा, हाथी तथा बड़े-बड़े मगर-मच्छ, सभी जल पीकर बलवान बनते हैं, फिर भी वह अगाध जल लेशमात्र भी कम नहीं होता। और जिस-जिस जीव की जितनी अधिक शक्ति होती है, उतनी शक्ति के अनुसार वह समुद्र की महिमा अधिक जान लेता है।

“और दूसरा भी दृष्टांत देखें: जैसे आकाश में मच्छर, चिड़िया, चोल, बाज, अनल पक्षी तथा गरुड़ आदि सभी उड़ते हैं, फिर भी इन सबके लिए आकाश अपार का अपार ही रहता है। और जिसके पंखों में अधिक शक्ति होती है, वह आकाश की महिमा को अधिक जान लेता है और अपनी न्यूनता समझ जाता है। वैसे ही मरीच्यादि प्रजापतियों के समान अल्प उपासना वाले भक्त मच्छर सदृश हैं; और ब्रह्मादि की तरह उससे अधिक उपासना करने वाले भक्त चिड़िया के समान हैं; और विराटपुरुषादि की तरह उससे अधिक उपासना वाले भक्त चील जैसे हैं; और प्रधानपुरुष की तरह उससे अधिक उपासना वाले भक्त बाज जैसे हैं; और उससे अधिक उपासना वाले भक्त शुद्ध प्रकृति-पुरुष के समान अनल पक्षी सदृश हैं। उससे अधिक उपासना वाले भक्त अक्षरमुक्त के समान गरुड़ जैसे हैं।१२५ इस प्रकार ये सब भक्त ज्यों-ज्यों विशिष्ट सामर्थ्य को प्राप्त करते जाते हैं, त्यों-त्यों भगवान की महिमा को विशेष रूप से जानते जाते हैं। और, ये जैसे-जैसे विशेष सामर्थ्य को वे प्राप्त करते गए, वैसे-वैसे भगवान में उनका स्वामी-सेवक का नाता भी अत्यन्त दृढ़ होता गया है।

“और जब भजन करनेवाला जीवरूप था, तब उस जीव में खद्योत जितना प्रकाश था। इसके पश्चात् जैसे-जैसे भगवद्भजन करते-करते उसका (मायिक) आवरण हटता गया, वैसे-वैसे प्रकाश भी अधिक प्राप्त होता चला। जैसे कि प्रथम वह दीप जैसा हुआ, फिर मशाल जैसा हुआ, फिर अग्नि की ज्वाला जैसा हुआ, फिर दावानल जैसा हुआ, फिर बिजली जैसा हुआ, फिर चन्द्रमा जैसा हुआ, फिर सूर्य जैसा हुआ, फिर प्रलय काल की अग्नि जैसा हुआ, और अन्त में महातेज के सदृश हो गया। इस प्रकार प्रकाश में भी वृद्धि हुई और सामर्थ्य भी बढ़ता गया। इसके साथ-साथ आनंद भी बढ़ता गया। ऐसे खद्योत से लेकर महातेज पर्यन्त आद्य, मध्य और अन्त के जो भेद बताए गए हैं, वे सब मुक्तों के भेद हैं।१२६ सो जैसे-जैसे वे उच्च स्थिति को प्राप्त करते गए तथा भगवान की महिमा को अधिकाधिक जानते गए, वैसे-वैसे उनके मुक्तपन में विशेषता आती गयी।”

इतना कहकर श्रीजीमहाराज ‘जय सच्चिदानन्द’ बोलते हुए उठकर खड़े हुए। बाद में इमली की टहनी को पकड़कर पूर्व की ओर मुखारविन्द करके बोले कि, “जैसे पूर्णिमा का चन्द्रमंडल यहाँ से यद्यपि छोटी थाली जैसा दिखाई पड़ता है, परन्तु जैसे-जैसे उसके समीप जाते हैं, वैसे-वैसे वह बड़ा दिखाई पड़ता है। किन्तु, जब उसके अत्यन्त निकट जाते हैं, तब वह इतना विशाल दिखाई देता है कि दृष्टि भी नहीं पहुँच सकती। वैसे ही मायारूप अन्तराल के मिटने के बाद जैसे-जैसे भगवान के निकट हुआ जाता है, वैसे-वैसे भगवान की भी अत्यन्त अपार महत्ता विदित होती जाती है, और भगवान के प्रति दासभाव भी अत्यन्त दृढ़ होता जाता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १७ ॥ ९५ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


१२५. अनल पक्षी तथा गरुड़ के दृष्टांत से कहे गए इस विधान के द्वारा श्रीहरि ने प्रकृतिपुरुष एवं अक्षरमुक्त में स्थितिभेद का वर्णन किया है। यहाँ उल्लेखनीय है कि वचनामृत गढ़डा मध्य १२ तथा वचनामृत गढ़डा मध्य ३१ में प्रकृति के साथ संलग्न होनेवाले पुरुष को ही अक्षरमुक्त कहा गया है - इन परस्पर विरोधी विधानों का समाधान इस प्रकार है कि प्रकृति के साथ संलग्न होनेवाले पुरुष तो प्रवृत्ति-परक है, तथा अन्य अक्षरमुक्त निवृत्ति परक है। दोनों में इतना भेद कहा जाएगा, परंतु दोनों की प्राप्ति तथा स्थिति में कोई अंतर नहीं है।

१२६. यहाँ मुक्तों के भेद दिखाए गये हैं, वह अक्षरमुक्तों के भेद नहीं है। अक्षरधाम स्थित तमाम अक्षरमुक्त तो ब्रह्म का साधर्म्य प्राप्त करके समान रूप से भगवान के दिव्य आनंद का उपभोग किया करते हैं। परंतु यहाँ उपासना में भेद होने के वैकुंठ आदि धामों को प्राप्त हुए हैं, उनके ये भेद हैं। अर्थात् जिसने भगवान स्वामिनारायण को जिस अवतार के समान समझा, उसे उस अवतार के धाम की प्राप्ति हुई। इस प्रकार मुक्तों में भेद हो गये।

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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