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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
कारियाणी १
कीट-भँवरी का दृष्टांत; जीव में भगवत्स्वरूप का निश्चय
संवत् १८७७ में भाद्रपद शुक्ला द्वादशी (१९ सितम्बर, १८२०) को श्रीकारियाणी ग्राम-स्थित वस्ताखाचर के राजभवन में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में सूरत के हरिभक्त जादवजी छप्पर पलंग लाए थे, उसे बिछाया गया था। पलंग पर रेशमी गद्दा डाला गया था, जिस पर रेशमी चादर बिछी थी। उस पर सफ़ेद तकिया और लाल मशरूम के घुटना-तकिए रखे हुए थे। उस पलंग पर चारों ओर सुनहरे तार के सेजबंद लटक रहे थे। ऐसे सुसज्जित पलंग पर श्रीजीमहाराज उत्तर की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे। उन्होंने सुनहरे पल्ले का सफ़ेद फेंटा मस्तक पर बाँधा था, सुनहरे पल्ले का शेला बाँध रखा था और काले पल्ले की सफ़ेद धोती धारण की था। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे। उस समय समस्त भक्तजन श्रीजीमहाराज के मुखारविन्दरूपी चन्द्रमा को चकोर की भाँति देख रहे थे।
फिर श्रीजीमहाराज परमहंसों से बोले, “आपस में प्रश्नोत्तरी प्रारम्भ करिए।”
तब भूधरानन्द स्वामी ने पूछा कि, “भगवान सम्बंधी निश्चय अन्तःकरण में होता है या जीव में?”
फिर शिवानन्द स्वामी उसका उत्तर देने लगे, किन्तु यथार्थ उत्तर न दे सके।
अतः श्रीजीमहाराज ने उत्तर देते हुए कहा कि, “यह जीव बुद्धि द्वारा ‘जानता’ है, और वह बुद्धि ही समस्त ज्ञान का कारण है और सबसे बड़ी है। वह बुद्धि मन में रही है, चित्त में रही है, अहंकार में रही है, श्रोत्रेन्द्रिय में रही है, चक्षु-इन्द्रिय में रही है, घ्राणेन्द्रिय में रही है, जिह्वा में रही है, वाणी में रही है, त्वचा में रही है, हाथ-पैरों में रही है, शिश्न में रही है, तथा गुदा में रही है। इस प्रकार बुद्धि नख-शिखा पर्यन्त इस शरीर में व्याप्त होकर रही है। और, उस बुद्धि में जीव रहा है, परन्तु वह जीव प्रतीत नहीं होता, अकेली बुद्धि ही प्रतीत होती है।
“यहाँ एक दृष्टान्त है: जैसे अग्नि की ज्वाला वायु द्वारा बढ़ती है और घटती है, परन्तु ऐसी स्थिति में वायु नहीं दिखती है। और, अग्नि को कण्डे पर रखें, तो वह जलने लगता है, वहाँ अगर वायु नहीं रहती तो उसका धुआँ ऊँचाई तक सीधा चला जाता है। ऐसी स्थिति में भी वायु नहीं दिखाई देती। और, जैसे बादल आकाश में वायु द्वारा ही चलते हैं, तो बादल दिखाई पड़ते हैं, लेकिन उनकी गति के पीछे कारणभूत वायु का रूप नहीं दिखाई देता। वैसे ही ज्वाला, धुएँ और बादलों के स्थान पर बुद्धि को समझना और वायु के स्थान पर जीव को जानना। वह जीव कैसा है? तो बुद्धि द्वारा किए गए निश्चय को वह जानता है, तथा उस बुद्धि में निश्चय की समझ बैठानेवाले ब्रह्मा को भी जानता है। और, वह जीव मन के संकल्पों को जानता है एवं संकल्पों की पूर्ण समझ देनेवाले देवता - चन्द्रमा को भी जानता है, तथा चित्त की चिन्तनशीलता को जानता है, और उस चित्त के चिन्तन को विवेक देनेवाले वासुदेव को भी जानता है, तथा अहंकार की अहंमन्यता को जानता है तथा उस अहंकार की समझ को देनेवाले रुद्र को भी जानता है। इस प्रकार वह जीव चारों अन्तःकरणों, दस इन्द्रियों, उनके विषयों तथा उनके विवेकदायी देवताओं को एककालावच्छिन्न१२७ रूप से जानता है। ऐसा वह जीव एक देशस्थ ज्ञात होता है, तथा बरछी की नोक के समान तीक्ष्ण तथा अतिशय सूक्ष्म मालूम होता है। वह बुद्धि सहित है, इसीलिए इतना सूक्ष्म प्रतीत होता है; किन्तु उस जीव को जब देह, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण, देवता और विषय इन सभी का प्रकाशक जानते हैं, तब तो जीव बहुत बड़ा और व्यापक मालूम होता है,१२८ वह बुद्धिरहित है। और वह अनुमान द्वारा ज्ञात होता है, किन्तु साक्षात् रूप से वह नहीं दिखाई पड़ता। यहाँ पर एक दृष्टान्त और है: जैसे कोई मनुष्य दस मन की किसी तलवार को देखकर यह अनुमान लगा लेता है कि इस तलवार को उठानेवाला बहुत शक्तिशाली होगा, वैसे ही वह जीव समस्त देहों एवं इन्द्रियों आदि को प्रकाशित करता है, इसलिए अनुमान हो सकता है कि वह जीव वाकई बहुत बड़ा है।” श्रीजीमहाराज ने इस प्रकार उत्तर दिया।
तब नित्यानन्द स्वामी ने पूछा कि, “हे महाराज! इसमें उत्तर क्या हुआ?”
फिर श्रीजीमहाराज बोले कि, “इसमें तो यह उत्तर हुआ कि जब बुद्धि में निश्चय हुआ, तब जीव में भी निश्चय हो गया, ऐसा समझना। सबसे पहले इन्द्रियों में निश्चय होता है, फिर अहंकार में निश्चय होता है, फिर चित्त में निश्चय होता है, फिर मन में निश्चय होता है, तथा अन्त में बुद्धि में निश्चय होता है, इसके बाद जीव में निश्चय होता है।”
तब नित्यानन्द स्वामी ने पुनः पूछा कि, “हे महाराज! इन्द्रियों में निश्चय हुआ है, या अन्तःकरण में निश्चय हुआ है, या जीव में निश्चय हो चुका है, यह भेद किस प्रकार मालूम हो सकता है?”
तब श्रीजीमहाराज बोले, “इन्द्रियों में निश्चय हुआ इस प्रकार जानना चाहिए कि इस जगत में जितने पदार्थ हैं, वे देखने में, सुनने में, सूंघने में, स्पर्श करने में आते हैं, उनमें कुछ शुभ हैं और कुछ अशुभ हैं; कितने ही सुखरूप हैं और कितने ही दुःखरूप हैं; कितने ही प्रिय हैं और कितने ही अप्रिय हैं तथा कितने ही उचित हैं और कितने ही अनुचित हैं। ये सब यदि भगवान में दिखाई पड़ें, फिर भी भगवान के स्वरूप में कुछ भी संशय न हो, तब उस निश्चय को इन्द्रियों तक हुआ निश्चय समझना चाहिए। और, सत्त्व, रजस् तथा तमस् तीन गुणों के जो कार्य हैं, उनमें आलस्य एवं निद्रादि तमोगुण का कार्य है, काम-क्रोधादि रजोगुण का कार्य है तथा शम-दमादि सत्त्वगुण का कार्य है। यदि ये सब भगवान में दिखायी पड़ें और किसी भी तरह का भगवान में संदेह न रहे, तो उसे अन्तःकरण में भगवान का निश्चय जानना। जैसे ऋषभदेव भगवान निर्विकल्प समाधि में उन्मत्त होकर रहते थे, परन्तु (मृत्यु के समय) मुख में पत्थर रख दिया! तथा उन्हें दावानल में जल जाने पर भी अपनी देह की सुध नहीं रही,१२९ ऐसी गुणातीत स्थिति यदि भगवान में दिखाई पड़े और उसमें किसी प्रकार का संशय न रहे, तब जानना कि उसे जीव में निश्चय हुआ है।
“यहाँ एक दृष्टान्त है: जैसे समुद्र में जहाज़ चलता है, उसमें लोहे का लंगर रहा करता है। जहाज़ को सागर में स्थिर करने के लिए लंगर डाला जाता है, वह लंगर यदि पृथ्वी तक न पहुँचा हो, तो उसे तुरन्त खींच लेने में अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ता, वह तुरन्त बाहर निकल आएगा। यदि वह धरती तक पहुँच गया, तो बहुत परिश्रम के बाद निकल आता है, लेकिन यदि वह गहराई तक गड़ गया हो, तो बहुत खींचने पर भी निकल नहीं पाता। ठीक उसी प्रकार यदि जिसको जीव में निश्चय दृढ़ हो गया, तो वह निश्चय किसी तरह मिटाने पर भी नहीं मिटता।”
इस प्रकार श्रीजीमहाराज ने बहुत वार्ताएँ की, परन्तु यहाँ तो अल्पमात्र ही लिखी हैं।
फिर चैतन्यानन्द स्वामी ने पूछा कि, “हे महाराज! भगवान तो मन और वाणी से परे हैं तथा गुणातीत हैं; तब उन्हें मायिक इन्द्रियाँ और अन्तःकरण किस प्रकार प्राप्त कर सकते हैं? (यानी उनका निश्चय कर सकते हैं।)”
तब श्रीजीमहाराज बोले, “इस देह, इन्द्रियों तथा अन्तःकरण को जाननेवाला जीव जब सुषुप्ति-अवस्था में लीन हो जाता है, तब उसकी इन्द्रियाँ तथा अन्तःकरण भी सुषुप्ति में विलय हो जाते हैं। तब भगवान उस समय में जीव को प्रकाशमान१३० करते हैं। जब सुषुप्ति-अवस्था में से स्वप्नावस्था आती है, तब भगवान उस स्वप्नावस्था सम्बंधी स्थान, भोग, विषय तथा जीव को प्रकाशमान१३१ बनाते हैं तथा जाग्रत अवस्था को भी भगवान प्रकाशमान१३२ करते हैं। इस प्रकार भगवान रूपभाव१३३ एवं अरूपभाव१३४ से रहनेवाले जीव को प्रकाशमान करते हैं। इस प्रकार प्रधान में से महतत्त्व हुआ, महतत्त्व में से तीन प्रकार के अहंकार हुए तथा उन अहंकारों में से इन्द्रियों, देवताओं, पंचभूतों तथा पंचमात्राओं की उत्पत्ति हुई। इन सबको भी भगवान ने प्रकाशमान१३५ बनाया है। और इन सब तत्त्वों ने मिलकर विराट की रचना की। उस विराट को भी भगवान ने प्रकाश प्रदान किया है। और, ये सब जब माया में लीन हो जाते हैं, तब उस माया को भी भगवान प्रकाशमान बनाते हैं। इस प्रकार जीव और ईश्वर दोनों जब रूपभाव से रहते हैं, तब भगवान उन्हें प्रकाशमान करते हैं। जब यह जीव तथा ईश्वर नामरूप रहित होकर सुषुप्ति-अवस्था एवं प्रधान में रहते हैं, तब भी भगवान उन्हें प्रकाश प्रदान करते हैं, और काल को भी भगवान प्रकाशमान करते हैं, जो काल, मायादि तत्त्वों को नामरूप भाव को प्राप्त कराता है, और अरूपभाव को प्राप्त कराता है। ऐसे (महामहिमावंत) भगवान इन्द्रियों तथा अन्तःकरण द्वारा कैसे जाने जा सकते हैं, यही आपका प्रश्न है या नहीं?”
तब सब कहने लगे कि, “हाँ, महाराज! यही प्रश्न है।”
इसके पश्चात् श्रीजीमहाराज बोले, “इसका उत्तर इस प्रकार है कि ऐसे जो भगवान हैं, उनको इस जगत की उत्पत्ति तथा स्थिति को करना है, सो कुछ भी अपने लिए नहीं है। क्योंकि श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि:
‘बुद्धीन्द्रियमनःप्राणान् जनानामसृजत् प्रभुः।मात्रार्थं च भवार्थं च ह्यात्मनेऽकल्पनाय च ॥’१३६
“इस श्लोक में बताया गया है कि: ‘भगवान ने सब लोगों की बुद्धि, इन्द्रियों, मन तथा प्राणों का सृजन किया है। इनका सृजन मनुष्य के विषय के लिए भोगों, तथा जन्म एवं लोकान्तर में जाने तथा मोक्ष के लिए किया गया है।’ इसलिए, भगवान इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय भी मनुष्य के कल्याण के लिए करते हैं। वे अनेक प्रकार की संसृति करने से थके हुए जीवों के विश्राम के लिए ही प्रलय करते हैं। ऐसी रीति द्वारा समस्त प्रकार के जीवों के हित के लिए ये भगवान जब कृपा करके मनुष्याकार होते हैं, तब उन भगवान के सन्त का संग जो जीव करता है, वह (भगवत्स्वरूप को) क्यों नहीं जान पाए? वह अवश्य जान पाता है।”
तब भजनानन्द स्वामी ने पूछा, “हे महाराज! इस श्रुति में ऐसा क्यों कहा गया है कि: ‘यतो वाचो निवर्तन्ते, अप्राप्य मनसा सह।’”१३७
तब श्रीजीमहाराज प्रसन्न होकर बोले, “उसका तो यह रहस्य है कि जिस प्रकार पृथ्वी आकाश में रहती है, फिर भी वह आकाशभाव को प्राप्त नहीं होती, जल आकाश में रहने पर भी वह आकाशभाव को नहीं पाता, तेज आकाश में स्थित रहता है, किन्तु वह आकाशभाव को प्राप्त नहीं होता तथा वायु आकाश में रहने पर भी आकाशभाव को वह नहीं पाती, वैसे ही मन और वाणी भगवान को प्राप्त नहीं होते।”
तब नित्यानन्द स्वामी ने पूछा, “हे महाराज! श्रुति-स्मृति में ऐसा भी कहा गया है कि ‘निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति,’ ‘बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः।’”
तब श्रीजीमहाराज बोले, “यह तो हमने अभक्तों के मन और इन्द्रियों के लिए कहा है, परन्तु भक्तों के मन और इन्द्रियाँ तो भगवान के साक्षात्कार रूप को प्राप्त करती हैं। जैसे आकाश में स्थित पृथ्वी प्रलयकाल में आकाशरूप हो जाती है तथा जल भी आकाशरूप हो जाता है और तेज भी आकाशरूप हो जाता है एवं वायु भी आकाशरूप हो जाती है, वैसे ही भगवान के भक्तों के शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण और प्राण भगवान सम्बंधी ज्ञान से भगवान के आकाररूप तथा दिव्य हो जाते हैं, क्योंकि भगवान स्वयं दिव्यमूर्ति हैं। इसलिए, उन भक्तों के शरीर, इन्द्रियाँ और अन्तःकरण, सभी भगवान की इन्द्रियों, अन्तःकरण तथा देह के आकार रूप हो जाते हैं, अर्थात् दिव्य हो जाते हैं। यहाँ एक दृष्टान्त है: जैसे भँवरी कीड़े को पकड़ लेती है और उसे डंक मारकर उसके ऊपर गुंजार करती है, जिससे वह कीट उसी देह से तदाकार हो जाता है, परन्तु कीट का कोई अंग नहीं रहता, वह तो भँवरी के समान भँवरी ही हो जाता है। वैसे ही भगवान का भक्त भी इसी ही देह भगवदाकार हो जाता है। अर्थात् दिव्य हो जाता है। और, हमने जो यह वार्ता कही है, उसका सारांश यह है कि आत्मज्ञान सहित भक्तिनिष्ठावाले तथा केवल भक्तिनिष्ठावाले दोनों की यह गति कही गई है। फिर भी, केवल आत्मनिष्ठा वाले कैवल्यार्थी१३८ के देह, इन्द्रियाँ तथा अन्तःकरण भगवान की मूर्ति से तदाकारभाव प्राप्त नहीं करते। वह तो केवल ब्रह्मसत्ता को (निराकार अक्षरभाव को) प्राप्त होता है।”
इतनी वार्ता करने के बाद श्रीजीमहाराज ने कहा, “अब यह वार्ता यहीं तक रखिए, क्योंकि सभा में स्तब्धता छा गई है। इसलिए, कुछ अच्छे कीर्तन करिए।”
इतना कहकर वे स्वयं ध्यानस्थ हो गए और सन्त कीर्तनगान करने लगे।
॥ इति वचनामृतम् ॥ १ ॥ ९७ ॥
This Vachanamrut took place ago.
१२७. एक ही समय में एक साथ ही।
१२८. यहाँ जीवात्मा को ज्ञानशक्ति के द्वारा इन्द्रियाँ तथा अन्तःकरण आदि पूरे शरीर में व्यापक कहा गया है। परंतु वास्तव में तो वह अणुतुल्य सूक्ष्म है। अद्वैती लोग उसे आकाश की तरह व्यापक मानते हैं, उस मान्यता का श्रीहरि अस्वीकार करते हैं।
१२९. श्रीमद्भागवत: ५/६/७-८
१३०. तामसकर्म के फलरूप भोग को भुगतने के लिए शक्तिमान करते हैं।
१३१. राजसकर्म के फलरूप स्वप्न भोग को भुगतने के लिए शक्तिमान करते हैं।
१३२. सात्त्विककर्म के फलरूप भोग को भुगतने के लिए शक्तिमान करते हैं।
१३३. जाग्रत और स्वप्न में देह-इन्द्रिय आदि भावों से सहित।
१३४. सुषुप्ति में देह-इन्द्रिय आदि भावों रहित।
१३५. अपने-अपने कार्य के लिए शक्तिमान करते हैं।
१३६. श्रीमद्भागवत: १०/८७/२
१३७. मुंडक उपनिषद्: ३/१/३; गीता: ४/१०
१३८. कैवल्यार्थी अर्थात् आत्मा को ही परमात्मा माननेवाला; भक्तिरहित।