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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

सारंगपुर १८

खार भूमि

संवत् १८७७ में भाद्रपद शुक्ला अष्टमी (१५ सितम्बर, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीसारंगपुर ग्राम-स्थित जीवाखाचर के राजभवन में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने सफ़ेद धोती धारण की थी, श्वेत चादर ओढ़ी थी और मस्तक पर श्वेत पाग बाँधी थी। वे उत्तर की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “जो श्रद्धावान पुरुष हो, उसको यदि सच्चे सन्त का संग मिल जाए तथा वह उनके वचनों में श्रद्धावान हो जाए, तो उसके हृदय में स्वधर्म, वैराग्य, विवेक, ज्ञान, भक्ति आदि सर्व कल्याणकारी गुण प्रकट हो आते हैं तथा उसके हृदय से काम-क्रोधादि विकार भस्म हो जाते हैं। और अगर उसे कुसंग मिल गया और वह कुसंगी के वचनों में श्रद्धावान हो गया, तो वैराग्य, विवेकादि सभी गुणों का नाश हो जाता है। जैसे खार भूमि में चाहे कितनी ही वर्षा क्यों न हो, किन्तु उसमें तृणादि नहीं उगते। उसी खारभूमि में अगर भारी वर्षा के कारण बाढ़ आ जाए, तो वहाँ का खार धुल जाता है। और, जिस जगह खार था, वहाँ नयी मिट्टी बहकर आ जाती है। उस मिट्टी के साथ यदि बड़, पीपल आदि वृक्षों के बीज आ गए हों, तो उनके बीज उगकर बड़े-बड़े वृक्ष खड़े हो जाते हैं। वैसे ही जिसके हृदय में पूर्वोक्त स्व-धर्म आदि गुणों की दृढ़ता रही हो, तथा संसार सम्बंधी विषयसुखों का अंकुर भी उसके हृदय में नहीं उग सकते, ऐसी दृढ़ता हो, फिर भी यदि उसे कुसंग मिल गया, तो उसके हृदय में कुसंगरूपी जल के वेग से सांसारिक वार्तारूप नयी मिट्टी आकर जम जाती है। बाद में उस मिट्टी में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सरादि के बीज उगकर विशाल वृक्ष बन जाते हैं। इसलिए, भगवान के भक्तों को कभी भी कुसंग नहीं करना चाहिए।

“और, यदि स्वयं में कोई कुस्वभाव हो, तो उसे सन्त-समागम द्वारा समझ-विचार कर टाले तो वे स्वभाव मिट जाते हैं। यदि मूर्खतापूर्वक उन्हें टालने के कितने ही उपाय किए जाएँ, तो भी बुरा स्वभाव नहीं मिट पाता। और, मूर्ख पुरुष को जब उद्वेग होता है, तब वह या तो सोया करता है या रोता है या किसी से झगड़ा करने लगता है अथवा उपवास करता है। इन चार प्रकार से अपनी व्यग्रता को टालने का प्रयास करता है। ऐसा करने पर भी यदि भारी उद्विग्नता बनी रही, तो आखिर में वह आत्महत्या भी कर लेता है। इस प्रकार मूर्ख पुरुष अपनी बेचैनी को दूर करने का उपाय करता है। परन्तु, ऐसा करने से दुःख नहीं मिटता, और कुस्वभाव भी नहीं मिटते। यदि वह समझपूर्वक दुःख तथा कुस्वभाव को टालना चाहे, तो वे टल सकते हैं। इसलिए, विवेकशील पुरुष ही सुखी होता है। जैसे अग्नि की बड़ी ज्वाला पर वर्षा का पानी पड़ जाए, तो वह तुरन्त बुझ जाती है, किन्तु बिजली से उत्पन्न होनेवाली अग्नि का प्रकाश भले ही थोड़ा दिखाई पड़ता हो, फिर भी वह मेघमंडल में छिपी रहने पर भी नहीं बुझती, वैसे ही बिना विवेक के (समझ के), चाहे कितना ही वैराग्य हो या भगवान से प्रीति हो, तो भी अग्नि की ज्वाला जिस प्रकार जल से बुझ जाती है, उस प्रकार कुसंगरूपी पानी से उन ज्वालारूपी गुणों का नाश हो जाता है। अतः समझ के साथ वैराग्य और प्रीति बनी रहे तो वे गुण बिजली की अग्नि के समान अल्प मात्रा में रहने पर भी उनका नाश नहीं होता।”

फिर निर्विकारानन्द स्वामी ने पूछा, “हे महाराज! यदि किसी पुरुष में क्रोधादिक बुरे स्वभाव हो, तो वे टलते हैं या नहीं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिस तरह बनिया जितना व्यापार करता है, उसका हिसाब लिख लेता है, वैसे ही जिसने सत्संग के प्रारम्भ दिन से ही अपना लेखा लिख रखा हो, उसके बुरे स्वभाव मिट जाते हैं। और, वह तो ऐसा सोचता रहता है कि, ‘मैंने जब सत्संग नहीं किया था, तब मेरा इतना मलिन स्वभाव था, किन्तु सत्संग करने के बाद इतना उत्तम स्वभाव हो चुका है।’ इस तरह प्रतिवर्ष अपनी प्रगति होती हो या उसमें कुछ अंतर रहता हो, उस सभी की जाँच किया करे; परन्तु मूर्ख बनिया जिस तरह अपना हिसाब नहीं लिखता है, उसके समान आचरण न करे। इस प्रकार सत्संग करके जो अपनी प्रगति की जाँच-पड़ताल करता रहता है, उसके जो-जो दुष्ट स्वभाव होते हैं, वह सभी नष्ट हो जाते हैं।”

यह सुनकर मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “जब कुसंग हुआ तो बुरा स्वभाव होगा ही। किन्तु सन्त का संग करने के बाद भी अगर मलिन स्वभाव हो जाता है, तो उसका क्या कारण है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “जब बाल-अवस्था होती है, तब काम-क्रोध-लोभादि शत्रु नहीं होते और भगवान से भी विशेष प्रीति बनी रहती है। फिर जब युवावस्था आती है, तब कामादि शत्रु बढ़ जाते हैं तथा देहाभिमान भी बढ़ जाता है। बाद में यदि वह कामादि शत्रुओं तथा देहाभिमान से रहित सन्त का संग करता है, तो वह युवावस्थारूपी समुद्र को पार कर लेता है। यदि वह ऐसा नहीं करता, तो कामादि शत्रुओं द्वारा पराजित होने पर भ्रष्ट हो जाता है। और, जिसकी प्रौढ़ावस्था हो और सत्संग करने पर भी यदि वह पथभ्रष्ट होता है, तो उसका कारण यह है कि ऐसा मनुष्य सत्पुरुष में जिस-जिस तरह के दोषों की कल्पना करता है, उस-उस प्रकार के दोष हृदय में आकर समा जाते हैं। यदि वह बड़े सत्पुरुष के गुणों का ग्रहण कर ले और ऐसा माने कि, ‘सत्पुरुष जो जो स्वभाव रखते हैं, वह तो जीवों के कल्याण के लिए हैं। बड़े सत्पुरुष तो निर्दोष हैं। मुझे उनमें जो दोष दिखाई पड़ा, वह तो मेरी कुमति की कल्पनामात्र है।’ ऐसा विचार करके सत्पुरुष के गुणों को ग्रहण करें और अपने अपराध के लिए उनसे क्षमायाचना करें। ऐसा करने से उस पुरुष की मलिनता मिट जाती है।”

महानुभावानन्द स्वामी ने पूछा कि, “राजसिक, तामसिक तथा सात्त्विक गुणों के स्वभाव साधना करने पर टल जाते हैं या नहीं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “ये समस्त स्वभाव टालने से टल जाते हैं।”

फिर महानुभावानन्द स्वामी ने पूछा, “यद्यपि दुर्वासा आदि मुक्त पुरुष हुए हैं, फिर भी उनकी तामसिक मनोवृत्ति क्यों रही है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “दुर्वासा आदि में जो तमोगुण आदि मायिक गुण रहे हैं वह वे इसलिए हैं, कि वे स्वयं इन गुणों को स्वेच्छा से रखना चाहते हैं। वे ऐसा मानते हैं कि, ‘कुमार्ग पर चलनेवाले पुरुषों को शिक्षा देने के लिए यह जो तमोगुण है, वह बहुत अच्छा है।’ ऐसा सद्‌गुण समझकर ही यह स्वभाव उन्होंने रखा है। अतः यदि स्वयं में जो कुस्वभाव हो और उसे अवांछनीय समझा जाए कि, ‘मैं भगवान का भक्त हूँ, इसलिए मुझे ऐसा बुरा स्वभाव नहीं रखना चाहिए,’ इस प्रकार उसे दोषरूप जानकर जो जो स्वभावों को दूर करने की इच्छा करेगा तो भगवान के प्रताप से उसके उन बुरे स्वभावों की निवृत्ति हो जाएगी।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १८ ॥ ९६ ॥

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