कीर्तन मुक्तावली
गोडी
पद - १
संत समागम कीजे, हो निशदिन...ध्रुव
मान तजी संतन के मुख से, प्रेम सुधारस पीजे...हो १
अंतर कपट मेटके अपनो, ले उनकुं मन दीजे...हो २
भवदुःख टरे बरे सब दुष्क्रित, सबविधि कारज सीजे...हो ३
ब्रह्मानंद कहे संत की सोबत, जन्म सुफल करी लीजे...हो ४
पद - २
संत परम हितकारी, जगत मांही...ध्रुव
प्रभुपद प्रगट करावत प्रीति, भरम मिटावत भारी...जगत १
परमकृपालु सकल जीवन पर, हरिसम सब दुःखहारी ...जगत २
त्रिगुणातीत फिरत तनु त्यागी, रीत जगत से न्यारी...जगत ३
ब्रह्मानंद कहे संत की सोबत, मिलत हैं प्रगट मुरारी...जगत ४
पद - ३
हरि भजता सुख होय, समझ मन...ध्रुव
हरि सुमिरन बिन मूढ अज्ञानी, उमर दीनी सब खोय...समझ १
मातपिता जुवती सुत बांधव, संग चलत नहीं कोय...समझ २
क्यूं अपने सिर लेत बुराई, रहना है दिन दोय...समझ ३
ब्रह्मानंद कहे हरि को भजी ले, हित की कहत हूँ तोय...समझ ४
पद - ४
यूंही जनम गुमात, भजन बिन...ध्रुव
समझ समझ नर मूढ अज्ञानी, काल निकट चली आत...भजन १
भयोरी बेहाल फिरत है निशदिन, गुन विषयन के गात...भजन २
परमारथ को राह न प्रीछत, पाप करत दिनरात...भजन ३
ब्रह्मानंद कहे तेरी मूरख, आयुष वृथा ही जात...भजन ४