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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
॥ सत्सङ्गदीक्षा ॥
प्रकाशकीय
ब्रह्मस्वरूप श्रीप्रमुखस्वामीजी महाराज के शताब्दी-पर्व पर, उनके आध्यात्मिक अनुगामी प्रकट ब्रह्मस्वरूप श्रीमहंतस्वामीजी महाराज द्वारा लिखित यह ग्रंथ आप सभी को समर्पित करते हुए आनंद की अनुभूति हो रही है।
युगों से प्रवाहित वैदिक सनातन हिंदू धर्म की आध्यात्मिक परंपरा को अनेक प्रकार से विस्तृत करनेवाले परब्रह्म भगवान श्रीस्वामिनारायण ने मौलिक अक्षरपुरुषोत्तम दर्शन प्रदान करके, कल्याण का एक शाश्वत मार्ग अनावृत किया है। शिक्षापत्री, वचनामृत आदि ग्रंथों की भेंट देकर उन्होंने बहुजनहितावह सर्वोत्तम आचार, व्यवहार, विचार और आध्यात्मिक साधना का जो मार्गदर्शन दिया है, उसमें वेदादि समग्र शास्त्रों का सार संगृहीत है। उसी परंपरा का अनुसरण करके, उनके अनुगामी गुणातीत गुरुवर्यों ने भी गत दो शताब्दियों से आध्यात्मिक धारा को प्रवाहित कर, असंख्य मुमुक्षुओं को आध्यात्मिकता के शिखर पर आसीन किया है और असंख्य मुमुक्षुओं को ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कराई है।
सम्प्रति मुमुक्षुओं को अनुभवपूर्ण आध्यात्मिक मार्गदर्शन सरलतापूर्वक प्राप्त होता रहे, इसलिए समस्त ज्ञान की धारा को संक्षेप में समाहित करके, प्रकट ब्रह्मस्वरूप महंतस्वामीजी महाराज ने गागर में सागर के समान इस ग्रंथ को अपने हाथों से लिखकर हमें दिव्य उपहार दिया है।
इस ग्रंथ की रचना का प्रारंभ उन्होंने नवसारी में, विक्रम संवत २०७६, वसंत पंचमी के पवित्र दिन, अक्षरपुरुषोत्तम दर्शन के प्रखर प्रवर्तक ब्रह्मस्वरूप शास्त्रीजी महाराज के प्राकट्य दिवस पर, ३० जनवरी, २०२० को किया था एवं भगवान श्रीस्वामिनारायण की प्राकट्य तिथि चैत्र शुक्ल नवमी के पवित्र दिन, २ अप्रैल, २०२० को इसकी पूर्णाहुति हुई थी। अविरत विचरण, निरंतर गतिमान सत्संग कार्यक्रम, भक्तों-संतों के साथ नित्य मुलाकात (नियमित बैठक, वार्ता आदि), निरंतर पत्र व्यवहार तथा बी.ए.पी.एस. स्वामिनारायण संस्था के विराट कार्यवहन के साथ-साथ कभी देर रात तक तो कभी प्रातः शीघ्र जागकर उन्होंने यह ग्रंथ रचा है। यह ग्रंथ लिखने के पश्चात् उन्होंने संस्था के विद्वान संतों के साथ विचार-विमर्श करके आवश्यकतानुसार भाषा को समृद्ध करने के लिए उनकी सेवाएँ भी ली हैं। जिनमें पूज्य ईश्वरचरणदास स्वामी, पूज्य विवेकसागरदास स्वामी, पूज्य आत्मस्वरूपदास स्वामी, पूज्य आनंदस्वरूपदास स्वामी, पूज्य नारायणमुनिदास स्वामी, पूज्य भद्रेशदास स्वामी आदि संतों के नाम उल्लेखनीय हैं।
इस ‘सत्संगदीक्षा ग्रंथ’ को ‘अक्षरपुरुषोत्तम संहिता’ नाम के शास्त्र के एक भाग के रूप में समाविष्ट किया गया है। ‘अक्षरपुरुषोत्तम संहिता’ भगवान श्रीस्वामिनारायण-प्रबोधित तत्त्वज्ञान और भक्ति की परंपरा को विशदरूप से निरूपित करनेवाला संस्कृत शास्त्र है। संस्था के विद्वान संत महामहोपाध्याय पूज्य भद्रेशदास स्वामी ने परम पूज्य महंतस्वामीजी महाराज की आज्ञा से ‘सत्संगदीक्षा’ शास्त्र को संस्कृत-श्लोकों के रूप में ग्रथित किया है। परम पूज्य महंतस्वामीजी महाराज ने ग्रंथ के मूल शब्दों के साथ संस्कृत-श्लोकों का भली-भाँति परीक्षण तथा उसकी सार्थकता का मूल्यांकन करके आवश्यक सूचन-परिष्कार भी किए हैं। इस प्रकार इस ग्रंथ का अंतिम स्वरूप उजागर हुआ।
वर्तमान में, नैनपुर में विराजमान महंतस्वामीजी महाराज ने गुरु पूर्णिमा के पवित्र अवसर पर, वेदोक्त विधिपूर्वक पूजन करके भगवान श्रीस्वामिनारायण, अक्षरब्रह्म श्रीगुणातीतानंद स्वामी, ब्रह्मस्वरूप श्रीभगतजी महाराज, ब्रह्मस्वरूप श्रीशास्त्रीजी महाराज, ब्रह्मस्वरूप श्रीयोगीजी महाराज तथा ब्रह्मस्वरूप श्रीप्रमुखस्वामीजी महाराज के चरणों में असीम भक्तिभाव पूर्वक यह ग्रंथ अर्पण किया।
इस ग्रंथ की भेंट देकर परम पूज्य स्वामीश्री ने हम सभी पर तथा आनेवाली अनेक पीढ़ियों पर महान उपकार किया है। उनके चरणों में ऋणानुभूतिपूर्वक इस ग्रंथ को प्रकाशित करते हुए हमें हर्ष की अनुभूति हो रही है।
आशा है कि यह संक्षिप्त ग्रंथ हमारी जीवनयात्रा के आध्यात्मिक पथ को अधिक सरल, सफल और सार्थक बनाएगा।
- स्वामिनारायण अक्षरपीठ
आषाढ कृष्ण प्रतिपदा, सन् २०२०
निवेदन
‘सत्संगदीक्षा’ ग्रंथ भगवान श्रीस्वामिनारायण के छठवें आध्यात्मिक अनुगामी प्रकट ब्रह्मस्वरूप श्रीमहंतस्वामीजी महाराज ने अपने करकमलों से गुजराती भाषा में लिखा है। यह ग्रंथ परब्रह्म श्रीस्वामिनारायण भगवान द्वारा प्रबोधित आज्ञा और उपासना के सिद्धांत प्रस्तुत करता है। इस ग्रंथ को महामहोपाध्याय भद्रेशदास स्वामी ने संस्कृत में श्लोकबद्ध किया है। यह सत्संगदीक्षा ग्रंथ ‘अक्षरपुरुषोत्तम संहिता’ नामक ग्रंथ का एक भाग है। ‘अक्षरपुरुषोत्तम संहिता’ भगवान श्रीस्वामिनारायण द्वारा उपदिष्ट सिद्धांतों और भक्ति के विविध आयामों को विशदरूप से शास्त्रीय शैली में निरूपण करनेवाला शास्त्र है।
भगवान श्रीस्वामिनारायण द्वारा दीक्षित परमहंस सद्गुरु प्रेमानंद स्वामी ने लिखा है -
‘अक्षरना वासी वा’लो आव्या अवनी पर...
अवनी पर आवी वा’ले सत्संग स्थाप्यो,
हरिजनोने कोल कल्याणनो आप्यो राज.’
अक्षराधिपति परब्रह्म भगवान श्रीस्वामिनारायण अत्यंत करुणार्द्र हो इस पृथ्वी पर पधारे तथा अनंत जीवों के परम कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने स्वयं ही परम कल्याणप्रद दिव्य सत्संग की स्थापना कर, वैदिक सनातन अक्षरपुरुषोत्तम सिद्धांत को प्रकाशित किया।
सहजानंद श्रीहरि के द्वारा प्रस्थापित सत्संग विशिष्ट है, अद्वितीय है। यह स्वामिनारायणीय सत्संग वैदिक सनातन अक्षरपुरुषोत्तम सिद्धांत को समर्पित विशिष्ट जीवनशैलीरूप है। इस विशिष्ट जीवनशैलीमय सत्संग का भगवान श्रीस्वामिनारायण के समय से लेकर आजपर्यंत लाखों सत्संगीजन अनुसरण कर रहे हैं। इस सत्संग के शाश्वतकालीन पोषण एवं संवर्धन के लिए, भगवान श्रीस्वामिनारायण ने अक्षरब्रह्मस्वरूप गुणातीत गुरु की परंपरा को इस लोक में अविच्छिन्न रखा है।
परब्रह्म श्रीस्वामिनारायण को अभिप्रेत सत्संग के मुख्य दो घटक हैं – आज्ञा और उपासना। आज्ञा और उपासना रूप ये सिद्धांत परावाणी-स्वरूप वचनामृत ग्रंथ में निरूपित हुए हैं। परमहंसों द्वारा रचित ग्रंथ एवं कीर्तन आदि में भी तत्-तत् स्थल पर ये सिद्धांत प्रतिबिंबित होते रहे हैं। अक्षरब्रह्म गुणातीतानंद स्वामी ने अपने उपदेशों में परब्रह्म भगवान श्रीस्वामिनारायण के सर्वोपरि स्वरूप एवं साधना संबंधी स्पष्टता करके इन सिद्धांतों को अनेक संतों एवं हरिभक्तों के जीवन में सुदृढ किया। ब्रह्मस्वरूप भगतजी महाराज की कथावार्ता के द्वारा गुणातीतानंद स्वामी अक्षरब्रह्म हैं एवं भगवान श्रीस्वामिनारायण परब्रह्म पुरुषोत्तम हैं, ऐसे सत्संग के दिव्य सिद्धांत गूंजने लगे। ब्रह्मस्वरूप शास्त्रीजी महाराज ने अपार कष्ट सहन कर श्रीहरि-प्रबोधित वैदिक सनातन अक्षरपुरुषोत्तम सिद्धांत को शिखरबद्ध मंदिरों के निर्माण द्वारा मूर्तिमान कर दिया। ब्रह्मस्वरूप योगीजी महाराज ने संघनिष्ठा, सुहृद्भाव और एकता के अमृत पिलाकर स्वामिनारायणीय सत्संग को अत्यधिक सुदृढ किया। उन्होंने बाल-युवा-सत्संग-प्रवृत्ति का विस्तार किया। साप्ताहिक सभाओं के द्वारा आज्ञा-उपासनारूप सत्संग का नित्य पोषण हो, ऐसी नूतन रीति का प्रवर्तन किया।
ब्रह्मस्वरूप प्रमुखस्वामीजी महाराज ने अथक परिश्रम से इस सत्संग का रक्षण और पोषण किया। समग्र भूमंडल में भव्य मंदिरों के निर्माण के द्वारा, वैदिक सनातन धर्म को अनुसृत शास्त्रों की रचना के द्वारा तथा अनेक युवाओं को साधुता के आभूषण से अभिमंडित कर, उन्होंने सत्संग की व्यापकता और गहनता दोनों का अभिवर्धन किया।
श्रीहरि के द्वारा प्रवाहित यह सत्संग भागीरथी आज भी प्रकट ब्रह्मस्वरूप महंतस्वामीजी महाराज की छत्रछाया में अनेक मुमुक्षुओं को परम मुक्ति का पीयूषपान करवा रही है। एक सहस्र से अधिक संतों एवं लाखों हरिभक्तों का समुदाय, सत्संग के सिद्धांतों से दीक्षित होकर धन्यता का अनुभव कर रहा है; एक इष्टदेव, एक गुरु और एक सिद्धांत को जीवन का केन्द्र बनाकर एकता और दिव्यता के परमसुख की अनुभूति कर रहा है।
संप्रदाय में भगवान श्रीस्वामिनारायण के समय से लेकर समय-समय पर आज्ञा और उपासना के सिद्धांतों को परिपुष्ट करते विविध शास्त्रों की रचना होती आई है। उनमें तत्त्वज्ञान, आंतरिक साधना, भक्ति की रीति, आचारपद्धति इत्यादि के निरूपण के द्वारा सत्संग की जीवनशैली का प्रतिपादन हुआ है। संप्रदाय के अनेक शास्त्रों में निरूपित इन सिद्धांतों का सार, सरल शब्दों में तथा संक्षिप्त में संकलित हो और उसे एक ग्रंथ का आकार दिया जाए - ऐसी प्रकट ब्रह्मस्वरूप महंतस्वामीजी महाराज की दीर्घ समय से इच्छा थी। अतः उन्होंने इस विषय पर वरिष्ठ संतों के साथ विचार-विमर्श भी किया। अंततः सबकी विनती से उन्होंने स्वयं इस ग्रंथ के लेखन की सेवा को सहर्ष स्वीकार किया।
इस ग्रंथ में भगवान श्रीस्वामिनारायण साक्षात् परब्रह्म पुरुषोत्तम नारायण हैं, सर्वोपरि सर्वकर्ता, सदा दिव्य साकार, और प्रकट हैं; गुणातीत गुरु अक्षरब्रह्म हैं, परमात्मा के अखंड धारक होने से प्रत्यक्ष नारायणस्वरूप हैं, मुमुक्षुओं के लिए शास्त्रोक्त ब्राह्मी स्थिति का आदर्श हैं; उनके प्रति दृढ प्रीति और आत्मबुद्धि साधना का सार है – इत्यादि सिद्धांतों की स्पष्टता हुई है। अक्षररूप होकर पुरुषोत्तम की दासभाव से भक्ति करनी चाहिए, यह सिद्धांत यहाँ सम्यक् प्रतिपादित हुआ है। इसके साथ ही आंतरिक साधना में आवश्यक विचार यथा परब्रह्म की प्राप्ति का विचार, भगवान के कर्तृत्व का विचार, भगवान की प्रसन्नता का विचार, आत्मविचार, संसार की नश्वरता का विचार, भगवत्संबंध की महिमा का विचार, गुणग्रहण, दिव्यभाव, दासभाव, अंतर्दृष्टि इत्यादि का समावेश यहाँ पर हुआ है। तदुपरांत बलहीन बातों का परित्याग, कुभाव-अवगुण से दूरी, भक्तों का पक्ष आदि सिद्धांतों को भी समाविष्ट किया गया है। इसके साथ मंदिरों की स्थापना का उद्देश्य तथा मंदिरों में दर्शन आदि की विविध रीतियों का भी यहाँ पर निर्देश है। इसके अतिरिक्त सत्संगी के लिए विहित नित्य विधि, सदाचार, नियम-धर्म, साप्ताहिक सत्संगसभा, घरसभा, घरमंदिर में भक्ति करने की पद्धति, नित्यपूजा, ध्यान, मानसी इत्यादि नित्य साधना भी इस ग्रंथ में सुग्रथित है।
इस ग्रंथ के शीर्षक में प्रयुक्त ‘दीक्षा’ शब्द का अर्थ दृढ संकल्प, अचल निश्चय और सम्यक् समर्पण है। सत्संग के आज्ञा-उपासना से संबंधित सिद्धांतों को जीवन में सुदृढ करने का संकल्प, उन सिद्धांतों के अचल निश्चय की प्राप्ति तथा उन सिद्धांतों के प्रति सम्यक् समर्पण, यह जीवन संदेश यहाँ पर प्रतिध्वनित हुआ है।
इस प्रकार भगवान श्रीस्वामिनारायण द्वारा प्रस्थापित और गुणातीत गुरुपंरपरा के द्वारा प्रवर्तित सत्संग में आजपर्यंत जो कुछ ज्ञान और आचरण अपेक्षित है तथा जो कुछ लाखों सत्संगीजनों के जीवन में अभिव्यक्त हो रहा है, वह सब गागर में सागर की भाँति इस ‘सत्संगदीक्षा’ ग्रंथ में समाविष्ट किया गया है।
चैत्री विक्रम संवत् २०७७, आषाढ शुक्ल पूर्णिमा, गुरुपूर्णिमा, दिनांक ५ जुलाई २०२० के पवित्र पर्व पर, महंतस्वामीजी महाराज ने इस ग्रंथ का प्रथम पूजन करके इसका विमोचन किया। इसी दिन उन्होंने सभी संतों एवं हरिभक्तों को आज्ञा की थी कि इस ग्रंथ में से प्रतिदिन ५ श्लोकों का अवश्य पठन करें।
यह ‘सत्संगदीक्षा’ ग्रंथ प्रकट गुरुहरि महंत स्वामीजी महाराज ने प्रमुखस्वामीजी महाराज की जन्म-शताब्दी के अर्घ्य के रूप में भगवान श्रीस्वामिनारायण तथा गुणातीत गुरुवर्यों के चरणों में समर्पित किया है।
निःसंदेह, श्रीहरि तथा अक्षरब्रह्मस्वरूप गुणातीत गुरुवर्यों के हृदयगत अभिप्रायरूप ‘सत्संग’ को नित्य जीवन में चरितार्थ करने के लिए दृढसंकल्परूप ‘दीक्षा’ का नित्य स्मरण करवाते इस ग्रंथ को रचकर, प्रकट ब्रह्मस्वरूप गुरुहरि महंतस्वामीजी महाराज ने समग्र सत्संग समुदाय पर एक महान उपकार किया है। उनके इस उपकार के लिए हम सदैव उनके ऋणी रहेंगे। इस ग्रंथ को संस्कृत में श्लोकबद्ध करनेवाले महामहोपाध्याय भद्रेशदासस्वामीजी भी धन्यवादार्ह हैं।
वैदिक सनातन धर्म के अर्करूप इस ‘सत्संगदीक्षा’ शास्त्र के नित्य पठन, मनन, निदिध्यासन के द्वारा हम यथार्थतः स्वामिनारायणीय सत्संग की ‘दीक्षा’ प्राप्त करें यही अभ्यर्थना।
- साधु ईश्वरचरणदास
५ जुलाई २०२०
गुरुपूर्णिमा, चैत्री विक्रम संवत् २०७७
अहमदाबाद, गुजरात