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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

कारियाणी २

शापित बुद्धि

संवत् १८७७ में आश्विन शुक्ला द्वितीया (९ अक्तूबर, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीकारियाणी ग्राम-स्थित वस्ताखाचर के राजभवन में उत्तरी द्वार के कमरे में विराजमान थे। वे श्वेत वस्त्र धारण किए हुए थे। उनके समक्ष सभा में परमहंस तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे।

श्रीजीमहाराज की आज्ञा से छोटे-छोटे परमहंस निकट आकर प्रश्नोत्तरी कर रहे थे। उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “अच्छा, हम एक प्रश्न पूछते हैं।”

तब सभी बोले, “पूछिए, महाराज!”

तब श्रीजीमहाराज ने प्रश्न पूछा कि, “किसी पुरुष की बुद्धि तो ऐसी होती है कि जिस दिन से सत्संग किया हो, उस दिन से वह भगवान तथा सन्त के दोष देखा करता है, परन्तु वह दोष उसके भीतर टिकता नहीं, मिट जाता है। इसी प्रकार, उसे भगवान तथा सन्त के गुण तथा दोष दिखते-मिटते रहते हैं, फिर भी वह सत्संग छोड़कर कभी भी नहीं जाता। क्योंकि वह बुद्धिमान है, अतः वह मानता है कि ऐसे सन्त पूरे ब्रह्मांड में कहीं भी नहीं हैं, और इन महाराज के सिवा दूसरा कोई भगवान नहीं है। इस समझ के कारण वह सत्संग में अडिग रहता है। जबकि अन्य पुरुष की ऐसी बुद्धि है कि वह सन्त अथवा भगवान में कभी भी दोष देखता ही नहीं। इन दोनों की बुद्धि तथा दोनों का भगवान सम्बंधी निश्चय भी एक समान है, किन्तु इनमें से एक की प्रवृत्ति दोष देखने की रहती है, जबकि दूसरा पुरुष इससे अलिप्त रहता है। यहाँ जो अवगुण-दोष देखता है, उसकी बुद्धि में कौन-सा दोष है? यह प्रश्न हम छोटे शिवानन्द स्वामी से पूछते हैं।”

छोटे शिवानन्द स्वामी इसका उत्तर देने लगे, किन्तु वे यथेष्ट उत्तर न दे सके। तब भगवदानन्द स्वामी ने कहा, “उस पुरुष की बुद्धि शापित है।”

फिर श्रीजीमहाराज बोले, “ठीक कहते हैं। इस प्रश्न का उत्तर यही है। जैसे जगत में कहा जाता है कि, ‘इसको तो किसी का शाप लगा है।’ शायद उसने बड़े सन्त अथवा किसी गरीब का दिल दुखाया है या माँ-बाप की सेवा नहीं की है, इसी कारण उन्होंने इसे शाप दिया है, जिससे उसकी ऐसी कुबुद्धि बनी हुई है।”

फिर भगवदानन्द स्वामी ने पूछा, “हे महाराज! इसकी शापित बुद्धि में किस प्रकार सुधार हो सकता है?”

श्रीजीमहाराज बोले, “इसका विश्लेषण तो यह है कि हमने अपने माथे पर जो वस्त्र बाँध रखा है, उस पतले वस्त्र को और दरी जैसे मोटे वस्त्र को समान परिश्रम से नहीं धोया जा सकता। यह पतला वस्त्र तो थोड़ा-सा साबुन लगाकर धो डालने पर वह तुरन्त साफ़ हो जाएगा। अगर मोटे वस्त्र को धोना हो, तो पहले तो उसे पानी में दो-चार दिन तक भिगोकर रखना पड़ेगा, इसके बाद इसे भट्ठी पर चढ़ाकर भाप देनी पड़ेगी, फिर साबुन लगाकर धोने से वह साफ़ हो पाएगा। वैसे ही जिसकी बुद्धि शापित है, वह अगर अन्य भक्तों के समान साधना करे, तो उसका दोष नहीं मिट पाएगा। उसे अन्य भक्त जिस प्रकार निष्कामी, निःस्वादी, निर्लोभी, निःस्नेही तथा निर्मानी रहते हैं, उनकी तरह ही नहीं रहना चाहिए। उसे तो अन्य निष्कामी रहते हों उससे विशेष रूप से निष्कामी रहना चाहिए। अन्य निर्लोभी रहते हों उससे विशेष रूप से निर्लोभी रहना चाहिए। अन्य निःस्वादी रहते हों उससे विशेष रूप से निःस्वादी रहना चाहिए। अन्य निःस्नेही रहते हों उससे विशेष रूप से निःस्नेही रहना चाहिए। तथा अन्य निर्मानी रहते हों उससे विशेष रूप से निर्मानी रहना चाहिए। और, उसे दूसरों के सोने के बाद एक घड़ी देर से सोना चाहिए, दूसरों की अपेक्षा अधिक मालाएँ फेरनी चाहिए तथा दूसरों के उठने से पूर्व घड़ीभर पहले ही उठ जाना चाहिए। इस प्रकार दूसरों की अपेक्षा ऐसे नियमों का विशेष पालन करने से ही उसकी शापित बुद्धि मिटेगी, अन्यथा वह कभी भी नहीं मिटेगी।”

फिर बड़े शिवानन्द स्वामी ने बड़े योगानन्द स्वामी से प्रश्न किया कि, “कर्म मूर्तिमान हैं या अमूर्त?”

तब बड़े योगानन्द स्वामी ने कहा, “मुझे नहीं लगता कि मैं इसका उत्तर दे सकूँगा।”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “वस्तुतः कर्म तो अमूर्त हैं, और इन कर्मों के परिणामस्वरूप होनेवाले शुभाशुभ फल मूर्तिमान होते हैं। और नास्तिक लोग ही कर्मों को मूर्तिमान कहते हैं,१३९ वरना यह स्पष्ट है कि कर्मात्मक क्रिया कभी भी मूर्तिमान नहीं होती।”

इस प्रकार श्रीजीमहाराज ने बहुत-सी वार्ताएँ की। उनमें से ये तो अल्पमात्र लिखी गई हैं।

॥ इति वचनामृतम् ॥ २ ॥ ९८ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


१३९. जैन दर्शन में जीव, अजीव आदि सात तत्त्वों का स्वीकार किया गया है। इनमें अजीव तत्त्व के अन्तर्गत पुद्गल का समावेश होता है। यह पुद्गल मूर्तिमान है। पुद्गलों की वर्गणा ही कर्मरूप बनकर जीवों को बंधन करती है। इस प्रकार पुद्गल मूर्तिमान होने के कारण कर्म को भी मूर्तिमान कहा है। (तत्त्वसमाससूत्र: १/४; ५/१,४; ८/२)

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