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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

कारियाणी ३

बाह्य प्रकृति से मनुष्य को परखना कठिन

संवत् १८७७ में आश्विन कृष्णा सप्तमी (२८ अक्तूबर, १८२०) को सायंकाल श्रीजीमहाराज श्रीकारियाणी ग्राम-स्थित वस्ताखाचर के राजभवन में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने सिर पर श्वेत फेंटा बाँधा था, सफ़ेद धोती धारण की थी तथा श्वेत चादर ओढ़ी थी। वे उत्तर की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे। उनके समक्ष सभा में परमहंस तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

उस समय श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “ये शुकमुनि बहुत बड़े साधु हैं। जिस दिन से ये हमारे पास हैं, उस दिन से इनकी उमंग चढ़ती ही दिखाई देती है। उसमें कभी मंदगति नहीं हुई। अतः ये तो मुक्तानन्द स्वामी के समान हैं।”

इतना कहने के पश्चात् श्रीहरि ने कहा कि, “मनुष्य को परस्पर लगाव होता है तो उसका कारण गुण है। और, एक और परस्पर अरुचि होती है, तो उसका कारण दोष-स्वभाव है। ऐसे गुण और दोषों की पहचान मनुष्यों की बाह्य प्रकृति से नहीं की जा सकती, क्योंकि कोई मनुष्य तो बिडाल की तरह नीची दृष्टि रखकर चलता है, परन्तु भीतर से वह अति कामी होता है। उसे देखकर कोई नासमझ आदमी ऐसा कहता है कि, ‘यह तो बहुत बड़ा साधु है।’ यदि कोई मनुष्य आँखें फ़ाडकर नज़र डालता रहता हो, तो उसे देखकर वह नासमझ कहता है कि, ‘यह तो असाधु है,’ चाहे क्यों न वह भीतर से महानिष्कामी हो! इसलिए शरीर की ऊपरी प्रकृति देखकर मनुष्य के अच्छे या बुरे होने की परीक्षा नहीं हो सकती। उसकी परीक्षा तो साथ में रहने पर होती है। साथ में रहते समय बोलने-चालने, खाने-पीने, सोने और उठने-बैठने आदि क्रियाओं से ही उसके स्वभाव की सही जानकारी मिलती है। विशेषकर गुण-अवगुण युवावस्था में ही ज्ञात होते हैं, किन्तु बाल्यावस्था तथा वृद्धावस्था में ये मालूम नहीं पड़ते, क्योंकि कोई बाल्यावस्था में ठीक न हो और युवावस्था में अच्छा होता है, तथा कोई बाल्यावस्था में अच्छा रहता है और युवावस्था में बिगड़ जाता है।

“जिस पुरुष को यह खटका लगा रहे कि, ‘मुझे यह जो संकल्प हुआ है, वह उचित नहीं है,’ और यदि वह इस संकल्प को टालने का निरन्तर प्रयास करता रहे, और जब तक बुरा संकल्प न मिटे, तब तक वह अपनी सावधानी को बनाए रखे, तो ऐसे स्वभाववाले की युवावस्था में प्रगति होती रहती है, किन्तु जिसे जागृति न हो और प्रमादी बना रहे, वह नहीं बढ़ पाता। और, जो अच्छा हो, उसका परिचय तो बाल्यावस्था से ही होने लगता है।”

इस सन्दर्भ में आपने अपने बचपन के त्यागी स्वभाव की बहुत-सी बातें कहीं। फिर बोले कि, “जो अच्छा जीव होता है, उसे बचपन से ही लड़कों की सोहबत अच्छी नहीं लगती। वह चटोरा भी नहीं होता और देह का दमन किया करता है। देखिए न, मुझे अपनी बाल्यावस्था में ही स्वामी कार्तिकेय की तरह ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि: ‘मेरे शरीर में माता का भागरूपी जो रक्त एवं मांस है, उसे न रहने दिया जाए।’ इसलिए अनेक प्रयत्न करके मैंने अपने शरीर को इतना सूखा दिया कि शरीर पर यदि चोट लग जाए, तो पानी की बूंद निकलती है, पर रक्त नहीं निकलता। इस प्रकार, जो अच्छा होता है, बाल्यावस्था से ही पहचाना जाता है।”

तब भजनानन्द स्वामी ने पूछा, “हे महाराज! मानसिक रूप से ऐसा विचार रखना उचित है या शरीर का दमन करना ठीक है?”

श्रीजीमहाराज बोले कि, “कुछ दोष तो शरीर के हैं, और कुछ मन के दोष हैं, दोनों को जान लेना चाहिए। उनमें शरीर के कौन-से दोष हैं? तो शिश्न-इन्द्रिय में बार-बार उत्तेजना और खुजलाहट होना, शरीरबल के आधिक्य के कारण कूद-कूदकर चलना, घडीभर में सभी को देख लेना, क्षणभर में नाना प्रकार के गन्धों को सूंघ लेना, बीस-पच्चीस कोस का मार्ग पैदल ही तय करना, बलपूर्वक किसी से भिड़कर उसकी हड्डियाँ तोड़ डालना तथा स्वप्न में वीर्यपात होना आदि दोष देह के दोष हैं। परन्तु ये दोष मन के नहीं हैं। इन शारीरिक दोषों के क्षीण हो जाने पर भी जब मन में काम, स्वाद, स्पर्श, गन्ध, शब्द, स्वाद के संकल्प तथा खाने-पीने या घूमने-फिरने के जो संकल्प बने रहते हैं, उन्हें मन के दोष जानना चाहिए। ऐसे मन और शरीर के दोषों को जानकर शारीरिक दोषों को शरीर का दमन करके टाल देना चाहिए। और, शरीर के क्षीण हो जाने के बाद मन के जो दोष रह जाएँ, उन्हें इस विचार द्वारा मिटा देना चाहिए कि, ‘मैं आत्मा हूँ; संकल्पों से भिन्न हूँ तथा आनंदरूप हूँ।’ इस प्रकार देह का दमन तथा आत्मविचार, ये दो बातें जिसमें हों, वे बड़ा साधु है। जिसे केवल शरीर का दमन ही है, किन्तु आत्मविचार नहीं, तो वह ठीक नहीं। तथा जो केवल विचार ही रखता है, किन्तु देह का दमन नहीं करता तो वह भी ठीक नहीं है! इसलिए, ये दोनों गुण जिसमें हों, वही श्रेष्ठ है। ये दोनों साधन तो गृहस्थ सत्संगी को भी सुदृढ़ रखना चाहिए, तब त्यागी को तो इन दोनों का अवश्यमेव पालन करना चाहिए।”

तब निष्कुलानंद स्वामी ने पूछा, “हे महाराज! इस प्रकार का आचरण विचार द्वारा होता है या वैराग्य द्वारा?”

श्रीजीमहाराज बोले कि, “यह तो बड़े सन्त की संगत द्वारा होता है। जिसको बड़े सन्त की संगत द्वारा भी ऐसी स्थिति सम्भव न हो सकी, वह महापापी है।”

ऐसा कहकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “त्यागी होकर भी जो पुरुष गृहस्थों को भोगने योग्य भोगों की इच्छा रखता है, तो वह घास खाता है, क्योंकि उसे वे भोग प्राप्त तो होंगे नहीं फिर भी वह ऐसे ही भोगों की इच्छा रखता है! अतएव, यही कहना पड़ेगा कि यह बात उसकी समझ में आई नहीं है। क्योंकि जिस गाँव में उसे जाना नहीं है, उसका नाम ही क्यों पूछा जाए? उसी प्रकार जिसने, जिस पदार्थ का त्याग किया हो, फिर यदि उन्हीं पदार्थों को पाने की अभिलाषा रखता है, तो क्या वह इसी देह द्वारा उपलब्ध हो सकता है? वह तो तभी संभव होगा, जब वह सत्संग से विमुख होगा। पर सत्संग में रहते हुए तो विषयभोगों की प्राप्ति नहीं हो सकती।

“अतः सत्संग में रहते हुए जो उन भोगों की इच्छा रखता है, वह मूर्ख है। क्योंकि जो सत्संग में रहेगा, उसे तो धर्म का पालन अवश्यमेव करना पड़ेगा। जैसे कोई स्त्री सती होने के लिए निकले, किन्तु अग्नि को देखकर वह लौट जाए, तो क्या उसके सम्बंधीजन उसको पीछे लौटने देगें? वे तो उसको जबरन जला देंगे। तथा कोई ब्राह्मणी विधवा होने पर भी सौभाग्य-वती स्त्री के सदृश वेश रखती है, तो उसके सम्बंधी लोग क्या उसे ऐसा परिधान धारण करने देंगे? कभी नहीं! वैसे ही, सत्संग में रहकर जो पुरुष अनुचित स्वभाव रखता है, वह इस प्रकार की बात नहीं समझ पाया है। यदि उसकी समझ में यह बात आई होती, तो ऐसा अनुचित स्वभाव नहीं रहता।”

इसी प्रकार बात करके श्रीजीमहाराज ‘जय स्वामिनारायण’ कहकर शयन के लिए पधारे।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३ ॥ ९९ ॥

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